Tuesday, September 16, 2008

मनुष्‍य पर कितने प्रकार के प्रभाव पड़ते हैं?

मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार के समुदाय को ‘अन्‍तःकरण’ कहते हैं जिसपर लगातार निम्‍नलिखित चौबीस प्रकार के प्रभाव पड़ते रहते ‍हैं और उन का सीधा प्रभाव मनुष्‍य के व्‍यक्तित्‍व, स्‍वभाव एवं स्‍वास्‍थ पर पड़ता है।
पाँच विघ्‍न: दु:ख, दौर्मनस्‍य, अंगमेजयत्‍व, श्‍वास और प्रश्‍वास (योग:1/39)।
नौ विक्षेप: व्‍याधि, स्‍त्‍यान, संशय, प्रमाद, आलस्‍य, अवरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्‍ध-भूमिकत्‍व और अनवास्थितत्‍व।
पाँच क्‍लेश: अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश (योग:2/3)।
पाँच वृ‍त्तियाँ: प्रमाण, विपर्य, विकल्‍प, निद्रा और स्‍मृति (योग: 1/6)।
[सूचनार्थ: स्‍थानभय की दृष्टि से इन सब की विस्‍तृत जानकारी यहाँ लिखना कठिन है। ज्ञान द्वारा उपरोक्‍त प्रभावों से बचा जा सकता है। कैसे? इसको जानने के लिये हम अपने जिज्ञासु पाठकवृन्‍द से विनम्र विनती करते हैं कि वे महर्षि पतञ्जलिकृत ‘योग दर्शन’ का स्‍वध्‍याय करें।]

इस संसार में मनुष्‍य कैसे सुखी रह सकता है?

यह इतना गूढ़ प्रश्‍न है कि उसका उत्तर संक्षिप्‍त में देना कठिन है क्‍योंकि इस विषय पर अलग से एक पुस्‍तक लिखी जा सकती है, फिर भी ‍हम कम से कम शब्‍दों में इस प्रश्‍न का उत्तर देने का प्रयास करते हैं।
इस प्रश्‍न को समझने से पहले एक कथा सुनें – एक दुःखी व्‍य क्ति अपने दुःखों की निवृत्ति हेतु एक सन्‍त के पास गया और अपने दुःखों की सारी दास्‍ताँ सुनाने लगा। सन्‍त से उसकी बातें ध्‍यान से सुनी। वह व्‍यक्ति हाथ्‍र जोड़कर प्रार्थना करने लगा ‘हे भगवन्! आप मेरे दुःखों का निवारण कीजिये, ऐसी कृपा करें कि मैं अपने जीवन में सदा के लिये सुखी रहूँ। वह सन्‍त कुछ देर तक मौन रहा और उस को धीरज दिलाते हुए कहा – "आप धैर्य रखें! र्मैं आप के दुःखों का अवश्‍य निवारण करूँगा परन्‍तु एक सप्‍ताह के पश्‍चात्। पहले मेरा एक काम करो। मुझे एक सप्‍ताह के भीतर किसी भी एक सुखी व्‍यक्ति का कोई एक वस्त्र लाकर दो तो ही मैं तुम्‍हें वह सरलत्तम उपाय बताऊँगा जिससे तुम सब प्रकार के दुःखों से छूट जाओगे और सदा के लिये सुखी हो जाओगे"।
सन्‍त की आज्ञा मानकर वह दुःखी व्‍यक्ति सन्‍त जी को प्रणाम करके वहाँ से चला गया। मन ही मन सोचने लगा कि यह काम तो मैं कुछ ही दिनों में पूरा कर सन्‍त के पास जाऊँगा और उनका उपदेश पाकर सदा के लिये सुखी हो जाऊँगा। अब वह सुखी व्‍यक्ति की खोज में निकला। दो दिन के बाद उस दुःखी व्‍यक्ति ने एक बहुत बड़ी और शानदार हवेली देखी, सोचने लगा कि जिसकी इतनी बड़ी हवेली है, वह अपने जीवन में कितना न सुखी होगा, यह सोचकर वह वह उस भव्‍य भवन के मालिक के पास पहुँचा और सेठ जी को अपनी पूरी समस्‍या सुनाई तथा विनम्रता से प्रार्थना करने लगा कि मैं भी आप की भान्ति सुखी होना चाहता हूँ अतः मुझे एक सन्‍त ने आप जैसे प्रसन्‍नचित महानुभाव का कोई भी एक वस्‍त्र लाने को कहा है। कृपा करके मेरी सहायता करें। यदि मुझे आपका कोई वस्‍त्र मिल जाए तो मैं भी सुखी हो सकता हूँ। सेठ जी ने कहा "भाई! जैसा आप समझते हैं मैं वैसा (सुखी) नहीं हूँ। मेरे पास धन-दौलत की कोई कमी नहीं है, परन्‍तु मैं दिल का मरीज़ हूँ, मेरी आँखें कमज़ोर हैं, इस शरीर में और भी कई रोग अपना डेरा डाले हुए हैं, डॉ॰ ने अनेक वस्‍तुओं से परहेज़ रखने को कहा है। इतना धन-दौलत होते हुए भी मैं अपनी मन चाही चीज़ खा नहीं सकता, पी नहीं सकता, कहीं आ-जा नहीं सकता, सारा दिन घर पर ही वक्‍त गुजा़रता हूँ, मेरे जैसा दुःखी इस संसार में और कोई नहीं हो सकता। भाई! आप मेरे जैसे दुःखी के वस्त्र लेकर क्‍या करोगे?"
लाचार होकर वह व्‍यक्ति दूसरे सुखी व्‍यक्ति की तलाश में निकला, परन्‍तु वहाँ भी उसने वही उत्तर पाया कि ‘मैं बहुत ही दुःखी हूँ’। इस प्रकार वह अनेक सुखी व्‍यक्तियों (जो वास्‍तव में बाहर से सुखी दिखते थे) के पास पहुँचा परन्‍तु सब की बातों से यही पाया कि सब अपने-अपने जीवन में किसी न किसी कारण बहुत दुःखी हैं, कोई सुखी नहीं है। एक सप्‍ताह बीतने पर वह दुःखी व्‍यक्ति पहले से भी अधिक दुःखी अवस्‍था में सन्‍त के पास लौट आया और पिछले सप्‍ताह की पूरी घटना सन्‍त को सुनाई। सन्‍त ने शान्तिपूर्वक उसकी पूरी बात सुनी।
सन्‍त ने उसे पूर्ण विश्‍वास दिलाया कि "कोई बात नहीं। मैंने तुम्‍हें इसी लिये एक सप्‍ताह का समय दिया था कि तुम जान सको कि इस संसार में सब लोग दुःखी हैं, कोई सुखी नहीं। जानते हो क्‍यों? क्‍योंकि वे लोग अपने रोज़ मर्रा के संसारिक काम काज में परमात्‍मा को भुला चुके हैं और जिसके परिणाम स्‍वरूप उसके कर्म-फल व्‍यवस्‍था को भी भूल जाते हैं कि परमात्‍मा शुभाशुभ कर्मों का फल सुख अथवा दुःख के रूप में प्रदान करता है। ईश्‍वर का स्‍मरण (ईश्‍वर के नाम का स्‍मरण) करने से मनुष्‍य कभी भी बुरा कर्म नहीं करता और उस ईश्‍वर को भूलते ही वह बुरे कर्मों मे लिप्‍त हो जाता है, जिसके फलस्‍वरूप वह दण्‍ड रूपी दुःख को प्राप्‍त करता है।
ईश्‍वर सर्वव्‍यापक होने सब के अंग-संग (सर्वान्‍तर्यामी अर्थात् सब के अन्‍तःकरण में सदा विद्यमान) रहता है। आप सब को अनुभव होगा ही कि जब हम कोई कर्म करते हैं तो कर्म करने से पूर्व हमारे हृदय में तीन प्रकार के भाव उत्‍पन्‍न हुआ करते हैं – जैसे "शंका, भय और लज्‍जा" अथवा "निःशंका, निर्भयता तथा उसाह"। इस प्रकार के भाव हमारे हृदय में ईश्‍वर उत्‍पन्‍न करता है अर्थात् मानो ईश्‍वर हमें चेतावनी प्रदान करता है कि वह जो कर्म हम अभी करने जा रहे हैं वह शुभ है या अशुभ। शुभाशुभ कर्म का पैमाना यही है "यदि हम बुरा कर्म करने जा रहे हैं तो कर्म करने से पूर्व हमारे मन में "शंका, भय और लज्‍जा" उत्‍पन्‍न होने लगती हैं और जब कर्म करते समय हमारे मन में "निःशंका, निर्भयता तथा उसाह" उत्‍पन्‍न होती है तो हमें समझ लेना चाहिये कि हम ग़लत नहीं कर रहे, कुछ अच्‍छा कर रहे हैं। मनुष्‍य को चाहिये कि वह कोई भी कर्म करने से पूर्व अपने मन में सर्वव्‍यापक परम पिता परमात्‍मा को तथा उसकी बनाई न्‍याय व्‍यवस्‍था को अवश्‍य स्‍मरण करे जिससे वह बुरे कर्म करने से बच जाएगा। याद रहे कि अच्‍छे कर्म का फल अच्‍छा ही होता है और बुरे कर्म का परिणाम (दण्‍ड) हमेशा बुरा ही होता है। सब को अपने किये का फल अवश्‍यमेव भुगतना पड़ता है। इस कर्मफल से कोई भी छूट नहीं सकता – चाहे वह कोई भी क्‍यों न हो।
सुखी रहने के कुछ उपाय: 1) हर हाल में प्रभु को स्‍मरण करते रहना। 2) ईश्‍वर की इच्‍छा मानकर वर्तमान स्थिति में प्रसन्‍नचित और संतुष्‍ट रहना। 3) जितना है उसी में संतुष्‍ट रहना। 4) जिसकी इच्‍छाएँ कम होती हैं। 5) जो व्‍यक्ति तीनों ऐषणाओं से दूर रहता है अर्थात् जिसमें वित्तैषण, पुत्रैषणा और लोकैषणा नहीं होती। 6) जो संतोष धन को प्राप्‍त करता है वह व्‍यक्ति सर्वदा सुखी रहता है।
नोट: संतोष अर्थात् हर परिस्थिति को ईश्‍वर की कृपा समझकर प्रसन्‍नचित्त रहना। संतोष और असंतोष में केवल एक शब्‍द ‘अ’ का अन्‍तर है। ‘अ’ का अर्थ है ‘अभाव’ अर्थात् किसी वस्‍तु का न होना और अभाव के करण हर व्‍यक्ति जीवन में स्‍वयं को दुःखी समझता है। वास्‍तव में यह अज्ञानता का प्रतीक है। एक बात सदा स्‍मरण रखनी चाहिये कि ‘ईश्‍वर की कृपा’ के बिना कोई कार्य सिद्ध नहीं होता और ईशकृपा सुपात्रों को ही प्राप्‍त होती है, कुपात्रों को कदाचित् नही। आत्‍म विश्‍वासी व्‍यक्ति ईशकृपा को प्राप्‍त करने में समर्थ होता है। दृढ संकल्‍प, आत्‍मविश्‍वास और परिश्रम द्वारा हर प्रकार के अभाव को दूर किया जा सकता है।

शंका: क्षमा याचना करने से क्‍या ईश्‍वर अपने भक्‍तों के पापों को क्षमा करता है?
समाधान: कदाचित् नहीं! यदि परमात्‍मा किसी भी व्‍यक्ति के पापों को क्षमा करता है तो वह न्‍यायकारी नहीं हो सकता क्‍योंकि वह पापियों को अधिक पाप कर्म करने की अनुमति, बढ़ावा तथा स्‍वतन्‍त्रता प्रदान कर रहा है जो परमात्‍मा के लिये असम्‍भव बात है। ईश्‍वर न्‍यायकारी है, दयालू है, इसी लिये पापियों को सुधारने के लिये दण्‍ड देता है। संसार में हम देखते हैं कि छोटा सा बच्‍चा भी यदि वह पहली बार कोई ग़लती करता है तो उसके माता-पिता समझाते हैं और वह बच्‍चा जान-बूझ कर ‍िफर उसी ग़लती को बार-बार करता है तो माँ-बाप उसे सज़ा देते हैं ताकि उसका बच्‍चा भविष्‍य में वही ग़लती न करे और सुधर जाए। परमात्‍मा भी हमें हर क़दम पर हर बुरे काम करने से पहले चेतावनी देता रहता है। जानते हैं कैसे? हर बुरे कार्य करने से पूर्व या हर ग़लती करने से पहले हमारे मन में ‘भय’, ‘शंका’ और ‘लज्‍जा’ की अनुभूति होती है, वह परमात्‍मा की ओर से चेतावनी होती है, जो हम सुनी-अनसुनी कर देते हैं। उसकी बात न मानकर हम ‍िफर ग़लत कार्य करते हैं और उसका फल मिलने पर पछतावा करते हैं और ईश्‍वर से माफ़ी माँगते रहते हैं। आप ही बताइये कि क्‍या वह न्‍यायकारी परमात्‍मा हमें माफ़ करेगा, हमें बक्षेगा? यह सम्‍भव नहीं! यदि ऐसा होने लगे तो पापी जन और अधिक पाप करने लगेंगे और अपने किये कुकर्मों की क्षमा याचना करेंगे। ‍िफर ईश्‍वर की न्‍याय व्‍यवस्‍था का क्‍या होगा?
मनुष्‍य हर समय जाने-अनजाने में ग़लतियाँ या दुष्‍कर्म करता रहता है और कभी-कभी तो सोच-समझकर जानते हुए भी कि इस ग़लत कार्य का परिणाम ठीक नहीं होगा ‍िफर भी वह कुकर्म कर बैठता है और कर्म करते ही वह ईश्‍वर से क्षमा याचना माँगता है कि ‘हे प्रभो मुझे माफ़ कर दो’। परमात्‍मा की चेतावनी के बावजूद भी वह दुष्‍कर्म करता है तो क्‍या ईश्‍वर उसे क्ष्‍मा करेगा? अतः हर पाप कर्म अथवा ग़लती के परिणाम में दण्‍ड के रूप में ‘दुःख’ (बन्‍धन) प्राप्‍त होता है और हर पुण्‍य तथा अच्‍छे कर्म का फल ‘सुख’ (स्‍व्‍तन्‍त्रता) के रूप में मिलता है। दुःख का दूसरा नाम बन्‍धन है और सुख का दूसरा नाम स्‍वतन्‍त्रता है। इसलिये सब मनुष्‍यों को सब काम सोच-समझकर कर धर्मानुसार करने चाहियें।

क्‍या ईश्वर है या केवल हमारी सोच है?

आपकी इस शंका में ही उसका समाधान छुपा है जो बता रहा है कि ‘ईश्वर’ नाम की कोई वस्‍तु है अन्‍यथा आप इस प्रकार की शंका नहीं करते! जो शब्‍द बना है उसका अर्थ अवश्‍य होता है अतः ईश्‍वर का अस्तित्‍व है इसलिये तो ‘ईश्‍वर’ शब्‍द बना है।
ज़रा विचारिये – इतने विशाल ब्रह्माण्‍ड को किस ने बनाया है? इस पृथ्‍वी को किसने बनाया है? पृथ्‍वी का परिमाण – उसकी गोलाई, वज़न, वायु का मिश्रण, सूर्य से दूरी इत्‍यादि ठीक मात्रा में किस ने बनाई है? यदि हमारी पृथ्‍वी वर्तमान स्थिति में न होकर सूर्य से कुछ और पास या दूर होती तो धरती पर जन-जीवन का अस्तित्‍व असम्‍भव होता! हमारी पृथ्‍वी अपनी धुरी में घूमते हुए, सूर्य का चक्‍कर, एक घंटे में लगभग 67000 मील की रफ़्तार से लगाती है तथा ग्रह-उपग्रह, चन्‍द्रमा, सूर्य, तारे, आकाश गंगाएँ इत्‍यादि को गति कौन दे रहा है? यह नियम किस ने बनाये हैं?
जल को ही लीजिये – इसका कोई रंग, स्‍वाद या गन्‍ध नहीं है फिर इसके बिना कोई जीव जीवित नहीं रह सकता। ‘जल है तो जीवन है’। वन-वनस्‍पति जगत् की रचना कौन करता है? माता के गर्भ में बच्‍चे का निर्माण तथा परवरिश कौन करता है? पृथ्‍वी, जल, वायु तथा अन्‍तरिक्ष में स्थित असंख्‍य लोक-लोकान्‍तरों में बसने वाले असंख्‍य प्राणियों को कौन उत्‍पन्‍न करता है और उनकी देख-भाल करता है? प्रकृति के नियमों का रचयिता कौन है? ऐसे अनेक प्रश्‍न हैं जिनका उत्तर हम मनुष्‍य होकर भी नहीं दे सकते। हम में से काई ऐसा नहीं है जो कह सके कि यह सब हमने बनाया है। फिर वही प्रश्न आख़ि‍र यह सब किसने बनाया है?
इतना अवश्‍य कह सकते हैं कि कोई तो है (निराकार चेतन तत्त्‍व) जो सब का निर्माण करता है। जिसको हम देख नहीं सकते, समझ नहीं सकते परन्‍तु इतना तो अवश्‍य कह सकते हैं कि वह सब हम सब से अधिक ज्ञानी, शक्तिशाली और महान है। वह सब रचना चुप-चाप, छुपकर, बिना किसी को बताए करता है और किसी को कुछ भी मालूम नहीं पड़ता। हम उस चेतन, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ और सर्वव्‍यापी तत्त्‍व/वस्‍तु/चीज़ को "ईश्‍वर" के नाम से पुकारते हैं। कोई उसे ‘ईश्वर’ कहता है तो कोई उस को ‘परमात्‍मा’ कहता है। संसार में विभिन्‍न विचारों वाले, अलग-अलग मत-मतान्‍तर वाले, भिन्‍न-भिन्‍न मान्‍यता और मज़हब वाले लोग उसे अपनी-अपनी भाषा में अलग-अलग अनेक नामों से पुकारते हैं। वेद में उस परम तत्त्‍व को "ओ३म्" के नाम से सम्‍बोधित किया है क्‍योंकि "ओ३म्" नाम में उस परम पिता परमात्‍मा (ईश्‍वर) के सभी कार्मिक, गौणिक तथा अलंकारिक इत्‍यादि नामों का समावेश हो जाता है।
‘ईश्वर’ एक अद्वितीय, नित्‍य, चेतन तत्त्‍व (वस्‍तु) को कहते हैं जो इस जगत् का निमित्त कारण है और सब का आधार है। वह सकल जगत् का उत्‍पतिकर्त्ता, समग्र ऐश्‍वर्ययुक्‍त, शुद्धस्‍वरूप, सब सुखों के दाता है। ईश्‍वर सच्चिदानन्‍दस्‍वरूप, निराकार, सर्वशक्‍ितमान, न्‍यायकारी, दयालू, अजन्‍मा, अनन्‍त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्‍वर, सर्वव्‍यापक, सर्वान्‍तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्‍य पवित्र और सृष्टिकर्त्ता हैं। वह निर्लेप, सर्वज्ञ तथा शुद्ध-बुद्ध-मुक्‍त स्‍वभाववाला है। हम जितनी भी कल्‍पना कर सकते हैं, परमात्‍मा उससे कहीं अधिक शक्तिशाली है। असंख्‍य सृष्टियाँ तथा आत्‍माएँ परमात्‍मा के भीतर रहती हैं और परमात्‍मा स्‍वयं इन सब में विराजमान होता है। ब्रह्माण्‍ड में ऐसा कोई स्‍थान रिक्‍त नहीं है जहाँ ईश्वर की सत्ता विद्यमान न हो अर्थात् वह सृष्टि के प्रत्‍येक वस्‍तु में, प्रत्‍येक कण-कण में समाया हुआ है और साक्षी बनकर सब के भीतर रहता है।
‘ईशा वास्‍य इदं सर्वम्’ (यजुर्वेद: 10/1) अर्थात् ईश्वर इस ब्रह्माण्‍ड के प्रत्‍येक वस्‍तु के कण-कण में विद्यमान है – वह सब वस्‍तुओं के भीतर-बाहर ओत-प्रोत रहता है।
‘जन्‍माद्यस्‍य यतः’ (वैशेषिक दर्शन: 1/1/2) अर्थात् जिससे इस संसार की उत्‍पति, स्थिति और प्रलय होती है उस चेतन का नाम ईश्वर है।
क्‍लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्‍टः पुरुषविशेष ईश्‍वरः’ (योग दर्शन: 1/24) अर्थात् जो अविद्या, क्‍लेश, कुशल-अकुशल, इष्‍ट-अनिष्‍ट और मिश्र फलदायक कर्मों की वासना से रहित है, वह सब जीवों से विशेष ‘ईश्वर’ कहाता है।

वैदिक समाधान

वैदिक समाधान

जितने लोग उतनी बातें! लोग तरह-तरह की बातें करते हैं तथा जो कुछ सुनते-पढ़ते या विचारते हैं उन्‍ही बातों को अपने ढंग से प्रस्‍तुत करने का प्रयास करते हैं और उसी को वे सही मानते हैं। कुछ लोग किसी की भी बात को मानने की बात तो अलग है समझना भी नहीं चाहते। वे समझते हैं कि जो वे जानते हैं वही सही है और अपने विचारों को बदलना उचित नहीं समझते क्‍योंकि वे समझते हैं कि कहीं उनकी सोच ग़लत न हो जाए। यह सब उनके अपने संस्‍कारों, आधुनिक शिक्षा प्रणाली तथा पारिवारिक प्रभाव का ही परिणाम होता है।
आधुनिक पीढ़ी के पढ़े-लिखे लोग परमात्‍मा को मानते तो अवश्‍य हैं परन्‍तु उसके बारे में अधिक जानना नहीं चाहते या ऐसे वाद-विवादों में पड़ना नहीं चाहते या गूढ़ रहस्‍यों को जानना नहीं चाहते और यहाँ तक कि वे परमात्‍मा के वास्‍तविक स्‍वरूप को भी जानना नहीं चाहते क्‍योंकि वे अपने ज्ञान में अधिक वृद्धि करना ही नही चाहते। जितना पुस्‍तकों में अथवा समाचार पत्रों पढ़ते हैं, उसी को सत्‍य मानते हैं। सब जानते हैं, यह कोई नई बात नहीं हैं यहाँ तक कि वे अपने बड़े-बुज़ुर्गों की बातों को भी अधिक तवज्‍जो नहीं देते, उनका कहना है कि आखि़र इतना सब जानने की आवश्‍यक्‍ता ही क्‍या है। क्‍या इस में आधुनिक शिक्षा प्रणाली का प्रभाव है या उनके अपने संस्‍कारों का या कुछ और ही बात है जिसके कारण आज-कल के लोगों को भगवान में से भरोसा कम होते जा रहा है?
आधुनिक शिक्षा प्रणाली केवल भौतिकवाद की ओर जाती है। आध्‍यात्मिक ज्ञान से वञ्चित होने के कारण तथा पारिवारिक सुख-सुविधाओं के दबाव में आकर आधुनिक पीढ़ी के लोग सारी उम्र केवल धन और साधनों को संग्रह करने में ही जुटे रहते हैं। ऐसे लोग भौतिकवाद में ही अपने उज्‍वल भविष्‍य की कामना करते हैं। यह आधुनिक शिक्षा का प्रभाव हैं। विज्ञान को समझते और समझाते हुए लोग भी प्रायः दूसरों के बहकावे में ओर अन्‍धविश्‍वासों के घेरे में घिर जाते हैं। कभी मन्दिरों में जाते नहीं, सत्‍संग में जाते नहीं, सन्‍त-महात्‍माओं के सम्‍पर्क में आते नहीं, घर में वैदिक विद्वानों को बुलाते नहीं, कभी स्‍वाध्‍याय करते नहीं, तो इन से क्‍या उम्‍मीद की जा सकती है? और भी अनेक कारण हो सकते हैं जिनके कारण ये पढ़े-लिखे दिखने वाले लोग अनेक प्रकारों के अन्‍धविश्‍वासों तथा अन्‍धश्रद्धाओं में बिना सोचे-समझे, बिना तर्क किये, बिना सत्‍य जाने, ऐसी बेतुकी बातों पर शीघ्रता से विश्‍वास करने लगते हैं।
मैंने अपनी पुस्‍तक "वैदिक समाधान" में प्रत्‍येक प्रश्‍न का बहुत ही संक्षेप और सरल भाषा मे उत्तर देने का प्रयास किया है वरना प्रत्‍येक प्रश्‍न का विषय इतना गूढ़ है कि उस के उत्तर में अलग से एक पुस्‍तक लिखी जा सकती है। उसी बात को ध्‍यान में रखकर हमने, पाठकवृन्‍द की जानकारी हेतु, इस पुस्‍तक के अन्तिम पृष्‍ठों में "वैदिक धर्म" के कुछ प्रचलित सिद्धान्‍त और मान्‍यताओं का वर्णन किया है। आशा है पाठकवृन्‍द उसको पढ़कर समझकर अपने जीवन में अवश्‍य लाभ उठाएँगे और अपने विचारों से दूसरों को भी लाभान्वित करेंगे।
मनुष्‍य कमाता है अपने लिये, परिवार के लिये, अपनी रोज़ मर्रा की आवश्‍यक्‍ताओं की पूर्ति के लिये तथा अपने उज्‍वल भविष्‍य के लिये – यह उसकी ‘प्रकृति’ (प्रवृति या स्‍वभाव) है। जब वह दूसरों की कमाई पर नज़र रखता है तथा छल-कपट-धोखे से दूसरे के माल को हथिया कर अपनी आवश्‍यक्‍ताओं के लिये प्रयोग करता है तो वह उसकी ‘विकृति’ कहाती है और जब वह अपनी नेक कमाई का कुछ हिस्‍सा परोपकार के कार्यों में लगाता है तो वह उसकी ‘संस्‍कृति’ कहाती है। जो अपने सुख के लिये दूसरों की हानि करता है, ऐसा व्‍यक्ति मनुष्‍य के रूप में राक्षस प्रवृति का कहाता है। मनुष्‍य वही है जो अपनी नेक कमाई का कुछ निर्धारित भाग औरों की सेवा में लगाता है, ज्‍ी हाँ! ऐसा व्‍यक्ति ही सचमुच में ‘मनुष्‍य’ की कोटि में आता है। वैसे अपना पेट तो सभी भरते हैं परन्‍तु जो दूसरों के दुःख-दर्द को अपना दुःख-दर्द समझता है वास्‍तव में वही ‘मनुष्‍य’ कहाने योग्‍य है क्‍योंकि यही हमारी संस्‍कृति है। यही वैदिक संस्‍कृति है।