आर्य समाज और हमारा समाज
आर्य समाज और हमारा समाज आर्य समाज और जिस समाज में हम सब रहते हैं उसकी छोटी सी झलक दर्शाने का प्रयास करते हैं। हम किस वातावरण में जी रहे हैं यह साब को अच्छी तरह से मालूम है और हम किस प्रकार के समाज में रहना चाहते हैं उसके बारे में सब विवेकशील मनुष्यों को सोचना चाहिये। ईश्वर की कृति में कभी कोई त्रुटि नहीं होती क्योंकि ईश्वर सर्वज्ञ और सर्वव्यापक है और दूसरी ओर मनुष्य स्वयं को बहुत ज्ञानवान समझता है परन्तु हर क़दम पर अनेक भूलें करता है और फिर भी उसे अपनी भूलों का अहसास नहीं होता और कालान्तर में जब उसे अपनी ग़लतियों का फल प्राप्त होता है तो उसका मस्तिष्क उसे (उसे स्वाभाविक ज्ञाननता के कारण) मानने से इन्कार करता है कि उसने कभी कोई भूल की होगी। यहाँ हम स्पष्ट करना चाहते हैं कि वैदिक सिद्धान्तानुसार तथा वैज्ञानिक नियमानुसार बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता और किये कर्म का फल कर्त्ता के ही कालान्तर में अवश्यमेव भुगतना पड़ता है। चुभते सुलगते कुछ प्रश्न: आज सब की ज़ुबान से कुछ बातें सुनने में आती है कि - आर्य समाज के पास वेदों तथा अन्य याास्त्रों का अथाह ज्ञान हाने के पश्चात् भी आखि़र क्या कारण है कि लोग उसकी ओर आकर्षित नहीं होते या आर्श् समाज लोगों को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाता? वर्तमान में सब गुरुओं के पास अधिक मात्रा में लोग ज्ञान प्राप्त करने जाते हैं तथा नाम-दान के लिये बहुत भीड़ जमा होती है? मन की शान्ति का ठेका क्या केवल आर्य समाज के पास ही है? तो क्या अन्स संस्थाओं में जाने वाले लोग अशान्त होते हैं? आख़िर क्या कारण है कि अन्य सम्प्रदाय के वशिाल और समृद्ध मन्दिरों में अधिक से अधिक लोग जाते हैं और हमारी समाजों में लोग आने से भी कतराते हैं तथा हमेशा धन की ही माँग रहती है? प्रश्न अनेक हैं परन्तु उत्तर कोई नहीं देता? प्रिय सज्जनों!जिज्ञासा करना अच्छी बात है – इससे ज्ञान की वृद्धि होती है और सुधरने-सुधारने का सुअवसर प्राप्त होता है परन्तु अपने मस्तिष्क से इस ग़लत फ़हमी (भ्रम) को निकाल दीजिये कि आर्य समाज उन्नति के मार्ग पर नहीं चल रहा। यह सत्य है कि आर्य समाज के पास वेदों तथा आर्ष ग्रन्थों का अथाह ज्ञान उपलब्ध है जिसका लाभ जिज्ञासू लोग ही उठाते हैं क्योंकि उनके पास सोचने समझने की विशेष योग्यता होती है जो सामान्य लोगों में कम होती है। साधारण अज्ञानी लोगों के भ्रम, भ्रन्तियाँ एवं अन्धविश्वास: इन पर अधिकतर लोग बिना सोचे-समझे भरोसा करते हैं कि: 1. बाबाओं की आशीर्वाद से बांझ स्त्री को भी संतान की प्राप्ति होती है। 2. महात्माओं द्वारा प्राप्त फल खाने से संतान्नोत्पति होती है। 3. साधु बाबा के छू मन्तर करने से या झाड़-फूँक से भूत-प्रत भाग जाते हैं। 4. वर और वधु की जन्मपत्रियाँ मिलाने से विवाह सफल होते हैं। 5. ग्रहों की स्थिति के कारण मनुष्य सुखी या दुःखी होते हैं और ज्यातिषियों के पास उसका तोड़ है। 6. पूजा-पाठ करने से क्राधित ग्रह-उपग्रह शान्त हो जाते हैं। 7. क़ीमती पत्थर धारण करने से घर में सुख-समृद्धि-शान्ति होती है। 8. मुहूर्त देखकर ही घर के बाहर निकलना चाहिये क्योंकि समय शुभ और अशुभ होता है। 9. गुरुजनों की जूठन खाने से जीवन सफल होता है। 10. गुरु की हरेक बात को बिना शंका/प्रश्न/संशय किये मानना चाहिये। 11. मृतकों का श्राद्ध अर्थात् ब्राह्मणों को खिलाना पिलाने से दिवन्गतात्माओं को मुक्ति मिलती है। 12. माता का जागरण करने से मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। 13. सत्यनारायण का प्रसाद ग्रहण न करने से सर्वनाश निश्चित है। 14. जादू-टोने से किसी को भी अपने वश में किया जा सकता है या व्यक्ति-विशेष की मृत्यु कराई जा सकती है। 15. बाबाओं की मूर्ति से भभूति अथवा सिन्दूर निकलता है, जूते स्वयं से चलते हैं, नीम के पत्ते मीठे लगते हैं, समुद्र का पानी मीठा हो जाता है इत्यादि। 16. बाबाओं के हाथ फेरने से सोने के मंगलसूत्रादि आभूषण, सोने के सिक्के, विदेशी घडि़याँ, भभूति और फल इत्यादि वस्तुएँ निकलती हैं। क्या यह कमाल नहीं है? वास्तव में ऐसा कुछ नहीं होता, कोई जादू मन्तर नहीं होता और न ही कभी हो सकता है क्योंकि प्रकृति नियमों का उलंघन कोई नहीं कर सकता – चाहे वह बाबा हो या बापू या कोई पीर-फ़कीर या महात्मा। उपरोक्त अन्धविश्वासों को फैलाने में किन-किन लोगों का हाथ है – क्या आप जानते हैं? इनके पीछे स्वार्थी, ढौंगी, पाखण्डी, फ़रेबी, बहुरूपिये, निकत्ते, अघोड़ी, नकली और तथाकथित साधु, सन्त, बाबा, बापू, महात्माओं इत्याादि तथा मानव जाति के शत्रु होते हैं जिनको और कोई काम-काज या धंधा नहीं होता और बिना परिश्रम किये बैठे-बिठाए हराम की मिलती है जिससे उनकी तीनों ऐषणाओं की पूर्ति होती है। इन लोगों की काली करतूतों से सच्चे साधु-सन्तों और बाबाओं का नाम ख़राब होता है। हमारे समाज के श्रेष्ठ (आर्य), सुशिक्षित और सभी सभ्य समझदार लोगों का कर्तव्य बनता है कि वे सार्वजनिक हितार्थ तथा साधारण ज्ञान रखने वाले लोगों का सही मार्गदर्शन करें तथा उन्हें सावधानी बरतने के क़दम उठाएँ। अपने बच्चों को समझाएँ। यह सब तथी सम्भव है जब कि हम स्वयं सुधरें। हम सुधरेंगे तो समाज में स्वयं सुधार आ जाएग क्योंकि समाज हमी से बनता है और हमी से बिगड़ता है और इसी से देश बनते हैं। देश पिछउ़ जाएगा जो सर्वनाश होता है और इसे कोई बचा नहीं सकता। ईश्वर भी बचा नहीं सकता। समाधान एवं उत्तर: आर्य समाज एक क्रान्तिकारी एवं श्रेष्ठतम मानव निर्माण संस्था है जिसमें ईश्वरीय ज्ञान ‘वेद’ तथा आर्ष ग्रन्थों के माध्यम से मनुष्य को मनुष्य बनाया जाता है क्योंकि जब तक मनुष्य मनुष्य नहीं बनता वह इस संसार में अच्छी प्रकार से सुखों को भोग नहीं कर समका और अपने परम लक्ष्य ‘मोक्ष’ को प्राप्त नहीं कर सकता। आर्य समाज में सामने मूर्तियाँ रखकर गाने-बजाने या नृत्य नहीं होते जैसे कि प्रायः अन्य संस्थाओं में होते हैं। आर्य समाजों में रास लीलाएँ या नाटक नहीं होते अपितु योगाभ्यास होता है। यहाँ किसी प्रकार का टाईम पास नहीं होता या टाईम पास के लिये लोग नहीं आते अपितु साधना के लिये आते हैं। जिन लोगों को यह शिकायत है कि हमारे यहाँ लोगों की उपस्थिति कम होती है, भीड़ कम होती है तो उन को यह समझना होगा कि आर्य समाजों में सत्य पर आधारित उपदेश होते हैं, विद्वानों एवं संन्यासियों के प्रवचन होते हैं। साधना करने वालों के लिये सत्य को ग्रहण करना आसान होता है क्योंकि सत्य स्वाभाविक होता है परन्तु साधारण लोगों के लिये सत्य को ग्रहण करना उतना ही कठिन होता है। जिन संस्थाओं में या मन्दिरों इत्यादि में अधिक भीड़ देखी जाती है वहाँ जाकर देखें तो सही कि वहाँ कितना सत्य का पाठ पढ़ाया जाता है और क्या-क्या होता है। किसी शायर ने ठीक ही लिखा है "सच्चाई छुप नहीं सकती बनावट के उसूलों से और ख़ुश्बू आ नहीं सकती कभी काग़ज़ के फूलों से"। अतः दूर के ढोल सुहाने लगते हैं परन्तु सत्य क्या है परा में जाने से ही पता चलता है। सत्य और असत्य को बोध ‘आर्य समाज’ बेहत्तर सिखाता है। वक्त का तक़ाज़ा: हमें स्वयं को देखना है दूसरों को नहीं क्योंकि विवेकशील व्यक्ति दूसरों की अच्छाइयों को ग्रहण करने तथा अपनी बुराइयों को त्यागने का प्रयास करता है परन्तु यदि दूसरों में कमियाँ हैं जो समाज के लिये हानिकारक होती हैं तो उनको ठीक करने का प्रयास भी करना चाहिये क्योंकि कि "व्यक्ति को अपनी ही उन्नति में संतुष्ट न रहना चाहिये किन्तु दूसरों की उन्नति में ही अपनी उन्नति समझनी चाहिये"। पाठकवृन्द को जागृत करना चाहते हैं कि हमारे यहाँ (आर्य समाजों में) सत्य के सुगन्धित फुलों को बाँटा जाता है और वहाँ (प्रायः अन्य संस्थाओं में, मन्दिरों में और तथाकथित गुरु-बाबाओं के यहाँ) अन्धविश्वासों के काँटे ही बिकते हैं क्योंकि लोगों को उनका मूल्य अदा करना पड़ता है। अज्ञानता कहिये या अन्धश्रद्धा सामान्य लोग प्रायः काँटे ख़रीदते हैं। आयग् समाज में कोई भी आ सकता है और निःशुल्क अमृत का पान कर सकता है। अनेक लोगों को इस बात से आपत्ति होती है कि ‘आर्य समाजी’ दूसरों का खण्डन करते रहते हैं इसलिये उनकी उन्नति नहीं हो पाती। उनकी यह धारणा शतप्रतशित असत्य है क्योंकि आर्य समाज का मुख्य उद्देश्य "संसार का उपकार करना है" और इसी के मद्देनज़र यदि जिसे समाज में हम रहते हैं उसमें कुरीतियाँ पनपती हैं तो अन्धविश्वास फैलता है जिसके फलस्वरूप पाखण्ड घर कर लेता है और जिसके कारण लोगों में छूआ-छूत, अन्याय, सतीप्रथा इत्यादि जैसी कुरीतियाँ बढ़ती हैं तो क्या उनको दूर करना बुरा काम है और क्या श्रेष्ठ लोग हाथ पर हाथ धरे अपने घरों में बैठ सकते हैं? क्या शिक्षित लोगों का कर्तव्य नहीं है कि वे अपना उत्तरदायित्व समझते हुए सामने आएँ और सब की भलाई के नेक काम में लग जाएँ? कदाचित् नहीं! ‘आर्य समाज’ मूक रहकर तमाशा देखने वाली संस्थाओं में से नहीं है अतः उसे सत्य बात करने में कोई झिझक नहीं होती। अन्य संप्रदाय वाले अनुयायी भी ‘आर्य समाज’ के कार्यों को सराहते हैं। सत्य का साथ देने वालों का कोई भी मुँह बन्द नहीं कर सकता। हम अपने विचारशील मित्रों से एक प्रश्न करना चाहते हैं कि – ईश्वर निराकार है या साकार अर्थात् उसका कोई रूप, रंग या आकार है कि नहीं? यदि कहो कि वह परमात्मा निराकार है तो उसका आकार नहीं हो सकता अतः मूर्ति पूजा करना पाप है और यदि कहो कि ईश्वर आकार वाला है तो उसका रूप, रंग, आकार और सीमा निश्चित होनी चाहिये और यदि उसकी सीमा निश्वित है तो वह इतने विशाल ब्रह्माण्ड का निर्माण नहीं कर सकता। अनेक लोग ईश्वर को सर्वशक्तिमान मानते हैं कि वह जो चाहे कर सकता है तो आपसे कुछ प्रश्न पूछना चाहते हैं – यदि वह सब कुछ कर सकता है तो क्या वह स्वयं मृत्यु को प्राप्त हो सकता है? क्या वह अपने जैसा दूसरा ईश्वर उत्पन्न कर सकता है? क्या वह सो सकता है? क्या वह देहधारियों की भान्ति खा, पी सकता है? क्या वह मनुष्य जैसे कुकर्म भी कर सकता है? आप का उत्तर यही होगा – कभी नहीं! जा हाँ! सर्वशक्तिमान का अर्थ यह नहीं कि वह जो चाहे सब कुछ कर सकता है। स्मरण रहे वैदिक धर्म के अनुसार ‘सर्वशक्तिमान परमात्मा’ का अर्थ होता है – "परमात्मा अपने सब कार्य बिना किसी की सहायता के स्वयं करता है" किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं पड़ती। आज संसार में अनेक अन्धविश्वासों और अन्धश्रद्धाओं का बोलबाला है जिसकी आढ़ में अनेक पाखण्डीख् कुकर्मी लोगों ने भोले-भाले साधारण लोगों को मूर्ख बनाकर अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं। तथाकथित बाबाओं तथा बापूओं की भीड़ में नादान ही नहीं पढ़े-लिखे लोग भी फँस जाते हैं। याद रहे! हमारी आँखें प्रायः धोखा खाती हैं परन्तु बुद्धिमान व्यक्ति वही है जो ज्ञान और तर्क की सहायता से सत्य और असत्य को परख सकते हैं। जीवन में धन-दौलत से ही जीवन की सफलता को नहीं नापा जा सकता। सर्वविदित है कि जो धनी लोग बाहर से सुखी लगते हैं परन्तु उनके क़रीब जाने से पता चलता है कि वे भी बहुत दुःखी होते हैं। कभी इन्कम टैक्स का डर तो कभी धन की सुरक्षा का भय, कभी जान का ख़तरा तो कभी चोरी का भय। अधिक धन आने से रातों की नींद उड़ जाती है, भूख मर जाती है और अनेक बड़ी बीमारियाँ सामने आ खड़ी हो जाती हैं। अतः संसार में धन-दौलत ही सब कुछ नहीं होता। हमारे कुछ मित्रों ने बताया है कि जब से उन्होंने गुरु किया है और मूर्ति पूजा प्रारम्भ की है तब से उनके व्यवसाय में इज़ाफ़ा हुआ है और मन की शानित भी प्राप्त हुई है। क्या यह भी झूठ है? हमारा उत्तर है: जी नहीं! क्योंकि धन, दौलत, ऐश्वर्य और सुख समृद्धि मनुष्य के अपने प्रारब्ध, ज्ञान, पुरुषार्थ और अन्य कारणों से प्राप्त होते हैं और इसमें ईश्वर की कृपा बहुत बड़ा कारण होती है। जिन सज्जनो को जड़ अर्थात् मूर्ति आदि साकार वस्तुओं की पूजा करने में मन का शान्ति या सुख प्रतीत होता है वास्तव में यह उनका भ्रम है क्योंकि सुख और दुःख व्यक्ति के अपने ही कर्मों के कारण प्राप्त होते हैं इसमें मूर्ति पूजा या गुरु करने से कुछ नहीं होता। स्थाई सुख और शान्ति के लिये प्रभुभक्ति जिसको दार्शनिक भाक्षा में ‘योगाभ्यास’ कहते हैंं, परमावश्यक है। ‘योग’ आसन या शारीरिक व्यायाम करने का नाम नहीं है। योग का अर्थ है – आत्मा का परमात्मा से मिलन। जिस समय जीवात्मा ज्ञानपूर्वक परमात्मा के सम्पर्क में मग्नावस्था में होता है – वह योग की पराकाष्ठा है जिसे योग की भाषा में ‘समाधि’ कहते हैं। आज योग के नाम पर अनेक भ्रान्तियाँ फैली हूई हैं। उठने, बैठने, लेटने, हाथ-पाँव हिलाने डुलाने इत्यादि का नाम योग नहीं है। योगाभसियों को चाहिये कि वे महर्षि पतञ्जली कृत योगदर्शन का ध्यान से स्वाध्याय करें और योगा करने के लिये किसी सुशिक्षित योग गुरु की सहायता लें। योग के नाम पर आजकल अनेक संस्थाओं में योग कक्षाएँ लगती हैं जहाँ केवल हठयोग के कुछ आसन ही सिखाए जाते हैं। वास्तव में ‘आसन’ अष्टांग योग का तीसरा अंग है जिसके अभ्यास से शरीर लचीला और स्वस्थ होता है ताकि ईश्वर के ध्यान में लम्बे समय तक बैठने में योगाभ्यासी को कठिनाई न हो सके। योगाभ्यास से मन, बुद्धि, चित्त की उन्नति तथा आत्मिक उन्नति के लिये योग के आठों अंगों का अभ्यास आवश्यक है। मन की शान्ति: मन की शान्ति मात्र बाबा या किसी गुरु के पास जाने से प्राप्त नहीं होती उसको पाने के लिये अनेक साधन और कारण होते हैं। ‘मन की शान्ति’ मन के एकाग्रह होने पर ही मिलती है। मन चंचल होता है और उसको शान्त करने के लिये उसे कार्य में व्यस्त रखना ज्ररूरी है तो ही वह स्थिर होता है। मन को स्थिर करने के अनेक उपाय हैं जैसे ईश्वर के नाम का स्मरण करना, ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करना, परोपकारी कार्य करना इससे समय का सदुपयोग होता है और इस प्रकार अनेक उपाय हो सकते हैं जिससे मन की एकाग्रता होती है एवं मन को शान्ति मिलती है। स्थाई शान्ति हेतु मनुष्य को तीन नित्य तत्त्वों का ज्ञान होना परमावश्यक है अर्थात् आत्मा, परमात्मा और प्रकृति के स्वरूप का ज्ञान। संसारिक सुख पाकर मनुष्य क्षणिक सुख की प्राप्ति कर इस भ्रम में रहता है कि वह सुखी हो गया परन्तु यह उसका भ्रम है क्योंकि जब तक उसका मन शान्त नहीं होता वह कभी पूर्णरूपेण सुखी नहीं होता। मन की शान्ति का सर्वश्रेष्ठ उपाय है – सांसारिक विषय-भोगादि का त्याग करना, तीनों ऐष्णाओं से दूर रहना तथा हृदय में पनप रहे को, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष, चुग्रली, मान-अपमान इत्यादि शत्रुओं का सफ़ाया करना और यह सम्भव हो सकता है जब कि मनुष्य को तत्त्वज्ञान (ईश्वर, जीव और प्रकृति का यथार्थ ज्ञान) होता है। विषय विकारों के होते ‘मन की शान्ति’ तो बहुत दूर की बात है यदि मनुष्य को इस पृथ्वी का सम्पुर्ण साम्राज्य भी क्यों न प्राप्त कर ले उसका मन अशान्त ही रहेगा। श्रेष्ठ मानव जाति का समाज: आर्य का अर्थ होता है श्रेष्ठ और श्रेष्ठ जोगों के समाज को आर्य समाज कहते हैं। आर्य समाज एक संस्था का नाम है जो किसी जाति विशेष या सम्प्रदाय का नहीं। वह न तो हिन्दुओं का मन्दिर है न ही मुसलमानों की मस्जिद है और न ही सिक्खों का गुरुद्वारा है – सच मानो ‘आर्य समाज’ श्रेष्ठ मनुष्यों का अद्भुत संगठन है जिसमें कोई भी प्रवेश कर सकता है। किसी की जाती-पाती का प्रश्न ही नहीं उठता। आर्य समाज सब मनुष्यों को मनुष्य ही जानते और मानते हैं। आर्य समाज एक ईश्वर को ही अपना माता, पिता, बन्धु, सखा, राजा, न्यायाधीश और गुरु जानता और मानता है औा हम सब उसी परमात्मा की सन्तानें हैं। हम ईश्वरकृत ‘वेद’ (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद) ही ईश्वरीय वाणी जानते और मानते हैं और अन्य जितने भी ग्रन्थ या शास्त्र हैं जो वेदों के अनुरूप हैं उनको धर्म शास्त्र मानते हैं परन्तु जिन पुस्तकों में स्वार्थी लोगों ने मिलावट की गई है तथा अपनी अनेक बुराइयों को जोड़ा है, उनको धर्म-ग्रन्थ मानने से इन्कार करते हैं क्योंकि उनको पढ़ने से अधर्म फैलता है अतः ऐसी मिलावटी पुस्तकों को त्यागना ही ठीक है। रही बात भीड़ जमा करने की तो हमारे पाठकवृन्द जानते ही हैं कि अधिक भीड़-भढ़का कहाँ इकट्ठा होता है? रास्ते में मदारी खेल-तमाशा दिखाते हैं वहाँ भी भीड़ जमा होती है, जहाँ स्वार्थी लोग होते हैं उनको भी भीड़ जमा करने आती है, जहाँ सस्ता सामान बिकता है, जहाँ प्रसाद बँटता है, जहाँ हँसी-मज़ाक होता है, जहाँ कहानियाँ सुनाई जाती हें, जहाँ तफ़री का माहोल होता है, जहाँ प्रदर्शन होता है, जहाँ समय गँवाया जाता है – टाईम पास होता है इस प्रकार अनेक स्थान हैं जहाँ भीड़ इकटृठी होती है, इसका यह अर्थ नहीं कि वहाँ धर्म-कर्म की बातें होती हैं। सस्ती बर्तनों की दुकानों में भी भीड़ होती है और जहाँ क़ीमती सामान बिकता है जैसे सोने-चांदी की दुकान या जहाँ अमूल्य गहने इत्यादि बिकते हैं वहाँ लोग कम होते हैं। ऐसे स्थानों पर वे ही लोग जाते हैं जिनको वस्तुओं का ज्ञान होता है और अच्छी वस्तुएँ ख़रीदने की शक्ति होती है। अतः भीड़-भड़क्े की बातें करने वालों को समझ लेना चाहिये कि जहाँ सस्ता या नकली सामान बिकता है वहाँ सामान्य लोग ही जमा होते हैं। यही हाल मन्दिरों और अन्य संस्थाओं का भी है जहाँ तथाकथित धर्म के ठेकेदार केवल धन संग्रह करने में लगे रहते हैं। और दूसरी ओर जहाँ सत्य और धर्म की बातें होती हैं उन स्थानों पर लोग कम देखे जाते हैं। वैसे भी इस संसार में अज्ञानियों की कोई कमी नहीं है। माथे पर तिलक-टीका, गले में हार और हाथ में माला में माला फेरने से या नाम में परिवर्तन करने से कोई भी व्यक्ति ज्ञानी या धार्मिक नहीं बनता, ये मात्र दिखावा है। धर्म और ज्ञान किसी की धरोहर नहीं है क्योंकि ईश्वरीय ज्ञान सब के लिये होता है। तथाकतथत धर्म के ठेकेदारों के क़िस्से प्रायः समाचार पत्रों में छपते ही रहते हैं। जितने कुकर्म, पाखण्ड, अन्धविश्वास इस पाखण्डियों के तथाकथित धर्म स्थलों में होते हैं वैसे और कहीं नहीं होते। इस पृथ्वी पर यदि कोई ऐसी संस्था है जहाँ मात्र ईश्वरीय ज्ञान अर्थात् वैदिक धर्म का ही प्रचार-प्रसार होता है तो हम दावे के साथ घोषणा करते हैं कि वह केवल और केवल "आर्य समाज" है। जिन्हें तनिक भी शंका या संशय हो हम उन सब को ह्दय की गहराइयों से निमन्त्रण देते हैं (वैसे तो आर्य समाज सब के लिये खुला है) कि वे कभी भी अपने नज़दीकी आर्य समाज के भवन में पधारें और अपनी शंकाओं का समाधान कर सकते हैं। यह ऐसी समाज है जहाँ वेदों का पठन-पाठन होता है और वैसा ही आचरण होता है। आर्य समाज केवल निराकार परमात्मा की ही पूजा करते हैं जिसने ब्रह्माण्ड की रचना की है जो इसकी स्थिति और प्रलय करता है। हम उसी एक परमात्मा की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करते हैं। "कृण्वन्तो विश्वमार्यम्" (पूरे विश्व को श्रेष्ठ बनाएँ) यह वैदिक उद्घोष है, ईश्वर का आदेश है और यही मानव का कर्तव्य है। ईश्वर प्राप्ति करना ही सब मनुष्यों का परम पुरुषार्थ और लक्ष्य है। ईश्वर ने तो मनुष्य मात्र के लिये ज्ञान प्रदान किया है और अब मनुष्य के हाथ में है कि वह वेदों के बताए मार्ग पर चले या विपरीत चले क्योंकि जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है।
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