त्रिशब्द अटूट सम्बन्ध
अनादि तत्त्व = ईश्वर, जीव और प्रकृति।
प्राकृतिक मूल गुण = सत्व, रजस् और तमस्।
जगत के कारण = निमित्त, उपादान और साधारण।
"ओ३म्" के अक्षर = अ, ऊ और म्।
वैदिक महाव्याहृतियाँ = भूः, भुवः और स्वः।
ईश्वर के गुण = सर्वव्यापक, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान।
ईश्वर के कर्म = सृष्टिकर्त्ता, ज्ञानप्रदाता और कर्मफलदाता।
ईश्वर के स्वभाव = सत्य, चेतन और आनन्दस्वरूप।
जीवात्मा के गुण = एकदेशी, अल्पज्ञ और अल्पसामर्थ्यवान। (मनुष्य जाति)
जीवात्मा के कर्म = भोग, योग और मोक्षप्राप्ति का प्रयत्न। (मनुष्य जाति)
जीवात्मा के स्वभाव = सत्य, चेतन और कर्मशील। (मनुष्य जाति)
प्रभु मिलन के साधन = ज्ञान, कर्म और उपासना।
जीवन के परम-सत्य = जन्म, जीवन और मृत्यु।
साधना के साधन = ज्ञान, भक्ति और वैराग्य।
सफलता के शत्रु = स्वार्थ, आलस्य और अहंकार।
कर्म के साधन = मन, वचन और कर्म।
कर्म के भेद = शुभ, मिश्रित और अशुभ।
कर्म के रूप = अकाम, सकाम और निष्काम।
कर्मफल की प्राप्ति = जाति, आयु और भोग।
कर्मफल के प्रकार = फल, प्रभाव और परिणाम।
त्रिविध दुःख = आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक।
वस्तु के रूप = स्थूल, सूक्ष्म और सूक्ष्मतम।
तीन शरीर = स्थूल, सूक्ष्म और कारण।
तीन अवस्थाएँ = जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति।
काल की स्थिति = भूत, वर्तमान और भविष्य।
जीवन की स्थितियाँ = बचपन, यौवन और बुढापा।
लोक परिस्थियाँ = स्वर्ग, नरक और वैराग्य।
लड़ाई-झगड़े के कारण = धन, स्त्री और भूमि।
वाद-विवाद के कारण = अज्ञानता, अहंकार और निर्बलता।
तीन लिंग = स्त्रीलिंग, पुर्लिंग और नपुंसकलिंग।
मानव व्यवहार = आत्मवत्, सदाचार और मधुर=भाषण।
मानव कर्तव्य = सेवा, सत्संग और स्वाध्याय।
आर्य की परिभाषा = धर्माचारी, सेवाधारी और निर्हंकारी।
मनुष्य की पहचान = संस्कार, संस्कृति और मानवता।
आर्य की पहचान = धर्म, कर्म और आचरण।
मित्र की पहचान = आत्मवत् व्यवहारी, विघ्न निवारक और निःस्वार्थी।
शत्रु की पहचान = अत्यन्त मधुरभाषी, अवसरवादी और अत्यन्त स्वार्थी।
गुरु की पहचान = मार्गदर्शक, धार्मिक और निःस्वार्थी।
संन्यासी की पहचान = प्राणायाम, प्रवचन और परोपकार।
धार्मिक की पहचान = धर्मनिष्ट, परोपकारी और सर्वहितैषी।
मनुष्य का गुरु = ईश्वर, वेद और धर्मनिष्ठ माता=पिता=आचार्य।
स्वस्थ जीवन रहस्य = शुद्धाहार, शुद्धविहार और शुद्धव्यवहार।
घर का अर्थ = माता, पिता और संतान।
परिवार की परिभाषा = माता=पिता, पुत्र=पुत्रवधु और संस्कारी संतानें।
मूर्तिमान देवता = पितर (जीवित माता, पिता), गुरु (शिक्षक, आचार्य एवं आध्यात्मिक मार्गदर्शक तथा पति के लिये धर्मपत्नी एवं पत्नी के लिये पति) और अतिथिगण।
यज्ञ की परिभाषा = देव-पूजा, संगति-करण और दान।
यज्ञ की भावना = त्याग, परोपकार, और सेवा।
यज्ञ की सार्थकता = शुद्धता, समर्पण और वैदिक-विधि।
स्वाध्याय सामग्री = वेद, आप्त-पुरुष व्यवहार और स्व-अध्याय।
स्वाध्याय प्रक्रिया = पठन-पाठन, श्रवण-प्रवचन और सदाचरण।
सत्संग के पात्र = सदाचारी, धर्माचारी और धार्मिक विद्वान।
जप की विधि = नाम-स्मरण, अर्थ-चिन्तन और आचरण।
धर्म की विधि = सत्य, अहिन्सा और प्रेम।
श्राद्ध की विधि = सत्याचरण, पितर-सम्मान और समर्पण।
प्रेम की विधि = त्याग, समर्पण और निरभिमानता।
पूजा की विधि = सदुपयोग, मन-वचन-कर्म से सेवा और आज्ञा-पालन।
ध्यान की विधि = मौनावस्था, अर्थसहित प्रभु-नाम स्मरण और निरन्तराभ्यास।
समाधि की विधि = निर्विषयं मनः, निर्विषयं मनः और निर्विषयं मनः।
योग की उपलब्धि = प्रेम, समानता और आनन्द।
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