मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार के समुदाय को ‘अन्तःकरण’ कहते हैं जिसपर लगातार निम्नलिखित चौबीस प्रकार के प्रभाव पड़ते रहते हैं और उन का सीधा प्रभाव मनुष्य के व्यक्तित्व, स्वभाव एवं स्वास्थ पर पड़ता है।
पाँच विघ्न: दु:ख, दौर्मनस्य, अंगमेजयत्व, श्वास और प्रश्वास (योग:1/39)।
नौ विक्षेप: व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अवरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्ध-भूमिकत्व और अनवास्थितत्व।
पाँच क्लेश: अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश (योग:2/3)।
पाँच वृत्तियाँ: प्रमाण, विपर्य, विकल्प, निद्रा और स्मृति (योग: 1/6)।
[सूचनार्थ: स्थानभय की दृष्टि से इन सब की विस्तृत जानकारी यहाँ लिखना कठिन है। ज्ञान द्वारा उपरोक्त प्रभावों से बचा जा सकता है। कैसे? इसको जानने के लिये हम अपने जिज्ञासु पाठकवृन्द से विनम्र विनती करते हैं कि वे महर्षि पतञ्जलिकृत ‘योग दर्शन’ का स्वध्याय करें।]
The Sanskrit word 'Veda' means 'Knowledge. All human-beings are born ignorant by nature hence they need proper knowledge and guidance for proper living in this world. There are four Vedas namely Rigveda, Yajurveda, Samaveda and Arharvaveda revealed by Omnipresent, Omniscient, Omnipotent GOD in the beginning of the creation for benefit and upliftment of all mankind. One must read and follow the teachings of the Vedas. For more info. visit 'Arya Samaj'. Email: madanraheja@rahejas.org
Tuesday, September 16, 2008
इस संसार में मनुष्य कैसे सुखी रह सकता है?
यह इतना गूढ़ प्रश्न है कि उसका उत्तर संक्षिप्त में देना कठिन है क्योंकि इस विषय पर अलग से एक पुस्तक लिखी जा सकती है, फिर भी हम कम से कम शब्दों में इस प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास करते हैं।
इस प्रश्न को समझने से पहले एक कथा सुनें – एक दुःखी व्य क्ति अपने दुःखों की निवृत्ति हेतु एक सन्त के पास गया और अपने दुःखों की सारी दास्ताँ सुनाने लगा। सन्त से उसकी बातें ध्यान से सुनी। वह व्यक्ति हाथ्र जोड़कर प्रार्थना करने लगा ‘हे भगवन्! आप मेरे दुःखों का निवारण कीजिये, ऐसी कृपा करें कि मैं अपने जीवन में सदा के लिये सुखी रहूँ। वह सन्त कुछ देर तक मौन रहा और उस को धीरज दिलाते हुए कहा – "आप धैर्य रखें! र्मैं आप के दुःखों का अवश्य निवारण करूँगा परन्तु एक सप्ताह के पश्चात्। पहले मेरा एक काम करो। मुझे एक सप्ताह के भीतर किसी भी एक सुखी व्यक्ति का कोई एक वस्त्र लाकर दो तो ही मैं तुम्हें वह सरलत्तम उपाय बताऊँगा जिससे तुम सब प्रकार के दुःखों से छूट जाओगे और सदा के लिये सुखी हो जाओगे"।
सन्त की आज्ञा मानकर वह दुःखी व्यक्ति सन्त जी को प्रणाम करके वहाँ से चला गया। मन ही मन सोचने लगा कि यह काम तो मैं कुछ ही दिनों में पूरा कर सन्त के पास जाऊँगा और उनका उपदेश पाकर सदा के लिये सुखी हो जाऊँगा। अब वह सुखी व्यक्ति की खोज में निकला। दो दिन के बाद उस दुःखी व्यक्ति ने एक बहुत बड़ी और शानदार हवेली देखी, सोचने लगा कि जिसकी इतनी बड़ी हवेली है, वह अपने जीवन में कितना न सुखी होगा, यह सोचकर वह वह उस भव्य भवन के मालिक के पास पहुँचा और सेठ जी को अपनी पूरी समस्या सुनाई तथा विनम्रता से प्रार्थना करने लगा कि मैं भी आप की भान्ति सुखी होना चाहता हूँ अतः मुझे एक सन्त ने आप जैसे प्रसन्नचित महानुभाव का कोई भी एक वस्त्र लाने को कहा है। कृपा करके मेरी सहायता करें। यदि मुझे आपका कोई वस्त्र मिल जाए तो मैं भी सुखी हो सकता हूँ। सेठ जी ने कहा "भाई! जैसा आप समझते हैं मैं वैसा (सुखी) नहीं हूँ। मेरे पास धन-दौलत की कोई कमी नहीं है, परन्तु मैं दिल का मरीज़ हूँ, मेरी आँखें कमज़ोर हैं, इस शरीर में और भी कई रोग अपना डेरा डाले हुए हैं, डॉ॰ ने अनेक वस्तुओं से परहेज़ रखने को कहा है। इतना धन-दौलत होते हुए भी मैं अपनी मन चाही चीज़ खा नहीं सकता, पी नहीं सकता, कहीं आ-जा नहीं सकता, सारा दिन घर पर ही वक्त गुजा़रता हूँ, मेरे जैसा दुःखी इस संसार में और कोई नहीं हो सकता। भाई! आप मेरे जैसे दुःखी के वस्त्र लेकर क्या करोगे?"
लाचार होकर वह व्यक्ति दूसरे सुखी व्यक्ति की तलाश में निकला, परन्तु वहाँ भी उसने वही उत्तर पाया कि ‘मैं बहुत ही दुःखी हूँ’। इस प्रकार वह अनेक सुखी व्यक्तियों (जो वास्तव में बाहर से सुखी दिखते थे) के पास पहुँचा परन्तु सब की बातों से यही पाया कि सब अपने-अपने जीवन में किसी न किसी कारण बहुत दुःखी हैं, कोई सुखी नहीं है। एक सप्ताह बीतने पर वह दुःखी व्यक्ति पहले से भी अधिक दुःखी अवस्था में सन्त के पास लौट आया और पिछले सप्ताह की पूरी घटना सन्त को सुनाई। सन्त ने शान्तिपूर्वक उसकी पूरी बात सुनी।
सन्त ने उसे पूर्ण विश्वास दिलाया कि "कोई बात नहीं। मैंने तुम्हें इसी लिये एक सप्ताह का समय दिया था कि तुम जान सको कि इस संसार में सब लोग दुःखी हैं, कोई सुखी नहीं। जानते हो क्यों? क्योंकि वे लोग अपने रोज़ मर्रा के संसारिक काम काज में परमात्मा को भुला चुके हैं और जिसके परिणाम स्वरूप उसके कर्म-फल व्यवस्था को भी भूल जाते हैं कि परमात्मा शुभाशुभ कर्मों का फल सुख अथवा दुःख के रूप में प्रदान करता है। ईश्वर का स्मरण (ईश्वर के नाम का स्मरण) करने से मनुष्य कभी भी बुरा कर्म नहीं करता और उस ईश्वर को भूलते ही वह बुरे कर्मों मे लिप्त हो जाता है, जिसके फलस्वरूप वह दण्ड रूपी दुःख को प्राप्त करता है।
ईश्वर सर्वव्यापक होने सब के अंग-संग (सर्वान्तर्यामी अर्थात् सब के अन्तःकरण में सदा विद्यमान) रहता है। आप सब को अनुभव होगा ही कि जब हम कोई कर्म करते हैं तो कर्म करने से पूर्व हमारे हृदय में तीन प्रकार के भाव उत्पन्न हुआ करते हैं – जैसे "शंका, भय और लज्जा" अथवा "निःशंका, निर्भयता तथा उसाह"। इस प्रकार के भाव हमारे हृदय में ईश्वर उत्पन्न करता है अर्थात् मानो ईश्वर हमें चेतावनी प्रदान करता है कि वह जो कर्म हम अभी करने जा रहे हैं वह शुभ है या अशुभ। शुभाशुभ कर्म का पैमाना यही है "यदि हम बुरा कर्म करने जा रहे हैं तो कर्म करने से पूर्व हमारे मन में "शंका, भय और लज्जा" उत्पन्न होने लगती हैं और जब कर्म करते समय हमारे मन में "निःशंका, निर्भयता तथा उसाह" उत्पन्न होती है तो हमें समझ लेना चाहिये कि हम ग़लत नहीं कर रहे, कुछ अच्छा कर रहे हैं। मनुष्य को चाहिये कि वह कोई भी कर्म करने से पूर्व अपने मन में सर्वव्यापक परम पिता परमात्मा को तथा उसकी बनाई न्याय व्यवस्था को अवश्य स्मरण करे जिससे वह बुरे कर्म करने से बच जाएगा। याद रहे कि अच्छे कर्म का फल अच्छा ही होता है और बुरे कर्म का परिणाम (दण्ड) हमेशा बुरा ही होता है। सब को अपने किये का फल अवश्यमेव भुगतना पड़ता है। इस कर्मफल से कोई भी छूट नहीं सकता – चाहे वह कोई भी क्यों न हो।
सुखी रहने के कुछ उपाय: 1) हर हाल में प्रभु को स्मरण करते रहना। 2) ईश्वर की इच्छा मानकर वर्तमान स्थिति में प्रसन्नचित और संतुष्ट रहना। 3) जितना है उसी में संतुष्ट रहना। 4) जिसकी इच्छाएँ कम होती हैं। 5) जो व्यक्ति तीनों ऐषणाओं से दूर रहता है अर्थात् जिसमें वित्तैषण, पुत्रैषणा और लोकैषणा नहीं होती। 6) जो संतोष धन को प्राप्त करता है वह व्यक्ति सर्वदा सुखी रहता है।
नोट: संतोष अर्थात् हर परिस्थिति को ईश्वर की कृपा समझकर प्रसन्नचित्त रहना। संतोष और असंतोष में केवल एक शब्द ‘अ’ का अन्तर है। ‘अ’ का अर्थ है ‘अभाव’ अर्थात् किसी वस्तु का न होना और अभाव के करण हर व्यक्ति जीवन में स्वयं को दुःखी समझता है। वास्तव में यह अज्ञानता का प्रतीक है। एक बात सदा स्मरण रखनी चाहिये कि ‘ईश्वर की कृपा’ के बिना कोई कार्य सिद्ध नहीं होता और ईशकृपा सुपात्रों को ही प्राप्त होती है, कुपात्रों को कदाचित् नही। आत्म विश्वासी व्यक्ति ईशकृपा को प्राप्त करने में समर्थ होता है। दृढ संकल्प, आत्मविश्वास और परिश्रम द्वारा हर प्रकार के अभाव को दूर किया जा सकता है।
शंका: क्षमा याचना करने से क्या ईश्वर अपने भक्तों के पापों को क्षमा करता है?
समाधान: कदाचित् नहीं! यदि परमात्मा किसी भी व्यक्ति के पापों को क्षमा करता है तो वह न्यायकारी नहीं हो सकता क्योंकि वह पापियों को अधिक पाप कर्म करने की अनुमति, बढ़ावा तथा स्वतन्त्रता प्रदान कर रहा है जो परमात्मा के लिये असम्भव बात है। ईश्वर न्यायकारी है, दयालू है, इसी लिये पापियों को सुधारने के लिये दण्ड देता है। संसार में हम देखते हैं कि छोटा सा बच्चा भी यदि वह पहली बार कोई ग़लती करता है तो उसके माता-पिता समझाते हैं और वह बच्चा जान-बूझ कर िफर उसी ग़लती को बार-बार करता है तो माँ-बाप उसे सज़ा देते हैं ताकि उसका बच्चा भविष्य में वही ग़लती न करे और सुधर जाए। परमात्मा भी हमें हर क़दम पर हर बुरे काम करने से पहले चेतावनी देता रहता है। जानते हैं कैसे? हर बुरे कार्य करने से पूर्व या हर ग़लती करने से पहले हमारे मन में ‘भय’, ‘शंका’ और ‘लज्जा’ की अनुभूति होती है, वह परमात्मा की ओर से चेतावनी होती है, जो हम सुनी-अनसुनी कर देते हैं। उसकी बात न मानकर हम िफर ग़लत कार्य करते हैं और उसका फल मिलने पर पछतावा करते हैं और ईश्वर से माफ़ी माँगते रहते हैं। आप ही बताइये कि क्या वह न्यायकारी परमात्मा हमें माफ़ करेगा, हमें बक्षेगा? यह सम्भव नहीं! यदि ऐसा होने लगे तो पापी जन और अधिक पाप करने लगेंगे और अपने किये कुकर्मों की क्षमा याचना करेंगे। िफर ईश्वर की न्याय व्यवस्था का क्या होगा?
मनुष्य हर समय जाने-अनजाने में ग़लतियाँ या दुष्कर्म करता रहता है और कभी-कभी तो सोच-समझकर जानते हुए भी कि इस ग़लत कार्य का परिणाम ठीक नहीं होगा िफर भी वह कुकर्म कर बैठता है और कर्म करते ही वह ईश्वर से क्षमा याचना माँगता है कि ‘हे प्रभो मुझे माफ़ कर दो’। परमात्मा की चेतावनी के बावजूद भी वह दुष्कर्म करता है तो क्या ईश्वर उसे क्ष्मा करेगा? अतः हर पाप कर्म अथवा ग़लती के परिणाम में दण्ड के रूप में ‘दुःख’ (बन्धन) प्राप्त होता है और हर पुण्य तथा अच्छे कर्म का फल ‘सुख’ (स्व्तन्त्रता) के रूप में मिलता है। दुःख का दूसरा नाम बन्धन है और सुख का दूसरा नाम स्वतन्त्रता है। इसलिये सब मनुष्यों को सब काम सोच-समझकर कर धर्मानुसार करने चाहियें।
इस प्रश्न को समझने से पहले एक कथा सुनें – एक दुःखी व्य क्ति अपने दुःखों की निवृत्ति हेतु एक सन्त के पास गया और अपने दुःखों की सारी दास्ताँ सुनाने लगा। सन्त से उसकी बातें ध्यान से सुनी। वह व्यक्ति हाथ्र जोड़कर प्रार्थना करने लगा ‘हे भगवन्! आप मेरे दुःखों का निवारण कीजिये, ऐसी कृपा करें कि मैं अपने जीवन में सदा के लिये सुखी रहूँ। वह सन्त कुछ देर तक मौन रहा और उस को धीरज दिलाते हुए कहा – "आप धैर्य रखें! र्मैं आप के दुःखों का अवश्य निवारण करूँगा परन्तु एक सप्ताह के पश्चात्। पहले मेरा एक काम करो। मुझे एक सप्ताह के भीतर किसी भी एक सुखी व्यक्ति का कोई एक वस्त्र लाकर दो तो ही मैं तुम्हें वह सरलत्तम उपाय बताऊँगा जिससे तुम सब प्रकार के दुःखों से छूट जाओगे और सदा के लिये सुखी हो जाओगे"।
सन्त की आज्ञा मानकर वह दुःखी व्यक्ति सन्त जी को प्रणाम करके वहाँ से चला गया। मन ही मन सोचने लगा कि यह काम तो मैं कुछ ही दिनों में पूरा कर सन्त के पास जाऊँगा और उनका उपदेश पाकर सदा के लिये सुखी हो जाऊँगा। अब वह सुखी व्यक्ति की खोज में निकला। दो दिन के बाद उस दुःखी व्यक्ति ने एक बहुत बड़ी और शानदार हवेली देखी, सोचने लगा कि जिसकी इतनी बड़ी हवेली है, वह अपने जीवन में कितना न सुखी होगा, यह सोचकर वह वह उस भव्य भवन के मालिक के पास पहुँचा और सेठ जी को अपनी पूरी समस्या सुनाई तथा विनम्रता से प्रार्थना करने लगा कि मैं भी आप की भान्ति सुखी होना चाहता हूँ अतः मुझे एक सन्त ने आप जैसे प्रसन्नचित महानुभाव का कोई भी एक वस्त्र लाने को कहा है। कृपा करके मेरी सहायता करें। यदि मुझे आपका कोई वस्त्र मिल जाए तो मैं भी सुखी हो सकता हूँ। सेठ जी ने कहा "भाई! जैसा आप समझते हैं मैं वैसा (सुखी) नहीं हूँ। मेरे पास धन-दौलत की कोई कमी नहीं है, परन्तु मैं दिल का मरीज़ हूँ, मेरी आँखें कमज़ोर हैं, इस शरीर में और भी कई रोग अपना डेरा डाले हुए हैं, डॉ॰ ने अनेक वस्तुओं से परहेज़ रखने को कहा है। इतना धन-दौलत होते हुए भी मैं अपनी मन चाही चीज़ खा नहीं सकता, पी नहीं सकता, कहीं आ-जा नहीं सकता, सारा दिन घर पर ही वक्त गुजा़रता हूँ, मेरे जैसा दुःखी इस संसार में और कोई नहीं हो सकता। भाई! आप मेरे जैसे दुःखी के वस्त्र लेकर क्या करोगे?"
लाचार होकर वह व्यक्ति दूसरे सुखी व्यक्ति की तलाश में निकला, परन्तु वहाँ भी उसने वही उत्तर पाया कि ‘मैं बहुत ही दुःखी हूँ’। इस प्रकार वह अनेक सुखी व्यक्तियों (जो वास्तव में बाहर से सुखी दिखते थे) के पास पहुँचा परन्तु सब की बातों से यही पाया कि सब अपने-अपने जीवन में किसी न किसी कारण बहुत दुःखी हैं, कोई सुखी नहीं है। एक सप्ताह बीतने पर वह दुःखी व्यक्ति पहले से भी अधिक दुःखी अवस्था में सन्त के पास लौट आया और पिछले सप्ताह की पूरी घटना सन्त को सुनाई। सन्त ने शान्तिपूर्वक उसकी पूरी बात सुनी।
सन्त ने उसे पूर्ण विश्वास दिलाया कि "कोई बात नहीं। मैंने तुम्हें इसी लिये एक सप्ताह का समय दिया था कि तुम जान सको कि इस संसार में सब लोग दुःखी हैं, कोई सुखी नहीं। जानते हो क्यों? क्योंकि वे लोग अपने रोज़ मर्रा के संसारिक काम काज में परमात्मा को भुला चुके हैं और जिसके परिणाम स्वरूप उसके कर्म-फल व्यवस्था को भी भूल जाते हैं कि परमात्मा शुभाशुभ कर्मों का फल सुख अथवा दुःख के रूप में प्रदान करता है। ईश्वर का स्मरण (ईश्वर के नाम का स्मरण) करने से मनुष्य कभी भी बुरा कर्म नहीं करता और उस ईश्वर को भूलते ही वह बुरे कर्मों मे लिप्त हो जाता है, जिसके फलस्वरूप वह दण्ड रूपी दुःख को प्राप्त करता है।
ईश्वर सर्वव्यापक होने सब के अंग-संग (सर्वान्तर्यामी अर्थात् सब के अन्तःकरण में सदा विद्यमान) रहता है। आप सब को अनुभव होगा ही कि जब हम कोई कर्म करते हैं तो कर्म करने से पूर्व हमारे हृदय में तीन प्रकार के भाव उत्पन्न हुआ करते हैं – जैसे "शंका, भय और लज्जा" अथवा "निःशंका, निर्भयता तथा उसाह"। इस प्रकार के भाव हमारे हृदय में ईश्वर उत्पन्न करता है अर्थात् मानो ईश्वर हमें चेतावनी प्रदान करता है कि वह जो कर्म हम अभी करने जा रहे हैं वह शुभ है या अशुभ। शुभाशुभ कर्म का पैमाना यही है "यदि हम बुरा कर्म करने जा रहे हैं तो कर्म करने से पूर्व हमारे मन में "शंका, भय और लज्जा" उत्पन्न होने लगती हैं और जब कर्म करते समय हमारे मन में "निःशंका, निर्भयता तथा उसाह" उत्पन्न होती है तो हमें समझ लेना चाहिये कि हम ग़लत नहीं कर रहे, कुछ अच्छा कर रहे हैं। मनुष्य को चाहिये कि वह कोई भी कर्म करने से पूर्व अपने मन में सर्वव्यापक परम पिता परमात्मा को तथा उसकी बनाई न्याय व्यवस्था को अवश्य स्मरण करे जिससे वह बुरे कर्म करने से बच जाएगा। याद रहे कि अच्छे कर्म का फल अच्छा ही होता है और बुरे कर्म का परिणाम (दण्ड) हमेशा बुरा ही होता है। सब को अपने किये का फल अवश्यमेव भुगतना पड़ता है। इस कर्मफल से कोई भी छूट नहीं सकता – चाहे वह कोई भी क्यों न हो।
सुखी रहने के कुछ उपाय: 1) हर हाल में प्रभु को स्मरण करते रहना। 2) ईश्वर की इच्छा मानकर वर्तमान स्थिति में प्रसन्नचित और संतुष्ट रहना। 3) जितना है उसी में संतुष्ट रहना। 4) जिसकी इच्छाएँ कम होती हैं। 5) जो व्यक्ति तीनों ऐषणाओं से दूर रहता है अर्थात् जिसमें वित्तैषण, पुत्रैषणा और लोकैषणा नहीं होती। 6) जो संतोष धन को प्राप्त करता है वह व्यक्ति सर्वदा सुखी रहता है।
नोट: संतोष अर्थात् हर परिस्थिति को ईश्वर की कृपा समझकर प्रसन्नचित्त रहना। संतोष और असंतोष में केवल एक शब्द ‘अ’ का अन्तर है। ‘अ’ का अर्थ है ‘अभाव’ अर्थात् किसी वस्तु का न होना और अभाव के करण हर व्यक्ति जीवन में स्वयं को दुःखी समझता है। वास्तव में यह अज्ञानता का प्रतीक है। एक बात सदा स्मरण रखनी चाहिये कि ‘ईश्वर की कृपा’ के बिना कोई कार्य सिद्ध नहीं होता और ईशकृपा सुपात्रों को ही प्राप्त होती है, कुपात्रों को कदाचित् नही। आत्म विश्वासी व्यक्ति ईशकृपा को प्राप्त करने में समर्थ होता है। दृढ संकल्प, आत्मविश्वास और परिश्रम द्वारा हर प्रकार के अभाव को दूर किया जा सकता है।
शंका: क्षमा याचना करने से क्या ईश्वर अपने भक्तों के पापों को क्षमा करता है?
समाधान: कदाचित् नहीं! यदि परमात्मा किसी भी व्यक्ति के पापों को क्षमा करता है तो वह न्यायकारी नहीं हो सकता क्योंकि वह पापियों को अधिक पाप कर्म करने की अनुमति, बढ़ावा तथा स्वतन्त्रता प्रदान कर रहा है जो परमात्मा के लिये असम्भव बात है। ईश्वर न्यायकारी है, दयालू है, इसी लिये पापियों को सुधारने के लिये दण्ड देता है। संसार में हम देखते हैं कि छोटा सा बच्चा भी यदि वह पहली बार कोई ग़लती करता है तो उसके माता-पिता समझाते हैं और वह बच्चा जान-बूझ कर िफर उसी ग़लती को बार-बार करता है तो माँ-बाप उसे सज़ा देते हैं ताकि उसका बच्चा भविष्य में वही ग़लती न करे और सुधर जाए। परमात्मा भी हमें हर क़दम पर हर बुरे काम करने से पहले चेतावनी देता रहता है। जानते हैं कैसे? हर बुरे कार्य करने से पूर्व या हर ग़लती करने से पहले हमारे मन में ‘भय’, ‘शंका’ और ‘लज्जा’ की अनुभूति होती है, वह परमात्मा की ओर से चेतावनी होती है, जो हम सुनी-अनसुनी कर देते हैं। उसकी बात न मानकर हम िफर ग़लत कार्य करते हैं और उसका फल मिलने पर पछतावा करते हैं और ईश्वर से माफ़ी माँगते रहते हैं। आप ही बताइये कि क्या वह न्यायकारी परमात्मा हमें माफ़ करेगा, हमें बक्षेगा? यह सम्भव नहीं! यदि ऐसा होने लगे तो पापी जन और अधिक पाप करने लगेंगे और अपने किये कुकर्मों की क्षमा याचना करेंगे। िफर ईश्वर की न्याय व्यवस्था का क्या होगा?
मनुष्य हर समय जाने-अनजाने में ग़लतियाँ या दुष्कर्म करता रहता है और कभी-कभी तो सोच-समझकर जानते हुए भी कि इस ग़लत कार्य का परिणाम ठीक नहीं होगा िफर भी वह कुकर्म कर बैठता है और कर्म करते ही वह ईश्वर से क्षमा याचना माँगता है कि ‘हे प्रभो मुझे माफ़ कर दो’। परमात्मा की चेतावनी के बावजूद भी वह दुष्कर्म करता है तो क्या ईश्वर उसे क्ष्मा करेगा? अतः हर पाप कर्म अथवा ग़लती के परिणाम में दण्ड के रूप में ‘दुःख’ (बन्धन) प्राप्त होता है और हर पुण्य तथा अच्छे कर्म का फल ‘सुख’ (स्व्तन्त्रता) के रूप में मिलता है। दुःख का दूसरा नाम बन्धन है और सुख का दूसरा नाम स्वतन्त्रता है। इसलिये सब मनुष्यों को सब काम सोच-समझकर कर धर्मानुसार करने चाहियें।
क्या ईश्वर है या केवल हमारी सोच है?
आपकी इस शंका में ही उसका समाधान छुपा है जो बता रहा है कि ‘ईश्वर’ नाम की कोई वस्तु है अन्यथा आप इस प्रकार की शंका नहीं करते! जो शब्द बना है उसका अर्थ अवश्य होता है अतः ईश्वर का अस्तित्व है इसलिये तो ‘ईश्वर’ शब्द बना है।
ज़रा विचारिये – इतने विशाल ब्रह्माण्ड को किस ने बनाया है? इस पृथ्वी को किसने बनाया है? पृथ्वी का परिमाण – उसकी गोलाई, वज़न, वायु का मिश्रण, सूर्य से दूरी इत्यादि ठीक मात्रा में किस ने बनाई है? यदि हमारी पृथ्वी वर्तमान स्थिति में न होकर सूर्य से कुछ और पास या दूर होती तो धरती पर जन-जीवन का अस्तित्व असम्भव होता! हमारी पृथ्वी अपनी धुरी में घूमते हुए, सूर्य का चक्कर, एक घंटे में लगभग 67000 मील की रफ़्तार से लगाती है तथा ग्रह-उपग्रह, चन्द्रमा, सूर्य, तारे, आकाश गंगाएँ इत्यादि को गति कौन दे रहा है? यह नियम किस ने बनाये हैं?
जल को ही लीजिये – इसका कोई रंग, स्वाद या गन्ध नहीं है फिर इसके बिना कोई जीव जीवित नहीं रह सकता। ‘जल है तो जीवन है’। वन-वनस्पति जगत् की रचना कौन करता है? माता के गर्भ में बच्चे का निर्माण तथा परवरिश कौन करता है? पृथ्वी, जल, वायु तथा अन्तरिक्ष में स्थित असंख्य लोक-लोकान्तरों में बसने वाले असंख्य प्राणियों को कौन उत्पन्न करता है और उनकी देख-भाल करता है? प्रकृति के नियमों का रचयिता कौन है? ऐसे अनेक प्रश्न हैं जिनका उत्तर हम मनुष्य होकर भी नहीं दे सकते। हम में से काई ऐसा नहीं है जो कह सके कि यह सब हमने बनाया है। फिर वही प्रश्न आख़िर यह सब किसने बनाया है?
इतना अवश्य कह सकते हैं कि कोई तो है (निराकार चेतन तत्त्व) जो सब का निर्माण करता है। जिसको हम देख नहीं सकते, समझ नहीं सकते परन्तु इतना तो अवश्य कह सकते हैं कि वह सब हम सब से अधिक ज्ञानी, शक्तिशाली और महान है। वह सब रचना चुप-चाप, छुपकर, बिना किसी को बताए करता है और किसी को कुछ भी मालूम नहीं पड़ता। हम उस चेतन, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ और सर्वव्यापी तत्त्व/वस्तु/चीज़ को "ईश्वर" के नाम से पुकारते हैं। कोई उसे ‘ईश्वर’ कहता है तो कोई उस को ‘परमात्मा’ कहता है। संसार में विभिन्न विचारों वाले, अलग-अलग मत-मतान्तर वाले, भिन्न-भिन्न मान्यता और मज़हब वाले लोग उसे अपनी-अपनी भाषा में अलग-अलग अनेक नामों से पुकारते हैं। वेद में उस परम तत्त्व को "ओ३म्" के नाम से सम्बोधित किया है क्योंकि "ओ३म्" नाम में उस परम पिता परमात्मा (ईश्वर) के सभी कार्मिक, गौणिक तथा अलंकारिक इत्यादि नामों का समावेश हो जाता है।
‘ईश्वर’ एक अद्वितीय, नित्य, चेतन तत्त्व (वस्तु) को कहते हैं जो इस जगत् का निमित्त कारण है और सब का आधार है। वह सकल जगत् का उत्पतिकर्त्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त, शुद्धस्वरूप, सब सुखों के दाता है। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्ितमान, न्यायकारी, दयालू, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य पवित्र और सृष्टिकर्त्ता हैं। वह निर्लेप, सर्वज्ञ तथा शुद्ध-बुद्ध-मुक्त स्वभाववाला है। हम जितनी भी कल्पना कर सकते हैं, परमात्मा उससे कहीं अधिक शक्तिशाली है। असंख्य सृष्टियाँ तथा आत्माएँ परमात्मा के भीतर रहती हैं और परमात्मा स्वयं इन सब में विराजमान होता है। ब्रह्माण्ड में ऐसा कोई स्थान रिक्त नहीं है जहाँ ईश्वर की सत्ता विद्यमान न हो अर्थात् वह सृष्टि के प्रत्येक वस्तु में, प्रत्येक कण-कण में समाया हुआ है और साक्षी बनकर सब के भीतर रहता है।
‘ईशा वास्य इदं सर्वम्’ (यजुर्वेद: 10/1) अर्थात् ईश्वर इस ब्रह्माण्ड के प्रत्येक वस्तु के कण-कण में विद्यमान है – वह सब वस्तुओं के भीतर-बाहर ओत-प्रोत रहता है।
‘जन्माद्यस्य यतः’ (वैशेषिक दर्शन: 1/1/2) अर्थात् जिससे इस संसार की उत्पति, स्थिति और प्रलय होती है उस चेतन का नाम ईश्वर है।
क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः’ (योग दर्शन: 1/24) अर्थात् जो अविद्या, क्लेश, कुशल-अकुशल, इष्ट-अनिष्ट और मिश्र फलदायक कर्मों की वासना से रहित है, वह सब जीवों से विशेष ‘ईश्वर’ कहाता है।
ज़रा विचारिये – इतने विशाल ब्रह्माण्ड को किस ने बनाया है? इस पृथ्वी को किसने बनाया है? पृथ्वी का परिमाण – उसकी गोलाई, वज़न, वायु का मिश्रण, सूर्य से दूरी इत्यादि ठीक मात्रा में किस ने बनाई है? यदि हमारी पृथ्वी वर्तमान स्थिति में न होकर सूर्य से कुछ और पास या दूर होती तो धरती पर जन-जीवन का अस्तित्व असम्भव होता! हमारी पृथ्वी अपनी धुरी में घूमते हुए, सूर्य का चक्कर, एक घंटे में लगभग 67000 मील की रफ़्तार से लगाती है तथा ग्रह-उपग्रह, चन्द्रमा, सूर्य, तारे, आकाश गंगाएँ इत्यादि को गति कौन दे रहा है? यह नियम किस ने बनाये हैं?
जल को ही लीजिये – इसका कोई रंग, स्वाद या गन्ध नहीं है फिर इसके बिना कोई जीव जीवित नहीं रह सकता। ‘जल है तो जीवन है’। वन-वनस्पति जगत् की रचना कौन करता है? माता के गर्भ में बच्चे का निर्माण तथा परवरिश कौन करता है? पृथ्वी, जल, वायु तथा अन्तरिक्ष में स्थित असंख्य लोक-लोकान्तरों में बसने वाले असंख्य प्राणियों को कौन उत्पन्न करता है और उनकी देख-भाल करता है? प्रकृति के नियमों का रचयिता कौन है? ऐसे अनेक प्रश्न हैं जिनका उत्तर हम मनुष्य होकर भी नहीं दे सकते। हम में से काई ऐसा नहीं है जो कह सके कि यह सब हमने बनाया है। फिर वही प्रश्न आख़िर यह सब किसने बनाया है?
इतना अवश्य कह सकते हैं कि कोई तो है (निराकार चेतन तत्त्व) जो सब का निर्माण करता है। जिसको हम देख नहीं सकते, समझ नहीं सकते परन्तु इतना तो अवश्य कह सकते हैं कि वह सब हम सब से अधिक ज्ञानी, शक्तिशाली और महान है। वह सब रचना चुप-चाप, छुपकर, बिना किसी को बताए करता है और किसी को कुछ भी मालूम नहीं पड़ता। हम उस चेतन, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ और सर्वव्यापी तत्त्व/वस्तु/चीज़ को "ईश्वर" के नाम से पुकारते हैं। कोई उसे ‘ईश्वर’ कहता है तो कोई उस को ‘परमात्मा’ कहता है। संसार में विभिन्न विचारों वाले, अलग-अलग मत-मतान्तर वाले, भिन्न-भिन्न मान्यता और मज़हब वाले लोग उसे अपनी-अपनी भाषा में अलग-अलग अनेक नामों से पुकारते हैं। वेद में उस परम तत्त्व को "ओ३म्" के नाम से सम्बोधित किया है क्योंकि "ओ३म्" नाम में उस परम पिता परमात्मा (ईश्वर) के सभी कार्मिक, गौणिक तथा अलंकारिक इत्यादि नामों का समावेश हो जाता है।
‘ईश्वर’ एक अद्वितीय, नित्य, चेतन तत्त्व (वस्तु) को कहते हैं जो इस जगत् का निमित्त कारण है और सब का आधार है। वह सकल जगत् का उत्पतिकर्त्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त, शुद्धस्वरूप, सब सुखों के दाता है। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्ितमान, न्यायकारी, दयालू, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य पवित्र और सृष्टिकर्त्ता हैं। वह निर्लेप, सर्वज्ञ तथा शुद्ध-बुद्ध-मुक्त स्वभाववाला है। हम जितनी भी कल्पना कर सकते हैं, परमात्मा उससे कहीं अधिक शक्तिशाली है। असंख्य सृष्टियाँ तथा आत्माएँ परमात्मा के भीतर रहती हैं और परमात्मा स्वयं इन सब में विराजमान होता है। ब्रह्माण्ड में ऐसा कोई स्थान रिक्त नहीं है जहाँ ईश्वर की सत्ता विद्यमान न हो अर्थात् वह सृष्टि के प्रत्येक वस्तु में, प्रत्येक कण-कण में समाया हुआ है और साक्षी बनकर सब के भीतर रहता है।
‘ईशा वास्य इदं सर्वम्’ (यजुर्वेद: 10/1) अर्थात् ईश्वर इस ब्रह्माण्ड के प्रत्येक वस्तु के कण-कण में विद्यमान है – वह सब वस्तुओं के भीतर-बाहर ओत-प्रोत रहता है।
‘जन्माद्यस्य यतः’ (वैशेषिक दर्शन: 1/1/2) अर्थात् जिससे इस संसार की उत्पति, स्थिति और प्रलय होती है उस चेतन का नाम ईश्वर है।
क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः’ (योग दर्शन: 1/24) अर्थात् जो अविद्या, क्लेश, कुशल-अकुशल, इष्ट-अनिष्ट और मिश्र फलदायक कर्मों की वासना से रहित है, वह सब जीवों से विशेष ‘ईश्वर’ कहाता है।
वैदिक समाधान
वैदिक समाधान
जितने लोग उतनी बातें! लोग तरह-तरह की बातें करते हैं तथा जो कुछ सुनते-पढ़ते या विचारते हैं उन्ही बातों को अपने ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं और उसी को वे सही मानते हैं। कुछ लोग किसी की भी बात को मानने की बात तो अलग है समझना भी नहीं चाहते। वे समझते हैं कि जो वे जानते हैं वही सही है और अपने विचारों को बदलना उचित नहीं समझते क्योंकि वे समझते हैं कि कहीं उनकी सोच ग़लत न हो जाए। यह सब उनके अपने संस्कारों, आधुनिक शिक्षा प्रणाली तथा पारिवारिक प्रभाव का ही परिणाम होता है।
आधुनिक पीढ़ी के पढ़े-लिखे लोग परमात्मा को मानते तो अवश्य हैं परन्तु उसके बारे में अधिक जानना नहीं चाहते या ऐसे वाद-विवादों में पड़ना नहीं चाहते या गूढ़ रहस्यों को जानना नहीं चाहते और यहाँ तक कि वे परमात्मा के वास्तविक स्वरूप को भी जानना नहीं चाहते क्योंकि वे अपने ज्ञान में अधिक वृद्धि करना ही नही चाहते। जितना पुस्तकों में अथवा समाचार पत्रों पढ़ते हैं, उसी को सत्य मानते हैं। सब जानते हैं, यह कोई नई बात नहीं हैं यहाँ तक कि वे अपने बड़े-बुज़ुर्गों की बातों को भी अधिक तवज्जो नहीं देते, उनका कहना है कि आखि़र इतना सब जानने की आवश्यक्ता ही क्या है। क्या इस में आधुनिक शिक्षा प्रणाली का प्रभाव है या उनके अपने संस्कारों का या कुछ और ही बात है जिसके कारण आज-कल के लोगों को भगवान में से भरोसा कम होते जा रहा है?
आधुनिक शिक्षा प्रणाली केवल भौतिकवाद की ओर जाती है। आध्यात्मिक ज्ञान से वञ्चित होने के कारण तथा पारिवारिक सुख-सुविधाओं के दबाव में आकर आधुनिक पीढ़ी के लोग सारी उम्र केवल धन और साधनों को संग्रह करने में ही जुटे रहते हैं। ऐसे लोग भौतिकवाद में ही अपने उज्वल भविष्य की कामना करते हैं। यह आधुनिक शिक्षा का प्रभाव हैं। विज्ञान को समझते और समझाते हुए लोग भी प्रायः दूसरों के बहकावे में ओर अन्धविश्वासों के घेरे में घिर जाते हैं। कभी मन्दिरों में जाते नहीं, सत्संग में जाते नहीं, सन्त-महात्माओं के सम्पर्क में आते नहीं, घर में वैदिक विद्वानों को बुलाते नहीं, कभी स्वाध्याय करते नहीं, तो इन से क्या उम्मीद की जा सकती है? और भी अनेक कारण हो सकते हैं जिनके कारण ये पढ़े-लिखे दिखने वाले लोग अनेक प्रकारों के अन्धविश्वासों तथा अन्धश्रद्धाओं में बिना सोचे-समझे, बिना तर्क किये, बिना सत्य जाने, ऐसी बेतुकी बातों पर शीघ्रता से विश्वास करने लगते हैं।
मैंने अपनी पुस्तक "वैदिक समाधान" में प्रत्येक प्रश्न का बहुत ही संक्षेप और सरल भाषा मे उत्तर देने का प्रयास किया है वरना प्रत्येक प्रश्न का विषय इतना गूढ़ है कि उस के उत्तर में अलग से एक पुस्तक लिखी जा सकती है। उसी बात को ध्यान में रखकर हमने, पाठकवृन्द की जानकारी हेतु, इस पुस्तक के अन्तिम पृष्ठों में "वैदिक धर्म" के कुछ प्रचलित सिद्धान्त और मान्यताओं का वर्णन किया है। आशा है पाठकवृन्द उसको पढ़कर समझकर अपने जीवन में अवश्य लाभ उठाएँगे और अपने विचारों से दूसरों को भी लाभान्वित करेंगे।
मनुष्य कमाता है अपने लिये, परिवार के लिये, अपनी रोज़ मर्रा की आवश्यक्ताओं की पूर्ति के लिये तथा अपने उज्वल भविष्य के लिये – यह उसकी ‘प्रकृति’ (प्रवृति या स्वभाव) है। जब वह दूसरों की कमाई पर नज़र रखता है तथा छल-कपट-धोखे से दूसरे के माल को हथिया कर अपनी आवश्यक्ताओं के लिये प्रयोग करता है तो वह उसकी ‘विकृति’ कहाती है और जब वह अपनी नेक कमाई का कुछ हिस्सा परोपकार के कार्यों में लगाता है तो वह उसकी ‘संस्कृति’ कहाती है। जो अपने सुख के लिये दूसरों की हानि करता है, ऐसा व्यक्ति मनुष्य के रूप में राक्षस प्रवृति का कहाता है। मनुष्य वही है जो अपनी नेक कमाई का कुछ निर्धारित भाग औरों की सेवा में लगाता है, ज्ी हाँ! ऐसा व्यक्ति ही सचमुच में ‘मनुष्य’ की कोटि में आता है। वैसे अपना पेट तो सभी भरते हैं परन्तु जो दूसरों के दुःख-दर्द को अपना दुःख-दर्द समझता है वास्तव में वही ‘मनुष्य’ कहाने योग्य है क्योंकि यही हमारी संस्कृति है। यही वैदिक संस्कृति है।
जितने लोग उतनी बातें! लोग तरह-तरह की बातें करते हैं तथा जो कुछ सुनते-पढ़ते या विचारते हैं उन्ही बातों को अपने ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं और उसी को वे सही मानते हैं। कुछ लोग किसी की भी बात को मानने की बात तो अलग है समझना भी नहीं चाहते। वे समझते हैं कि जो वे जानते हैं वही सही है और अपने विचारों को बदलना उचित नहीं समझते क्योंकि वे समझते हैं कि कहीं उनकी सोच ग़लत न हो जाए। यह सब उनके अपने संस्कारों, आधुनिक शिक्षा प्रणाली तथा पारिवारिक प्रभाव का ही परिणाम होता है।
आधुनिक पीढ़ी के पढ़े-लिखे लोग परमात्मा को मानते तो अवश्य हैं परन्तु उसके बारे में अधिक जानना नहीं चाहते या ऐसे वाद-विवादों में पड़ना नहीं चाहते या गूढ़ रहस्यों को जानना नहीं चाहते और यहाँ तक कि वे परमात्मा के वास्तविक स्वरूप को भी जानना नहीं चाहते क्योंकि वे अपने ज्ञान में अधिक वृद्धि करना ही नही चाहते। जितना पुस्तकों में अथवा समाचार पत्रों पढ़ते हैं, उसी को सत्य मानते हैं। सब जानते हैं, यह कोई नई बात नहीं हैं यहाँ तक कि वे अपने बड़े-बुज़ुर्गों की बातों को भी अधिक तवज्जो नहीं देते, उनका कहना है कि आखि़र इतना सब जानने की आवश्यक्ता ही क्या है। क्या इस में आधुनिक शिक्षा प्रणाली का प्रभाव है या उनके अपने संस्कारों का या कुछ और ही बात है जिसके कारण आज-कल के लोगों को भगवान में से भरोसा कम होते जा रहा है?
आधुनिक शिक्षा प्रणाली केवल भौतिकवाद की ओर जाती है। आध्यात्मिक ज्ञान से वञ्चित होने के कारण तथा पारिवारिक सुख-सुविधाओं के दबाव में आकर आधुनिक पीढ़ी के लोग सारी उम्र केवल धन और साधनों को संग्रह करने में ही जुटे रहते हैं। ऐसे लोग भौतिकवाद में ही अपने उज्वल भविष्य की कामना करते हैं। यह आधुनिक शिक्षा का प्रभाव हैं। विज्ञान को समझते और समझाते हुए लोग भी प्रायः दूसरों के बहकावे में ओर अन्धविश्वासों के घेरे में घिर जाते हैं। कभी मन्दिरों में जाते नहीं, सत्संग में जाते नहीं, सन्त-महात्माओं के सम्पर्क में आते नहीं, घर में वैदिक विद्वानों को बुलाते नहीं, कभी स्वाध्याय करते नहीं, तो इन से क्या उम्मीद की जा सकती है? और भी अनेक कारण हो सकते हैं जिनके कारण ये पढ़े-लिखे दिखने वाले लोग अनेक प्रकारों के अन्धविश्वासों तथा अन्धश्रद्धाओं में बिना सोचे-समझे, बिना तर्क किये, बिना सत्य जाने, ऐसी बेतुकी बातों पर शीघ्रता से विश्वास करने लगते हैं।
मैंने अपनी पुस्तक "वैदिक समाधान" में प्रत्येक प्रश्न का बहुत ही संक्षेप और सरल भाषा मे उत्तर देने का प्रयास किया है वरना प्रत्येक प्रश्न का विषय इतना गूढ़ है कि उस के उत्तर में अलग से एक पुस्तक लिखी जा सकती है। उसी बात को ध्यान में रखकर हमने, पाठकवृन्द की जानकारी हेतु, इस पुस्तक के अन्तिम पृष्ठों में "वैदिक धर्म" के कुछ प्रचलित सिद्धान्त और मान्यताओं का वर्णन किया है। आशा है पाठकवृन्द उसको पढ़कर समझकर अपने जीवन में अवश्य लाभ उठाएँगे और अपने विचारों से दूसरों को भी लाभान्वित करेंगे।
मनुष्य कमाता है अपने लिये, परिवार के लिये, अपनी रोज़ मर्रा की आवश्यक्ताओं की पूर्ति के लिये तथा अपने उज्वल भविष्य के लिये – यह उसकी ‘प्रकृति’ (प्रवृति या स्वभाव) है। जब वह दूसरों की कमाई पर नज़र रखता है तथा छल-कपट-धोखे से दूसरे के माल को हथिया कर अपनी आवश्यक्ताओं के लिये प्रयोग करता है तो वह उसकी ‘विकृति’ कहाती है और जब वह अपनी नेक कमाई का कुछ हिस्सा परोपकार के कार्यों में लगाता है तो वह उसकी ‘संस्कृति’ कहाती है। जो अपने सुख के लिये दूसरों की हानि करता है, ऐसा व्यक्ति मनुष्य के रूप में राक्षस प्रवृति का कहाता है। मनुष्य वही है जो अपनी नेक कमाई का कुछ निर्धारित भाग औरों की सेवा में लगाता है, ज्ी हाँ! ऐसा व्यक्ति ही सचमुच में ‘मनुष्य’ की कोटि में आता है। वैसे अपना पेट तो सभी भरते हैं परन्तु जो दूसरों के दुःख-दर्द को अपना दुःख-दर्द समझता है वास्तव में वही ‘मनुष्य’ कहाने योग्य है क्योंकि यही हमारी संस्कृति है। यही वैदिक संस्कृति है।
Monday, September 15, 2008
The Eternal Vedas ...Madan Raheja
The Vedas - God's revelations
Man has limited knowledge by nature hence no one is perfect except God. God has revealed His knowledge in the beginning of the universe for the benefit of all human beings to achieve the ultimate goal - the salvation. Many questions arise in man's mind to get correct answers. "The Vedas' answers all quests because the Vedas (Four Vedas - Rig, Yajur, Sam and Atharve Vedas) are God's revelations hence all true knowledge. Contact for the Vedic Answers: madanraheja@rahejas.org Thursday, March 04, 2004
Man has limited knowledge by nature hence no one is perfect except God. God has revealed His knowledge in the beginning of the universe for the benefit of all human beings to achieve the ultimate goal - the salvation. Many questions arise in man's mind to get correct answers. "The Vedas' answers all quests because the Vedas (Four Vedas - Rig, Yajur, Sam and Atharve Vedas) are God's revelations hence all true knowledge. Contact for the Vedic Answers: madanraheja@rahejas.org Thursday, March 04, 2004
Ignorance
Ignorance results in Blind faith and in later stage it takes the shape of "superstition" and man follows wrong concepts due to fear of death and bahave like a mad man. All humans have limited knowledge by nature hence one has to acquire true knowledge from dictates of God -The Holy Vedas.
Email: madanraheja@rahejas.org
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Idol Worship
Temples are beautiful worth-seeing places. Indian arts & culture of different times have been depicted there. Dictates of God - the Vedic teachings have been represented there symbolically or allegorically. It is for the visitor to see and interpret them in the right context and logically. So, the visitors not superstitious or having blind faith. Temples are an excellent exhibition and demonstration of art & culture so people visit these Mandirs.
Email: madanraheja@rahejas.org
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आर्य समाज और हमारा समाज .... मदन रहेजा
आर्य समाज और हमारा समाज
आर्य समाज और हमारा समाज आर्य समाज और जिस समाज में हम सब रहते हैं उसकी छोटी सी झलक दर्शाने का प्रयास करते हैं। हम किस वातावरण में जी रहे हैं यह साब को अच्छी तरह से मालूम है और हम किस प्रकार के समाज में रहना चाहते हैं उसके बारे में सब विवेकशील मनुष्यों को सोचना चाहिये। ईश्वर की कृति में कभी कोई त्रुटि नहीं होती क्योंकि ईश्वर सर्वज्ञ और सर्वव्यापक है और दूसरी ओर मनुष्य स्वयं को बहुत ज्ञानवान समझता है परन्तु हर क़दम पर अनेक भूलें करता है और फिर भी उसे अपनी भूलों का अहसास नहीं होता और कालान्तर में जब उसे अपनी ग़लतियों का फल प्राप्त होता है तो उसका मस्तिष्क उसे (उसे स्वाभाविक ज्ञाननता के कारण) मानने से इन्कार करता है कि उसने कभी कोई भूल की होगी। यहाँ हम स्पष्ट करना चाहते हैं कि वैदिक सिद्धान्तानुसार तथा वैज्ञानिक नियमानुसार बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता और किये कर्म का फल कर्त्ता के ही कालान्तर में अवश्यमेव भुगतना पड़ता है। चुभते सुलगते कुछ प्रश्न: आज सब की ज़ुबान से कुछ बातें सुनने में आती है कि - आर्य समाज के पास वेदों तथा अन्य याास्त्रों का अथाह ज्ञान हाने के पश्चात् भी आखि़र क्या कारण है कि लोग उसकी ओर आकर्षित नहीं होते या आर्श् समाज लोगों को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाता? वर्तमान में सब गुरुओं के पास अधिक मात्रा में लोग ज्ञान प्राप्त करने जाते हैं तथा नाम-दान के लिये बहुत भीड़ जमा होती है? मन की शान्ति का ठेका क्या केवल आर्य समाज के पास ही है? तो क्या अन्स संस्थाओं में जाने वाले लोग अशान्त होते हैं? आख़िर क्या कारण है कि अन्य सम्प्रदाय के वशिाल और समृद्ध मन्दिरों में अधिक से अधिक लोग जाते हैं और हमारी समाजों में लोग आने से भी कतराते हैं तथा हमेशा धन की ही माँग रहती है? प्रश्न अनेक हैं परन्तु उत्तर कोई नहीं देता? प्रिय सज्जनों!जिज्ञासा करना अच्छी बात है – इससे ज्ञान की वृद्धि होती है और सुधरने-सुधारने का सुअवसर प्राप्त होता है परन्तु अपने मस्तिष्क से इस ग़लत फ़हमी (भ्रम) को निकाल दीजिये कि आर्य समाज उन्नति के मार्ग पर नहीं चल रहा। यह सत्य है कि आर्य समाज के पास वेदों तथा आर्ष ग्रन्थों का अथाह ज्ञान उपलब्ध है जिसका लाभ जिज्ञासू लोग ही उठाते हैं क्योंकि उनके पास सोचने समझने की विशेष योग्यता होती है जो सामान्य लोगों में कम होती है। साधारण अज्ञानी लोगों के भ्रम, भ्रन्तियाँ एवं अन्धविश्वास: इन पर अधिकतर लोग बिना सोचे-समझे भरोसा करते हैं कि: 1. बाबाओं की आशीर्वाद से बांझ स्त्री को भी संतान की प्राप्ति होती है। 2. महात्माओं द्वारा प्राप्त फल खाने से संतान्नोत्पति होती है। 3. साधु बाबा के छू मन्तर करने से या झाड़-फूँक से भूत-प्रत भाग जाते हैं। 4. वर और वधु की जन्मपत्रियाँ मिलाने से विवाह सफल होते हैं। 5. ग्रहों की स्थिति के कारण मनुष्य सुखी या दुःखी होते हैं और ज्यातिषियों के पास उसका तोड़ है। 6. पूजा-पाठ करने से क्राधित ग्रह-उपग्रह शान्त हो जाते हैं। 7. क़ीमती पत्थर धारण करने से घर में सुख-समृद्धि-शान्ति होती है। 8. मुहूर्त देखकर ही घर के बाहर निकलना चाहिये क्योंकि समय शुभ और अशुभ होता है। 9. गुरुजनों की जूठन खाने से जीवन सफल होता है। 10. गुरु की हरेक बात को बिना शंका/प्रश्न/संशय किये मानना चाहिये। 11. मृतकों का श्राद्ध अर्थात् ब्राह्मणों को खिलाना पिलाने से दिवन्गतात्माओं को मुक्ति मिलती है। 12. माता का जागरण करने से मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। 13. सत्यनारायण का प्रसाद ग्रहण न करने से सर्वनाश निश्चित है। 14. जादू-टोने से किसी को भी अपने वश में किया जा सकता है या व्यक्ति-विशेष की मृत्यु कराई जा सकती है। 15. बाबाओं की मूर्ति से भभूति अथवा सिन्दूर निकलता है, जूते स्वयं से चलते हैं, नीम के पत्ते मीठे लगते हैं, समुद्र का पानी मीठा हो जाता है इत्यादि। 16. बाबाओं के हाथ फेरने से सोने के मंगलसूत्रादि आभूषण, सोने के सिक्के, विदेशी घडि़याँ, भभूति और फल इत्यादि वस्तुएँ निकलती हैं। क्या यह कमाल नहीं है? वास्तव में ऐसा कुछ नहीं होता, कोई जादू मन्तर नहीं होता और न ही कभी हो सकता है क्योंकि प्रकृति नियमों का उलंघन कोई नहीं कर सकता – चाहे वह बाबा हो या बापू या कोई पीर-फ़कीर या महात्मा। उपरोक्त अन्धविश्वासों को फैलाने में किन-किन लोगों का हाथ है – क्या आप जानते हैं? इनके पीछे स्वार्थी, ढौंगी, पाखण्डी, फ़रेबी, बहुरूपिये, निकत्ते, अघोड़ी, नकली और तथाकथित साधु, सन्त, बाबा, बापू, महात्माओं इत्याादि तथा मानव जाति के शत्रु होते हैं जिनको और कोई काम-काज या धंधा नहीं होता और बिना परिश्रम किये बैठे-बिठाए हराम की मिलती है जिससे उनकी तीनों ऐषणाओं की पूर्ति होती है। इन लोगों की काली करतूतों से सच्चे साधु-सन्तों और बाबाओं का नाम ख़राब होता है। हमारे समाज के श्रेष्ठ (आर्य), सुशिक्षित और सभी सभ्य समझदार लोगों का कर्तव्य बनता है कि वे सार्वजनिक हितार्थ तथा साधारण ज्ञान रखने वाले लोगों का सही मार्गदर्शन करें तथा उन्हें सावधानी बरतने के क़दम उठाएँ। अपने बच्चों को समझाएँ। यह सब तथी सम्भव है जब कि हम स्वयं सुधरें। हम सुधरेंगे तो समाज में स्वयं सुधार आ जाएग क्योंकि समाज हमी से बनता है और हमी से बिगड़ता है और इसी से देश बनते हैं। देश पिछउ़ जाएगा जो सर्वनाश होता है और इसे कोई बचा नहीं सकता। ईश्वर भी बचा नहीं सकता। समाधान एवं उत्तर: आर्य समाज एक क्रान्तिकारी एवं श्रेष्ठतम मानव निर्माण संस्था है जिसमें ईश्वरीय ज्ञान ‘वेद’ तथा आर्ष ग्रन्थों के माध्यम से मनुष्य को मनुष्य बनाया जाता है क्योंकि जब तक मनुष्य मनुष्य नहीं बनता वह इस संसार में अच्छी प्रकार से सुखों को भोग नहीं कर समका और अपने परम लक्ष्य ‘मोक्ष’ को प्राप्त नहीं कर सकता। आर्य समाज में सामने मूर्तियाँ रखकर गाने-बजाने या नृत्य नहीं होते जैसे कि प्रायः अन्य संस्थाओं में होते हैं। आर्य समाजों में रास लीलाएँ या नाटक नहीं होते अपितु योगाभ्यास होता है। यहाँ किसी प्रकार का टाईम पास नहीं होता या टाईम पास के लिये लोग नहीं आते अपितु साधना के लिये आते हैं। जिन लोगों को यह शिकायत है कि हमारे यहाँ लोगों की उपस्थिति कम होती है, भीड़ कम होती है तो उन को यह समझना होगा कि आर्य समाजों में सत्य पर आधारित उपदेश होते हैं, विद्वानों एवं संन्यासियों के प्रवचन होते हैं। साधना करने वालों के लिये सत्य को ग्रहण करना आसान होता है क्योंकि सत्य स्वाभाविक होता है परन्तु साधारण लोगों के लिये सत्य को ग्रहण करना उतना ही कठिन होता है। जिन संस्थाओं में या मन्दिरों इत्यादि में अधिक भीड़ देखी जाती है वहाँ जाकर देखें तो सही कि वहाँ कितना सत्य का पाठ पढ़ाया जाता है और क्या-क्या होता है। किसी शायर ने ठीक ही लिखा है "सच्चाई छुप नहीं सकती बनावट के उसूलों से और ख़ुश्बू आ नहीं सकती कभी काग़ज़ के फूलों से"। अतः दूर के ढोल सुहाने लगते हैं परन्तु सत्य क्या है परा में जाने से ही पता चलता है। सत्य और असत्य को बोध ‘आर्य समाज’ बेहत्तर सिखाता है। वक्त का तक़ाज़ा: हमें स्वयं को देखना है दूसरों को नहीं क्योंकि विवेकशील व्यक्ति दूसरों की अच्छाइयों को ग्रहण करने तथा अपनी बुराइयों को त्यागने का प्रयास करता है परन्तु यदि दूसरों में कमियाँ हैं जो समाज के लिये हानिकारक होती हैं तो उनको ठीक करने का प्रयास भी करना चाहिये क्योंकि कि "व्यक्ति को अपनी ही उन्नति में संतुष्ट न रहना चाहिये किन्तु दूसरों की उन्नति में ही अपनी उन्नति समझनी चाहिये"। पाठकवृन्द को जागृत करना चाहते हैं कि हमारे यहाँ (आर्य समाजों में) सत्य के सुगन्धित फुलों को बाँटा जाता है और वहाँ (प्रायः अन्य संस्थाओं में, मन्दिरों में और तथाकथित गुरु-बाबाओं के यहाँ) अन्धविश्वासों के काँटे ही बिकते हैं क्योंकि लोगों को उनका मूल्य अदा करना पड़ता है। अज्ञानता कहिये या अन्धश्रद्धा सामान्य लोग प्रायः काँटे ख़रीदते हैं। आयग् समाज में कोई भी आ सकता है और निःशुल्क अमृत का पान कर सकता है। अनेक लोगों को इस बात से आपत्ति होती है कि ‘आर्य समाजी’ दूसरों का खण्डन करते रहते हैं इसलिये उनकी उन्नति नहीं हो पाती। उनकी यह धारणा शतप्रतशित असत्य है क्योंकि आर्य समाज का मुख्य उद्देश्य "संसार का उपकार करना है" और इसी के मद्देनज़र यदि जिसे समाज में हम रहते हैं उसमें कुरीतियाँ पनपती हैं तो अन्धविश्वास फैलता है जिसके फलस्वरूप पाखण्ड घर कर लेता है और जिसके कारण लोगों में छूआ-छूत, अन्याय, सतीप्रथा इत्यादि जैसी कुरीतियाँ बढ़ती हैं तो क्या उनको दूर करना बुरा काम है और क्या श्रेष्ठ लोग हाथ पर हाथ धरे अपने घरों में बैठ सकते हैं? क्या शिक्षित लोगों का कर्तव्य नहीं है कि वे अपना उत्तरदायित्व समझते हुए सामने आएँ और सब की भलाई के नेक काम में लग जाएँ? कदाचित् नहीं! ‘आर्य समाज’ मूक रहकर तमाशा देखने वाली संस्थाओं में से नहीं है अतः उसे सत्य बात करने में कोई झिझक नहीं होती। अन्य संप्रदाय वाले अनुयायी भी ‘आर्य समाज’ के कार्यों को सराहते हैं। सत्य का साथ देने वालों का कोई भी मुँह बन्द नहीं कर सकता। हम अपने विचारशील मित्रों से एक प्रश्न करना चाहते हैं कि – ईश्वर निराकार है या साकार अर्थात् उसका कोई रूप, रंग या आकार है कि नहीं? यदि कहो कि वह परमात्मा निराकार है तो उसका आकार नहीं हो सकता अतः मूर्ति पूजा करना पाप है और यदि कहो कि ईश्वर आकार वाला है तो उसका रूप, रंग, आकार और सीमा निश्चित होनी चाहिये और यदि उसकी सीमा निश्वित है तो वह इतने विशाल ब्रह्माण्ड का निर्माण नहीं कर सकता। अनेक लोग ईश्वर को सर्वशक्तिमान मानते हैं कि वह जो चाहे कर सकता है तो आपसे कुछ प्रश्न पूछना चाहते हैं – यदि वह सब कुछ कर सकता है तो क्या वह स्वयं मृत्यु को प्राप्त हो सकता है? क्या वह अपने जैसा दूसरा ईश्वर उत्पन्न कर सकता है? क्या वह सो सकता है? क्या वह देहधारियों की भान्ति खा, पी सकता है? क्या वह मनुष्य जैसे कुकर्म भी कर सकता है? आप का उत्तर यही होगा – कभी नहीं! जा हाँ! सर्वशक्तिमान का अर्थ यह नहीं कि वह जो चाहे सब कुछ कर सकता है। स्मरण रहे वैदिक धर्म के अनुसार ‘सर्वशक्तिमान परमात्मा’ का अर्थ होता है – "परमात्मा अपने सब कार्य बिना किसी की सहायता के स्वयं करता है" किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं पड़ती। आज संसार में अनेक अन्धविश्वासों और अन्धश्रद्धाओं का बोलबाला है जिसकी आढ़ में अनेक पाखण्डीख् कुकर्मी लोगों ने भोले-भाले साधारण लोगों को मूर्ख बनाकर अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं। तथाकथित बाबाओं तथा बापूओं की भीड़ में नादान ही नहीं पढ़े-लिखे लोग भी फँस जाते हैं। याद रहे! हमारी आँखें प्रायः धोखा खाती हैं परन्तु बुद्धिमान व्यक्ति वही है जो ज्ञान और तर्क की सहायता से सत्य और असत्य को परख सकते हैं। जीवन में धन-दौलत से ही जीवन की सफलता को नहीं नापा जा सकता। सर्वविदित है कि जो धनी लोग बाहर से सुखी लगते हैं परन्तु उनके क़रीब जाने से पता चलता है कि वे भी बहुत दुःखी होते हैं। कभी इन्कम टैक्स का डर तो कभी धन की सुरक्षा का भय, कभी जान का ख़तरा तो कभी चोरी का भय। अधिक धन आने से रातों की नींद उड़ जाती है, भूख मर जाती है और अनेक बड़ी बीमारियाँ सामने आ खड़ी हो जाती हैं। अतः संसार में धन-दौलत ही सब कुछ नहीं होता। हमारे कुछ मित्रों ने बताया है कि जब से उन्होंने गुरु किया है और मूर्ति पूजा प्रारम्भ की है तब से उनके व्यवसाय में इज़ाफ़ा हुआ है और मन की शानित भी प्राप्त हुई है। क्या यह भी झूठ है? हमारा उत्तर है: जी नहीं! क्योंकि धन, दौलत, ऐश्वर्य और सुख समृद्धि मनुष्य के अपने प्रारब्ध, ज्ञान, पुरुषार्थ और अन्य कारणों से प्राप्त होते हैं और इसमें ईश्वर की कृपा बहुत बड़ा कारण होती है। जिन सज्जनो को जड़ अर्थात् मूर्ति आदि साकार वस्तुओं की पूजा करने में मन का शान्ति या सुख प्रतीत होता है वास्तव में यह उनका भ्रम है क्योंकि सुख और दुःख व्यक्ति के अपने ही कर्मों के कारण प्राप्त होते हैं इसमें मूर्ति पूजा या गुरु करने से कुछ नहीं होता। स्थाई सुख और शान्ति के लिये प्रभुभक्ति जिसको दार्शनिक भाक्षा में ‘योगाभ्यास’ कहते हैंं, परमावश्यक है। ‘योग’ आसन या शारीरिक व्यायाम करने का नाम नहीं है। योग का अर्थ है – आत्मा का परमात्मा से मिलन। जिस समय जीवात्मा ज्ञानपूर्वक परमात्मा के सम्पर्क में मग्नावस्था में होता है – वह योग की पराकाष्ठा है जिसे योग की भाषा में ‘समाधि’ कहते हैं। आज योग के नाम पर अनेक भ्रान्तियाँ फैली हूई हैं। उठने, बैठने, लेटने, हाथ-पाँव हिलाने डुलाने इत्यादि का नाम योग नहीं है। योगाभसियों को चाहिये कि वे महर्षि पतञ्जली कृत योगदर्शन का ध्यान से स्वाध्याय करें और योगा करने के लिये किसी सुशिक्षित योग गुरु की सहायता लें। योग के नाम पर आजकल अनेक संस्थाओं में योग कक्षाएँ लगती हैं जहाँ केवल हठयोग के कुछ आसन ही सिखाए जाते हैं। वास्तव में ‘आसन’ अष्टांग योग का तीसरा अंग है जिसके अभ्यास से शरीर लचीला और स्वस्थ होता है ताकि ईश्वर के ध्यान में लम्बे समय तक बैठने में योगाभ्यासी को कठिनाई न हो सके। योगाभ्यास से मन, बुद्धि, चित्त की उन्नति तथा आत्मिक उन्नति के लिये योग के आठों अंगों का अभ्यास आवश्यक है। मन की शान्ति: मन की शान्ति मात्र बाबा या किसी गुरु के पास जाने से प्राप्त नहीं होती उसको पाने के लिये अनेक साधन और कारण होते हैं। ‘मन की शान्ति’ मन के एकाग्रह होने पर ही मिलती है। मन चंचल होता है और उसको शान्त करने के लिये उसे कार्य में व्यस्त रखना ज्ररूरी है तो ही वह स्थिर होता है। मन को स्थिर करने के अनेक उपाय हैं जैसे ईश्वर के नाम का स्मरण करना, ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करना, परोपकारी कार्य करना इससे समय का सदुपयोग होता है और इस प्रकार अनेक उपाय हो सकते हैं जिससे मन की एकाग्रता होती है एवं मन को शान्ति मिलती है। स्थाई शान्ति हेतु मनुष्य को तीन नित्य तत्त्वों का ज्ञान होना परमावश्यक है अर्थात् आत्मा, परमात्मा और प्रकृति के स्वरूप का ज्ञान। संसारिक सुख पाकर मनुष्य क्षणिक सुख की प्राप्ति कर इस भ्रम में रहता है कि वह सुखी हो गया परन्तु यह उसका भ्रम है क्योंकि जब तक उसका मन शान्त नहीं होता वह कभी पूर्णरूपेण सुखी नहीं होता। मन की शान्ति का सर्वश्रेष्ठ उपाय है – सांसारिक विषय-भोगादि का त्याग करना, तीनों ऐष्णाओं से दूर रहना तथा हृदय में पनप रहे को, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष, चुग्रली, मान-अपमान इत्यादि शत्रुओं का सफ़ाया करना और यह सम्भव हो सकता है जब कि मनुष्य को तत्त्वज्ञान (ईश्वर, जीव और प्रकृति का यथार्थ ज्ञान) होता है। विषय विकारों के होते ‘मन की शान्ति’ तो बहुत दूर की बात है यदि मनुष्य को इस पृथ्वी का सम्पुर्ण साम्राज्य भी क्यों न प्राप्त कर ले उसका मन अशान्त ही रहेगा। श्रेष्ठ मानव जाति का समाज: आर्य का अर्थ होता है श्रेष्ठ और श्रेष्ठ जोगों के समाज को आर्य समाज कहते हैं। आर्य समाज एक संस्था का नाम है जो किसी जाति विशेष या सम्प्रदाय का नहीं। वह न तो हिन्दुओं का मन्दिर है न ही मुसलमानों की मस्जिद है और न ही सिक्खों का गुरुद्वारा है – सच मानो ‘आर्य समाज’ श्रेष्ठ मनुष्यों का अद्भुत संगठन है जिसमें कोई भी प्रवेश कर सकता है। किसी की जाती-पाती का प्रश्न ही नहीं उठता। आर्य समाज सब मनुष्यों को मनुष्य ही जानते और मानते हैं। आर्य समाज एक ईश्वर को ही अपना माता, पिता, बन्धु, सखा, राजा, न्यायाधीश और गुरु जानता और मानता है औा हम सब उसी परमात्मा की सन्तानें हैं। हम ईश्वरकृत ‘वेद’ (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद) ही ईश्वरीय वाणी जानते और मानते हैं और अन्य जितने भी ग्रन्थ या शास्त्र हैं जो वेदों के अनुरूप हैं उनको धर्म शास्त्र मानते हैं परन्तु जिन पुस्तकों में स्वार्थी लोगों ने मिलावट की गई है तथा अपनी अनेक बुराइयों को जोड़ा है, उनको धर्म-ग्रन्थ मानने से इन्कार करते हैं क्योंकि उनको पढ़ने से अधर्म फैलता है अतः ऐसी मिलावटी पुस्तकों को त्यागना ही ठीक है। रही बात भीड़ जमा करने की तो हमारे पाठकवृन्द जानते ही हैं कि अधिक भीड़-भढ़का कहाँ इकट्ठा होता है? रास्ते में मदारी खेल-तमाशा दिखाते हैं वहाँ भी भीड़ जमा होती है, जहाँ स्वार्थी लोग होते हैं उनको भी भीड़ जमा करने आती है, जहाँ सस्ता सामान बिकता है, जहाँ प्रसाद बँटता है, जहाँ हँसी-मज़ाक होता है, जहाँ कहानियाँ सुनाई जाती हें, जहाँ तफ़री का माहोल होता है, जहाँ प्रदर्शन होता है, जहाँ समय गँवाया जाता है – टाईम पास होता है इस प्रकार अनेक स्थान हैं जहाँ भीड़ इकटृठी होती है, इसका यह अर्थ नहीं कि वहाँ धर्म-कर्म की बातें होती हैं। सस्ती बर्तनों की दुकानों में भी भीड़ होती है और जहाँ क़ीमती सामान बिकता है जैसे सोने-चांदी की दुकान या जहाँ अमूल्य गहने इत्यादि बिकते हैं वहाँ लोग कम होते हैं। ऐसे स्थानों पर वे ही लोग जाते हैं जिनको वस्तुओं का ज्ञान होता है और अच्छी वस्तुएँ ख़रीदने की शक्ति होती है। अतः भीड़-भड़क्े की बातें करने वालों को समझ लेना चाहिये कि जहाँ सस्ता या नकली सामान बिकता है वहाँ सामान्य लोग ही जमा होते हैं। यही हाल मन्दिरों और अन्य संस्थाओं का भी है जहाँ तथाकथित धर्म के ठेकेदार केवल धन संग्रह करने में लगे रहते हैं। और दूसरी ओर जहाँ सत्य और धर्म की बातें होती हैं उन स्थानों पर लोग कम देखे जाते हैं। वैसे भी इस संसार में अज्ञानियों की कोई कमी नहीं है। माथे पर तिलक-टीका, गले में हार और हाथ में माला में माला फेरने से या नाम में परिवर्तन करने से कोई भी व्यक्ति ज्ञानी या धार्मिक नहीं बनता, ये मात्र दिखावा है। धर्म और ज्ञान किसी की धरोहर नहीं है क्योंकि ईश्वरीय ज्ञान सब के लिये होता है। तथाकतथत धर्म के ठेकेदारों के क़िस्से प्रायः समाचार पत्रों में छपते ही रहते हैं। जितने कुकर्म, पाखण्ड, अन्धविश्वास इस पाखण्डियों के तथाकथित धर्म स्थलों में होते हैं वैसे और कहीं नहीं होते। इस पृथ्वी पर यदि कोई ऐसी संस्था है जहाँ मात्र ईश्वरीय ज्ञान अर्थात् वैदिक धर्म का ही प्रचार-प्रसार होता है तो हम दावे के साथ घोषणा करते हैं कि वह केवल और केवल "आर्य समाज" है। जिन्हें तनिक भी शंका या संशय हो हम उन सब को ह्दय की गहराइयों से निमन्त्रण देते हैं (वैसे तो आर्य समाज सब के लिये खुला है) कि वे कभी भी अपने नज़दीकी आर्य समाज के भवन में पधारें और अपनी शंकाओं का समाधान कर सकते हैं। यह ऐसी समाज है जहाँ वेदों का पठन-पाठन होता है और वैसा ही आचरण होता है। आर्य समाज केवल निराकार परमात्मा की ही पूजा करते हैं जिसने ब्रह्माण्ड की रचना की है जो इसकी स्थिति और प्रलय करता है। हम उसी एक परमात्मा की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करते हैं। "कृण्वन्तो विश्वमार्यम्" (पूरे विश्व को श्रेष्ठ बनाएँ) यह वैदिक उद्घोष है, ईश्वर का आदेश है और यही मानव का कर्तव्य है। ईश्वर प्राप्ति करना ही सब मनुष्यों का परम पुरुषार्थ और लक्ष्य है। ईश्वर ने तो मनुष्य मात्र के लिये ज्ञान प्रदान किया है और अब मनुष्य के हाथ में है कि वह वेदों के बताए मार्ग पर चले या विपरीत चले क्योंकि जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है।
आर्य समाज और हमारा समाज आर्य समाज और जिस समाज में हम सब रहते हैं उसकी छोटी सी झलक दर्शाने का प्रयास करते हैं। हम किस वातावरण में जी रहे हैं यह साब को अच्छी तरह से मालूम है और हम किस प्रकार के समाज में रहना चाहते हैं उसके बारे में सब विवेकशील मनुष्यों को सोचना चाहिये। ईश्वर की कृति में कभी कोई त्रुटि नहीं होती क्योंकि ईश्वर सर्वज्ञ और सर्वव्यापक है और दूसरी ओर मनुष्य स्वयं को बहुत ज्ञानवान समझता है परन्तु हर क़दम पर अनेक भूलें करता है और फिर भी उसे अपनी भूलों का अहसास नहीं होता और कालान्तर में जब उसे अपनी ग़लतियों का फल प्राप्त होता है तो उसका मस्तिष्क उसे (उसे स्वाभाविक ज्ञाननता के कारण) मानने से इन्कार करता है कि उसने कभी कोई भूल की होगी। यहाँ हम स्पष्ट करना चाहते हैं कि वैदिक सिद्धान्तानुसार तथा वैज्ञानिक नियमानुसार बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता और किये कर्म का फल कर्त्ता के ही कालान्तर में अवश्यमेव भुगतना पड़ता है। चुभते सुलगते कुछ प्रश्न: आज सब की ज़ुबान से कुछ बातें सुनने में आती है कि - आर्य समाज के पास वेदों तथा अन्य याास्त्रों का अथाह ज्ञान हाने के पश्चात् भी आखि़र क्या कारण है कि लोग उसकी ओर आकर्षित नहीं होते या आर्श् समाज लोगों को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाता? वर्तमान में सब गुरुओं के पास अधिक मात्रा में लोग ज्ञान प्राप्त करने जाते हैं तथा नाम-दान के लिये बहुत भीड़ जमा होती है? मन की शान्ति का ठेका क्या केवल आर्य समाज के पास ही है? तो क्या अन्स संस्थाओं में जाने वाले लोग अशान्त होते हैं? आख़िर क्या कारण है कि अन्य सम्प्रदाय के वशिाल और समृद्ध मन्दिरों में अधिक से अधिक लोग जाते हैं और हमारी समाजों में लोग आने से भी कतराते हैं तथा हमेशा धन की ही माँग रहती है? प्रश्न अनेक हैं परन्तु उत्तर कोई नहीं देता? प्रिय सज्जनों!जिज्ञासा करना अच्छी बात है – इससे ज्ञान की वृद्धि होती है और सुधरने-सुधारने का सुअवसर प्राप्त होता है परन्तु अपने मस्तिष्क से इस ग़लत फ़हमी (भ्रम) को निकाल दीजिये कि आर्य समाज उन्नति के मार्ग पर नहीं चल रहा। यह सत्य है कि आर्य समाज के पास वेदों तथा आर्ष ग्रन्थों का अथाह ज्ञान उपलब्ध है जिसका लाभ जिज्ञासू लोग ही उठाते हैं क्योंकि उनके पास सोचने समझने की विशेष योग्यता होती है जो सामान्य लोगों में कम होती है। साधारण अज्ञानी लोगों के भ्रम, भ्रन्तियाँ एवं अन्धविश्वास: इन पर अधिकतर लोग बिना सोचे-समझे भरोसा करते हैं कि: 1. बाबाओं की आशीर्वाद से बांझ स्त्री को भी संतान की प्राप्ति होती है। 2. महात्माओं द्वारा प्राप्त फल खाने से संतान्नोत्पति होती है। 3. साधु बाबा के छू मन्तर करने से या झाड़-फूँक से भूत-प्रत भाग जाते हैं। 4. वर और वधु की जन्मपत्रियाँ मिलाने से विवाह सफल होते हैं। 5. ग्रहों की स्थिति के कारण मनुष्य सुखी या दुःखी होते हैं और ज्यातिषियों के पास उसका तोड़ है। 6. पूजा-पाठ करने से क्राधित ग्रह-उपग्रह शान्त हो जाते हैं। 7. क़ीमती पत्थर धारण करने से घर में सुख-समृद्धि-शान्ति होती है। 8. मुहूर्त देखकर ही घर के बाहर निकलना चाहिये क्योंकि समय शुभ और अशुभ होता है। 9. गुरुजनों की जूठन खाने से जीवन सफल होता है। 10. गुरु की हरेक बात को बिना शंका/प्रश्न/संशय किये मानना चाहिये। 11. मृतकों का श्राद्ध अर्थात् ब्राह्मणों को खिलाना पिलाने से दिवन्गतात्माओं को मुक्ति मिलती है। 12. माता का जागरण करने से मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। 13. सत्यनारायण का प्रसाद ग्रहण न करने से सर्वनाश निश्चित है। 14. जादू-टोने से किसी को भी अपने वश में किया जा सकता है या व्यक्ति-विशेष की मृत्यु कराई जा सकती है। 15. बाबाओं की मूर्ति से भभूति अथवा सिन्दूर निकलता है, जूते स्वयं से चलते हैं, नीम के पत्ते मीठे लगते हैं, समुद्र का पानी मीठा हो जाता है इत्यादि। 16. बाबाओं के हाथ फेरने से सोने के मंगलसूत्रादि आभूषण, सोने के सिक्के, विदेशी घडि़याँ, भभूति और फल इत्यादि वस्तुएँ निकलती हैं। क्या यह कमाल नहीं है? वास्तव में ऐसा कुछ नहीं होता, कोई जादू मन्तर नहीं होता और न ही कभी हो सकता है क्योंकि प्रकृति नियमों का उलंघन कोई नहीं कर सकता – चाहे वह बाबा हो या बापू या कोई पीर-फ़कीर या महात्मा। उपरोक्त अन्धविश्वासों को फैलाने में किन-किन लोगों का हाथ है – क्या आप जानते हैं? इनके पीछे स्वार्थी, ढौंगी, पाखण्डी, फ़रेबी, बहुरूपिये, निकत्ते, अघोड़ी, नकली और तथाकथित साधु, सन्त, बाबा, बापू, महात्माओं इत्याादि तथा मानव जाति के शत्रु होते हैं जिनको और कोई काम-काज या धंधा नहीं होता और बिना परिश्रम किये बैठे-बिठाए हराम की मिलती है जिससे उनकी तीनों ऐषणाओं की पूर्ति होती है। इन लोगों की काली करतूतों से सच्चे साधु-सन्तों और बाबाओं का नाम ख़राब होता है। हमारे समाज के श्रेष्ठ (आर्य), सुशिक्षित और सभी सभ्य समझदार लोगों का कर्तव्य बनता है कि वे सार्वजनिक हितार्थ तथा साधारण ज्ञान रखने वाले लोगों का सही मार्गदर्शन करें तथा उन्हें सावधानी बरतने के क़दम उठाएँ। अपने बच्चों को समझाएँ। यह सब तथी सम्भव है जब कि हम स्वयं सुधरें। हम सुधरेंगे तो समाज में स्वयं सुधार आ जाएग क्योंकि समाज हमी से बनता है और हमी से बिगड़ता है और इसी से देश बनते हैं। देश पिछउ़ जाएगा जो सर्वनाश होता है और इसे कोई बचा नहीं सकता। ईश्वर भी बचा नहीं सकता। समाधान एवं उत्तर: आर्य समाज एक क्रान्तिकारी एवं श्रेष्ठतम मानव निर्माण संस्था है जिसमें ईश्वरीय ज्ञान ‘वेद’ तथा आर्ष ग्रन्थों के माध्यम से मनुष्य को मनुष्य बनाया जाता है क्योंकि जब तक मनुष्य मनुष्य नहीं बनता वह इस संसार में अच्छी प्रकार से सुखों को भोग नहीं कर समका और अपने परम लक्ष्य ‘मोक्ष’ को प्राप्त नहीं कर सकता। आर्य समाज में सामने मूर्तियाँ रखकर गाने-बजाने या नृत्य नहीं होते जैसे कि प्रायः अन्य संस्थाओं में होते हैं। आर्य समाजों में रास लीलाएँ या नाटक नहीं होते अपितु योगाभ्यास होता है। यहाँ किसी प्रकार का टाईम पास नहीं होता या टाईम पास के लिये लोग नहीं आते अपितु साधना के लिये आते हैं। जिन लोगों को यह शिकायत है कि हमारे यहाँ लोगों की उपस्थिति कम होती है, भीड़ कम होती है तो उन को यह समझना होगा कि आर्य समाजों में सत्य पर आधारित उपदेश होते हैं, विद्वानों एवं संन्यासियों के प्रवचन होते हैं। साधना करने वालों के लिये सत्य को ग्रहण करना आसान होता है क्योंकि सत्य स्वाभाविक होता है परन्तु साधारण लोगों के लिये सत्य को ग्रहण करना उतना ही कठिन होता है। जिन संस्थाओं में या मन्दिरों इत्यादि में अधिक भीड़ देखी जाती है वहाँ जाकर देखें तो सही कि वहाँ कितना सत्य का पाठ पढ़ाया जाता है और क्या-क्या होता है। किसी शायर ने ठीक ही लिखा है "सच्चाई छुप नहीं सकती बनावट के उसूलों से और ख़ुश्बू आ नहीं सकती कभी काग़ज़ के फूलों से"। अतः दूर के ढोल सुहाने लगते हैं परन्तु सत्य क्या है परा में जाने से ही पता चलता है। सत्य और असत्य को बोध ‘आर्य समाज’ बेहत्तर सिखाता है। वक्त का तक़ाज़ा: हमें स्वयं को देखना है दूसरों को नहीं क्योंकि विवेकशील व्यक्ति दूसरों की अच्छाइयों को ग्रहण करने तथा अपनी बुराइयों को त्यागने का प्रयास करता है परन्तु यदि दूसरों में कमियाँ हैं जो समाज के लिये हानिकारक होती हैं तो उनको ठीक करने का प्रयास भी करना चाहिये क्योंकि कि "व्यक्ति को अपनी ही उन्नति में संतुष्ट न रहना चाहिये किन्तु दूसरों की उन्नति में ही अपनी उन्नति समझनी चाहिये"। पाठकवृन्द को जागृत करना चाहते हैं कि हमारे यहाँ (आर्य समाजों में) सत्य के सुगन्धित फुलों को बाँटा जाता है और वहाँ (प्रायः अन्य संस्थाओं में, मन्दिरों में और तथाकथित गुरु-बाबाओं के यहाँ) अन्धविश्वासों के काँटे ही बिकते हैं क्योंकि लोगों को उनका मूल्य अदा करना पड़ता है। अज्ञानता कहिये या अन्धश्रद्धा सामान्य लोग प्रायः काँटे ख़रीदते हैं। आयग् समाज में कोई भी आ सकता है और निःशुल्क अमृत का पान कर सकता है। अनेक लोगों को इस बात से आपत्ति होती है कि ‘आर्य समाजी’ दूसरों का खण्डन करते रहते हैं इसलिये उनकी उन्नति नहीं हो पाती। उनकी यह धारणा शतप्रतशित असत्य है क्योंकि आर्य समाज का मुख्य उद्देश्य "संसार का उपकार करना है" और इसी के मद्देनज़र यदि जिसे समाज में हम रहते हैं उसमें कुरीतियाँ पनपती हैं तो अन्धविश्वास फैलता है जिसके फलस्वरूप पाखण्ड घर कर लेता है और जिसके कारण लोगों में छूआ-छूत, अन्याय, सतीप्रथा इत्यादि जैसी कुरीतियाँ बढ़ती हैं तो क्या उनको दूर करना बुरा काम है और क्या श्रेष्ठ लोग हाथ पर हाथ धरे अपने घरों में बैठ सकते हैं? क्या शिक्षित लोगों का कर्तव्य नहीं है कि वे अपना उत्तरदायित्व समझते हुए सामने आएँ और सब की भलाई के नेक काम में लग जाएँ? कदाचित् नहीं! ‘आर्य समाज’ मूक रहकर तमाशा देखने वाली संस्थाओं में से नहीं है अतः उसे सत्य बात करने में कोई झिझक नहीं होती। अन्य संप्रदाय वाले अनुयायी भी ‘आर्य समाज’ के कार्यों को सराहते हैं। सत्य का साथ देने वालों का कोई भी मुँह बन्द नहीं कर सकता। हम अपने विचारशील मित्रों से एक प्रश्न करना चाहते हैं कि – ईश्वर निराकार है या साकार अर्थात् उसका कोई रूप, रंग या आकार है कि नहीं? यदि कहो कि वह परमात्मा निराकार है तो उसका आकार नहीं हो सकता अतः मूर्ति पूजा करना पाप है और यदि कहो कि ईश्वर आकार वाला है तो उसका रूप, रंग, आकार और सीमा निश्चित होनी चाहिये और यदि उसकी सीमा निश्वित है तो वह इतने विशाल ब्रह्माण्ड का निर्माण नहीं कर सकता। अनेक लोग ईश्वर को सर्वशक्तिमान मानते हैं कि वह जो चाहे कर सकता है तो आपसे कुछ प्रश्न पूछना चाहते हैं – यदि वह सब कुछ कर सकता है तो क्या वह स्वयं मृत्यु को प्राप्त हो सकता है? क्या वह अपने जैसा दूसरा ईश्वर उत्पन्न कर सकता है? क्या वह सो सकता है? क्या वह देहधारियों की भान्ति खा, पी सकता है? क्या वह मनुष्य जैसे कुकर्म भी कर सकता है? आप का उत्तर यही होगा – कभी नहीं! जा हाँ! सर्वशक्तिमान का अर्थ यह नहीं कि वह जो चाहे सब कुछ कर सकता है। स्मरण रहे वैदिक धर्म के अनुसार ‘सर्वशक्तिमान परमात्मा’ का अर्थ होता है – "परमात्मा अपने सब कार्य बिना किसी की सहायता के स्वयं करता है" किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं पड़ती। आज संसार में अनेक अन्धविश्वासों और अन्धश्रद्धाओं का बोलबाला है जिसकी आढ़ में अनेक पाखण्डीख् कुकर्मी लोगों ने भोले-भाले साधारण लोगों को मूर्ख बनाकर अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं। तथाकथित बाबाओं तथा बापूओं की भीड़ में नादान ही नहीं पढ़े-लिखे लोग भी फँस जाते हैं। याद रहे! हमारी आँखें प्रायः धोखा खाती हैं परन्तु बुद्धिमान व्यक्ति वही है जो ज्ञान और तर्क की सहायता से सत्य और असत्य को परख सकते हैं। जीवन में धन-दौलत से ही जीवन की सफलता को नहीं नापा जा सकता। सर्वविदित है कि जो धनी लोग बाहर से सुखी लगते हैं परन्तु उनके क़रीब जाने से पता चलता है कि वे भी बहुत दुःखी होते हैं। कभी इन्कम टैक्स का डर तो कभी धन की सुरक्षा का भय, कभी जान का ख़तरा तो कभी चोरी का भय। अधिक धन आने से रातों की नींद उड़ जाती है, भूख मर जाती है और अनेक बड़ी बीमारियाँ सामने आ खड़ी हो जाती हैं। अतः संसार में धन-दौलत ही सब कुछ नहीं होता। हमारे कुछ मित्रों ने बताया है कि जब से उन्होंने गुरु किया है और मूर्ति पूजा प्रारम्भ की है तब से उनके व्यवसाय में इज़ाफ़ा हुआ है और मन की शानित भी प्राप्त हुई है। क्या यह भी झूठ है? हमारा उत्तर है: जी नहीं! क्योंकि धन, दौलत, ऐश्वर्य और सुख समृद्धि मनुष्य के अपने प्रारब्ध, ज्ञान, पुरुषार्थ और अन्य कारणों से प्राप्त होते हैं और इसमें ईश्वर की कृपा बहुत बड़ा कारण होती है। जिन सज्जनो को जड़ अर्थात् मूर्ति आदि साकार वस्तुओं की पूजा करने में मन का शान्ति या सुख प्रतीत होता है वास्तव में यह उनका भ्रम है क्योंकि सुख और दुःख व्यक्ति के अपने ही कर्मों के कारण प्राप्त होते हैं इसमें मूर्ति पूजा या गुरु करने से कुछ नहीं होता। स्थाई सुख और शान्ति के लिये प्रभुभक्ति जिसको दार्शनिक भाक्षा में ‘योगाभ्यास’ कहते हैंं, परमावश्यक है। ‘योग’ आसन या शारीरिक व्यायाम करने का नाम नहीं है। योग का अर्थ है – आत्मा का परमात्मा से मिलन। जिस समय जीवात्मा ज्ञानपूर्वक परमात्मा के सम्पर्क में मग्नावस्था में होता है – वह योग की पराकाष्ठा है जिसे योग की भाषा में ‘समाधि’ कहते हैं। आज योग के नाम पर अनेक भ्रान्तियाँ फैली हूई हैं। उठने, बैठने, लेटने, हाथ-पाँव हिलाने डुलाने इत्यादि का नाम योग नहीं है। योगाभसियों को चाहिये कि वे महर्षि पतञ्जली कृत योगदर्शन का ध्यान से स्वाध्याय करें और योगा करने के लिये किसी सुशिक्षित योग गुरु की सहायता लें। योग के नाम पर आजकल अनेक संस्थाओं में योग कक्षाएँ लगती हैं जहाँ केवल हठयोग के कुछ आसन ही सिखाए जाते हैं। वास्तव में ‘आसन’ अष्टांग योग का तीसरा अंग है जिसके अभ्यास से शरीर लचीला और स्वस्थ होता है ताकि ईश्वर के ध्यान में लम्बे समय तक बैठने में योगाभ्यासी को कठिनाई न हो सके। योगाभ्यास से मन, बुद्धि, चित्त की उन्नति तथा आत्मिक उन्नति के लिये योग के आठों अंगों का अभ्यास आवश्यक है। मन की शान्ति: मन की शान्ति मात्र बाबा या किसी गुरु के पास जाने से प्राप्त नहीं होती उसको पाने के लिये अनेक साधन और कारण होते हैं। ‘मन की शान्ति’ मन के एकाग्रह होने पर ही मिलती है। मन चंचल होता है और उसको शान्त करने के लिये उसे कार्य में व्यस्त रखना ज्ररूरी है तो ही वह स्थिर होता है। मन को स्थिर करने के अनेक उपाय हैं जैसे ईश्वर के नाम का स्मरण करना, ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करना, परोपकारी कार्य करना इससे समय का सदुपयोग होता है और इस प्रकार अनेक उपाय हो सकते हैं जिससे मन की एकाग्रता होती है एवं मन को शान्ति मिलती है। स्थाई शान्ति हेतु मनुष्य को तीन नित्य तत्त्वों का ज्ञान होना परमावश्यक है अर्थात् आत्मा, परमात्मा और प्रकृति के स्वरूप का ज्ञान। संसारिक सुख पाकर मनुष्य क्षणिक सुख की प्राप्ति कर इस भ्रम में रहता है कि वह सुखी हो गया परन्तु यह उसका भ्रम है क्योंकि जब तक उसका मन शान्त नहीं होता वह कभी पूर्णरूपेण सुखी नहीं होता। मन की शान्ति का सर्वश्रेष्ठ उपाय है – सांसारिक विषय-भोगादि का त्याग करना, तीनों ऐष्णाओं से दूर रहना तथा हृदय में पनप रहे को, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष, चुग्रली, मान-अपमान इत्यादि शत्रुओं का सफ़ाया करना और यह सम्भव हो सकता है जब कि मनुष्य को तत्त्वज्ञान (ईश्वर, जीव और प्रकृति का यथार्थ ज्ञान) होता है। विषय विकारों के होते ‘मन की शान्ति’ तो बहुत दूर की बात है यदि मनुष्य को इस पृथ्वी का सम्पुर्ण साम्राज्य भी क्यों न प्राप्त कर ले उसका मन अशान्त ही रहेगा। श्रेष्ठ मानव जाति का समाज: आर्य का अर्थ होता है श्रेष्ठ और श्रेष्ठ जोगों के समाज को आर्य समाज कहते हैं। आर्य समाज एक संस्था का नाम है जो किसी जाति विशेष या सम्प्रदाय का नहीं। वह न तो हिन्दुओं का मन्दिर है न ही मुसलमानों की मस्जिद है और न ही सिक्खों का गुरुद्वारा है – सच मानो ‘आर्य समाज’ श्रेष्ठ मनुष्यों का अद्भुत संगठन है जिसमें कोई भी प्रवेश कर सकता है। किसी की जाती-पाती का प्रश्न ही नहीं उठता। आर्य समाज सब मनुष्यों को मनुष्य ही जानते और मानते हैं। आर्य समाज एक ईश्वर को ही अपना माता, पिता, बन्धु, सखा, राजा, न्यायाधीश और गुरु जानता और मानता है औा हम सब उसी परमात्मा की सन्तानें हैं। हम ईश्वरकृत ‘वेद’ (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद) ही ईश्वरीय वाणी जानते और मानते हैं और अन्य जितने भी ग्रन्थ या शास्त्र हैं जो वेदों के अनुरूप हैं उनको धर्म शास्त्र मानते हैं परन्तु जिन पुस्तकों में स्वार्थी लोगों ने मिलावट की गई है तथा अपनी अनेक बुराइयों को जोड़ा है, उनको धर्म-ग्रन्थ मानने से इन्कार करते हैं क्योंकि उनको पढ़ने से अधर्म फैलता है अतः ऐसी मिलावटी पुस्तकों को त्यागना ही ठीक है। रही बात भीड़ जमा करने की तो हमारे पाठकवृन्द जानते ही हैं कि अधिक भीड़-भढ़का कहाँ इकट्ठा होता है? रास्ते में मदारी खेल-तमाशा दिखाते हैं वहाँ भी भीड़ जमा होती है, जहाँ स्वार्थी लोग होते हैं उनको भी भीड़ जमा करने आती है, जहाँ सस्ता सामान बिकता है, जहाँ प्रसाद बँटता है, जहाँ हँसी-मज़ाक होता है, जहाँ कहानियाँ सुनाई जाती हें, जहाँ तफ़री का माहोल होता है, जहाँ प्रदर्शन होता है, जहाँ समय गँवाया जाता है – टाईम पास होता है इस प्रकार अनेक स्थान हैं जहाँ भीड़ इकटृठी होती है, इसका यह अर्थ नहीं कि वहाँ धर्म-कर्म की बातें होती हैं। सस्ती बर्तनों की दुकानों में भी भीड़ होती है और जहाँ क़ीमती सामान बिकता है जैसे सोने-चांदी की दुकान या जहाँ अमूल्य गहने इत्यादि बिकते हैं वहाँ लोग कम होते हैं। ऐसे स्थानों पर वे ही लोग जाते हैं जिनको वस्तुओं का ज्ञान होता है और अच्छी वस्तुएँ ख़रीदने की शक्ति होती है। अतः भीड़-भड़क्े की बातें करने वालों को समझ लेना चाहिये कि जहाँ सस्ता या नकली सामान बिकता है वहाँ सामान्य लोग ही जमा होते हैं। यही हाल मन्दिरों और अन्य संस्थाओं का भी है जहाँ तथाकथित धर्म के ठेकेदार केवल धन संग्रह करने में लगे रहते हैं। और दूसरी ओर जहाँ सत्य और धर्म की बातें होती हैं उन स्थानों पर लोग कम देखे जाते हैं। वैसे भी इस संसार में अज्ञानियों की कोई कमी नहीं है। माथे पर तिलक-टीका, गले में हार और हाथ में माला में माला फेरने से या नाम में परिवर्तन करने से कोई भी व्यक्ति ज्ञानी या धार्मिक नहीं बनता, ये मात्र दिखावा है। धर्म और ज्ञान किसी की धरोहर नहीं है क्योंकि ईश्वरीय ज्ञान सब के लिये होता है। तथाकतथत धर्म के ठेकेदारों के क़िस्से प्रायः समाचार पत्रों में छपते ही रहते हैं। जितने कुकर्म, पाखण्ड, अन्धविश्वास इस पाखण्डियों के तथाकथित धर्म स्थलों में होते हैं वैसे और कहीं नहीं होते। इस पृथ्वी पर यदि कोई ऐसी संस्था है जहाँ मात्र ईश्वरीय ज्ञान अर्थात् वैदिक धर्म का ही प्रचार-प्रसार होता है तो हम दावे के साथ घोषणा करते हैं कि वह केवल और केवल "आर्य समाज" है। जिन्हें तनिक भी शंका या संशय हो हम उन सब को ह्दय की गहराइयों से निमन्त्रण देते हैं (वैसे तो आर्य समाज सब के लिये खुला है) कि वे कभी भी अपने नज़दीकी आर्य समाज के भवन में पधारें और अपनी शंकाओं का समाधान कर सकते हैं। यह ऐसी समाज है जहाँ वेदों का पठन-पाठन होता है और वैसा ही आचरण होता है। आर्य समाज केवल निराकार परमात्मा की ही पूजा करते हैं जिसने ब्रह्माण्ड की रचना की है जो इसकी स्थिति और प्रलय करता है। हम उसी एक परमात्मा की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करते हैं। "कृण्वन्तो विश्वमार्यम्" (पूरे विश्व को श्रेष्ठ बनाएँ) यह वैदिक उद्घोष है, ईश्वर का आदेश है और यही मानव का कर्तव्य है। ईश्वर प्राप्ति करना ही सब मनुष्यों का परम पुरुषार्थ और लक्ष्य है। ईश्वर ने तो मनुष्य मात्र के लिये ज्ञान प्रदान किया है और अब मनुष्य के हाथ में है कि वह वेदों के बताए मार्ग पर चले या विपरीत चले क्योंकि जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है।
Human Duties
धर्म-कर्म और हम
धर्म-कर्म और हम परम पिता परमात्मा ने सृष्टि की आदि में सब मनुष्यों के हितार्थ वेद का ज्ञान (वेद अर्थात् ज्ञान) सब से पवित्र चार ऋषियों (अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा के द्वारा क्रमशः ऋक्, यजुः, साम और अथर्व) को प्रदान किया और कालान्तर में वही ईश्वरप्रदत्त वेद-ज्ञान को धार्मिक महानुभावों ने पुस्तकों के रूप में सुरक्षित रखा और वह आज भी ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के नाम से प्रचलित और सुरक्षित हैं। विश्व के सभी सुशिक्षित विद्वान लोग भी यही मानते हैं कि "संसार की सर्वप्रथम लिखित पुस्तक ‘ऋग्वेद’ है। प्रत्येक मनुष्य के गुण, कर्म और स्वभाव एक दूसरे से अलग-अलग होते हैं और यही कारण है कि जब से यह दुनियाँ बनी है तब से आज तक अच्छे लोगों के साथ बुरे लोग भी विद्यमान रहते हैं और आगे भविष्य में भी इसी प्रकार रहेंगे। कोई भी युग ऐसा नहीं था, न ही वर्तमान में है और न ही भविष्य में होगा, जब मात्र अच्छे लोग होंगे या केवल बुरे लोग रहेंगे। सत्युग, द्वापर, त्रेता और वर्तमान कलियुग, हर युग में दोनों ही प्रकार के लोग रहे हैं। हर युग में धर्म के साथ अधर्म रहा है और आगे भी रहेगा क्योंकि मनुष्य ग़लतियों का पुतला है। जी हाँ! ग़लतियाँ केवल मनुष्य ही करता है, पशु नहीं करते क्योंकि पशु प्रकृति नियम का उलंघन नहीं कर सकते क्योंकि उनमें कर्म करने की स्वतन्त्रता नहीं है जैसे कि मनुष्य में है। स्वतन्त्रता के कारण मनुष्य ग़लतियों पर ग़लतियाँ करता है और विधि के विधानानुसार अपने कर्मों का फल भोगता है। धर्म हमें कर्म करने की सही जानकारी देता है और जो मनुष्य धर्म को नहीं जानता, धर्म उसकी रक्षा नहीं करता "धर्मो रक्षति रक्षिताः" अर्थात् धर्म का पालन करने वाले व्यक्ति की (हर परिस्थिति में) धर्म ही रक्षा करता है। । संसार में जितने भी मनुष्य रहते हैं उन को धर्म और अधर्म के विषय में जानकारी अवश्य होगी और होनी भी चाहिये क्योंकि धर्महीन व्यक्ति पशु के समान होता है – ऐसा महर्षि मनु महाराज कहते हैं। इस संसार में आज भी ऐसे अनेक लोग विद्यमान हैं जो ‘धर्म-कर्म’ के बारे में अधूरा अथवा विपरीत ज्ञान रखते हैं। कुछ लोग तो ‘धर्म’ के सही स्वरूप को जानना ही नहीं चाहते क्योंकि वे इस अज्ञान में रहते हैं कि जो वे जानते हैं बस वही ‘धर्म’ है। पत्येक मनुष्य को धर्म के मर्म को जानने का पूरा-पूरा अधिकार है। जो धर्म के सही स्वरूप को जानने का प्रयास नहीं करता या जानना ही नहीं चाहता, उसे महर्षि मनु महाराज की भाषा में ‘पशु’ कहा जाए तो कुछ ग़लत नहीं होगा। धर्म क्या है, इसके कौन से लक्षण हैं, कौन से नियम हैं, उसको कैसे जानें, मानें और व्यवहार में लाएँ अर्थात् धर्म का पालन कैसे करें – इसपर कुछ चिन्तन करते हैं। साधारण भाषा में धर्म का अर्थ है – मनुष्य के लिये करने योग्य कर्म या "कर्तव्य"। मनुष्य का क्या कर्तव्य है, उसे क्या करना चाहिये या क्या नहीं करना चाहिये – इस पैमाने को ही धर्म कहते हैं। दार्शनिक भाषा में 'धर्म' की परिभाषा आर्ष ग्रन्थों के अनेक ऋषियों ने अपने-अपने शब्दों में की है परन्तु उन सब का तात्पर्य एक ही है जैसे – "धारणाद्धर्ममित्याहुः" अर्थात् जिसके धारण करने से किसी वस्तु की स्िथति रहती है, उसे 'धर्म' कहते हैं। वैशेषिक दर्शन (वैशेषिक 1/2) के अनुसार "यतोऽभयुदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः" अर्थात् जिससे (इस संसार में) भोग और (मृत्योपरान्त) मोक्ष की सिद्धि हो वह धर्म है अर्थात् जिससे इह लोक और परलोक सुधरता है वह धर्म है। "श्रुतिः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः। एतच्चतुर्वधिं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणत्॥" (मनु॰) अर्थात् "श्रुति=वेद, स्मृति=वेदानुकूल आप्तोक्त मनुस्मृत्यादि शास्त्र, सत्पुरुषों का आचार जो सनातन अर्थात् वेद द्वारा परमेश्वरोक्त प्रतिपादित कर्म्म और अपने आत्मा में प्रिय, अर्थात् जिसको आत्मा चाहता है, जैसा कि सत्यभाषण – ये चार धर्म के लक्षण अर्थात् इन्हीं से धर्म्माधर्म्म का निश्चय होता है। जो पक्षपातरहित न्याय, सत्य का ग्रहण, असत्य का सर्वथा परित्यागरूप आचार है, उसी का नाम ‘धर्म’ और इससे विपरीत जो पक्षपातरहित अन्यायचरण, सत्य का त्याग और असत्य का ग्रहणरूप कर्म है, उसी को ‘अधर्म’ कहते हैं। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने अमर ग्रन्थ "सत्यार्थ प्रकाश" में बहुत ही सरल शब्दों में बताया है कि "धर्म वह है जिसमें परस्पर किसी का विरोध न हो अर्थात् धर्म एक सार्वभौम वस्तु है जिसका किसी विशेष देश, जाति तथा काल से ख़ास सम्बन्ध नहीं होता" (स॰ प्र॰)। "जो ईश्वर की आज्ञा का यथावत् पालन और पक्षपातरहित न्याय सर्वहित करना है, जो कि वेदोक्त होने से सब मनुष्यों के लिये एक ही मानने योग्य है, वह 'धर्म' कहलाता है" (स॰ प्र॰)। "जो न्यायचरण सबके हित का करना आदि कर्म हैं उनको 'धर्म' और जो अन्यायचरण सब के अहित के काम करने हैं उनको 'अधर्म' जानो" (व्यवहारभानु)। धर्म की सरलतम परिभाषा है कि "स्वस्य च प्रियमात्मनः" (मनु॰) इस श्लोकांश का अर्थ संक्षेप में ऊपर लिख आए हैं, उसी का विस्तार हम यहाँ करते हैं कि "जैसा हमारी आत्मा को अच्छा लगे या व्यवहार आप अपने लिये दूसरों से चाहते हैं वैसा ही व्यवहार आप भी दूसरों से करें।" क्या कोई चाहता है कि दूसरे आप के धर में आकर चोरी करें, आप से पूछे बिना आपकी वस्तुओं का प्रयोग करें, आप के पीछे आपकी बुराई करें या निन्दा करें, आपकी बहु-बेटियों से दुर्व्यवहार करें, आपके छोटे-छोटे बच्चों को प्यार देने के बजाय उनसे ग़लत ढंग से बात करें और बिना कारण के मारें इत्यादि? क्या आप चाहते हैं कि आपके क़ीमती गाड़ी/वाहन (कार) को देखकर दूसरों में मन में जलन हो? क्या आप चाहते हैं कि आप पेट भर खाएँ और आपके सामने बैठा हुआ व्यक्ति (आपका मित्र, रिश्तेदार या पड़ोसी) भूखा बैठा रहे और यह जानते हुए भी आप उससे खाने के लिये नहीं पूछें? क्या ऐसा व्यवहार आप करेंगे या कर सकते हैं? यदि नहीं! कदाचित् नहीं! तो अभी भी आप में धार्मिक्ता जीवित है, आप में मानवता है। अतः आप भी दूसरों से अच्छे से अच्छा बर्ताव करें। ऐसा व्यवहार कदाचित् न करें जैसा व्यवहार आप नहीं चाहते कि दूसरे आप के साथ कभी करें! बस यही धर्म है। अच्छा करेंगे तो बदले में अच्छा पाओगे और बुरा करेंगे तो बुरा ही हाथ आएगा। अंग्रेज़ी में कहावत है – Action and reaction are equal and opposite अर्थात् जैसा करोगे वैसा पाओगे। बस यही धर्म है। अब वे कौन से कर्म हैं जो मनुष्यों को करने चाहियें और कौन से कर्म नहीं करने चाहियें, इस विषय पर महर्षि मनु महाराज ने उन कर्मों को 'धर्म के लक्षण' नाम दिया है – "धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्िद्रयनिग्रहः। धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्।।" (मनु॰ 6/92) अर्थात् धर्म के दस लक्षण हैं:- 1. धृति (धैर्य धारण करना, र्धर्यवान बनना, धीरज न खोना)। 2. क्षमा (दूसरों की ग़लतियों को माफ़ करना, नज़र-अन्दाज़ कर देना)। 3. दम (हर परिस्थिति में आत्म संयम बनाए रखना, अपना आपा न खोना)। 4. अस्तेय (किसी की परिस्थिति में कभी किसी की चोरी न करना), 5. शौच (आत्मिक, मानसिक और शरीरिक स्वच्छता बनाए रखना तथा उसके लिये हर सम्भव प्रयास करते रहना), 6. इन्िद्रयनिग्रह (इन्िद्रयों पर नियंत्रण करना – यह बहुत ही कठिन कार्य है परन्तु अभ्यास और आत्म-विश्वास द्वारा सब कुछ सम्भव है), 7. धीः (विवेकशीलता अर्थात् कर्म करने से पूर्व अपने विवेक का प्रयोग करना, धर्म-अधर्म को ध्यान में रखकर ही कर्म करना), 8. विद्या (ज्ञान की वृद्धि करना क्योंकि ज्ञान रहित कर्म ठीक-ठीक फल प्रदान नहीं करता)। 9. सत्याचारण (सत्य का मन, वचन और कर्म से पालन करना, सत्य को अपनाना और 10. अक्रोध (कभी क्रोध न करना और यदि किसी बात पर क्रोध आने लगे तो उस समय धर्म क इस लक्षण "अक्रोध" को स्मरण करना कि मुझे क्रोध नहीं करना है। ‘वैदिक धर्म’ और ‘मानवता’ के ये ही दस लक्षण हैं और जो व्यक्ति इन दसों नियमों या लक्षणों का पालन करता है वह ‘धर्मात्मा’ कहाने योग्य है। हम किसी भी व्यक्ति को, उसके गुण, कर्म, स्वभाव जाने बिना ‘धर्मात्मा’ की उपाधि देते हैं, वह ग़लत है और जो वास्तव में धर्मात्मा हैं उनकी कद्र नहीं करते। धर्म मनुष्य को जीवन जीने की कला सिखाता है, मनुष्य को मनुष्य बनना सिखाता है। जी हाँ! धर्म ही मनुष्य को मनुष्य बनना सिखाता है। जो व्यक्ति धर्म को अपने जीवन का अभिन्न अंग समझकर अपने जीवन में आचरण में लाता है वह व्यक्ति ‘धार्मिक" या "धर्मात्मा" कहाता है। मन्दिर में जाना, नंगे पैर पैदल यात्रा करके मन्दिर जाना, माथे पर चंदन या लाल, काले, पीले इत्यादि अनेक प्रकार के अनेक रंगों से तिलक लगाना, धोती-कुर्ता या लाल, पीले, केसरी, भगवे रंग के वस्त्र पहनना, मन्त्र लिखे शॉल/कपड़े धारण करना, माथे पर चंदन की लकीरे खींचना, हाथ में माला फेरना, मुँह/शरीर को भस्म लगाना, अनेक दिनों तक नहीं नहाना और बाल बढ़ाकर जटायू बनाना, नंगे रहना (वस्त्र धारण न करना), नदी-विशेष या झरने-विशेष या स्थान-विशेष पर जाकर उसे पवित्र मानकर नहाना या डुबकी लगाना या उस स्थान के जल को अपने घर में सम्भाल कर रखना, जाने बग़ैर किसी को भी को दान-दक्षिणा देना (दान-दक्षिणा इत्यादि सुपात्र को ही देना चाहिये, कुपात्र को नहीं), लोकैषणा वश सब के सामने किसी को दान देना, आदि इत्यादि करने से कोई धर्मिक या धर्मात्मा नहीं बन जाता – यह सब पाखण्ड है, दिखावा है, धर्मिक बनने का प्रदर्शन है, अपने-आप को धोखा देना है, स्वयं को ठगना है, दूसरो को फ़रेब देना है यदि आप धर्म के बताए मार्ग पर नहीं चलते। हमारे देश में हज़रों नहीं, लाखों की संख्या में मन्दिर हैं, लाखों की संख्या में पुजारी हैं, करोड़ों की संख्या में लोग हैं जो मन्दिरों में जाकर माथा टेकते हैं, फूलों की मालाएँ चढ़ाते हैं, मूर्तियों पर अरबों रुपयों के फूलों के हार, वस्त्र, भेंटें और गहने चढ़ाते हैं, आप क्या समझते हैं कि ये सब धर्मिक हैं या मानवता के धर्म का पालन करते हैं? नहीं! नहीं! ये सब पाखण्ड है, दिखावा है यदि अपने व्यवहार में धर्म का पालन नहीं करे। हमारे ही देश में अनेकों लोग रात को भूखा सोते हैं, मन्दिरों के बाहर दानों हाथ फैलाकर भीख माँगते हुए नज़ार आते हैं, हमारी फैंकी हुई पत्तलों की जूठन खाते हैं, क्या ये इन्सान नहीं हैं? ईश्वर की बनाई हुई सजीव मूर्तियाँ नहीं हैं? क्या हमारा धर्म इनकी सहायता करने से रोकता है? क्या हम लोगों का धर्म नहीं है कि जो धन हम जड़ मूर्तियों के ऊपर सजाने में ख़्ार्च करते हैं, क्या इन ग़रीबों को बसाने में ख़र्च नहीं कर सकते? मनुष्य की बनाई जड़ मूर्तियों की तो हम ख़ूब सेवा करते हैं जहाँ से हमें तनिक भी लाभ नहीं पहँचता और दूसरी ओर परमात्मा की बनाई मूर्तियों को धुतकारते हैं। यह धर्म नहीं अधर्म है। स्मरण रहे! यदि आपके मन में किसी के लिये कोई दया नहीं, दूसरों के प्रति द्वेष भावना और शत्रुता है, ग़रीबों के प्रति कोई हमदर्दी नहीं है, दुःखियों के लिये कोई सहानुभूति नहीं है, किसी के आँसू पौंछने में शर्म आती है, किसी की मदद नहीं कर सकते, भूखे को अन्न नहीं खिला सकते, प्यासे को पानी पिला नहीं सकते, किसी से हँस कर बात नहीं कर सकते तो समझो आप में धार्मिक्ता नहीं है, आप धार्मिक नहीं हैं। हमारे देश में अनेक क़त्लखाने हैं जहाँ प्रतिदिन हज़ारों नहीं लाखों में गाएँ, भैंसें, भेड़-बकरियाँ इत्यादि मूक पशुओं की निमर्म् हत्याएँ होती हैं और उनके अलावा ऐसी अनेक दुकानें खुली है जहाँ आपकी आखों के सामने जीवित मुर्गे-मुर्गियाँ की गर्दनें काटकर बेचा जाता है क्योंकि स्वयं को ‘मनुष्य’ और ‘धर्मिक’ कहाने वाला अधर्मी और पाखण्डी प्राणी (मनुष्य) उन पशुओं के माँस-हड्डियों को अपने घर के बर्तनों में पकाकर अपने पशुवृति वाले मित्रों के साथ बड़े चाव से खाता है। क्या मनुष्य का यही धर्म है? आप कितना भी यज्ञ करो, कितने ही सत्संग सुना, कितनी संध्याएँ कर ला, कितने भी मन्दिरों में जाओ, कितनी भी मालाएँ जपो, कितनी भी यात्राएँ करो, कितना भी दान करो – ये सब बेकार हैं यदि आप पशु माँस खाते हैं, माँसाहारी हैं, समुद्र या मीठे पानी की मच्छी खाते हैं, किसी भी पक्षी का अण्डा या अण्डे से बने पदार्थ (जैसे केक और पेस्टरी आदि) खाते हैं क्योंकि आप उतने ही पाप के भागी हैं जितने पशु हत्यारे होते हैं। यदि आप मदिरा पान करते हैं, शराब (बीअर, वाईन, व्हिस्की, जिन, वोडका, शैपेन, देसी भटृटी का शराब, थर्रा इत्यादि नशीले पदार्थ) पीते हैं, बीड़ी, सिगरेट, चुरूट, हुक्का इत्यादि पीते हैं या मादक पदार्थ (Drugs) जैसे चरस, गान्जा, कोकिन, हिरोइन, गर्द आदि का सेवन करते हैं तो आप धर्मात्मा कभी नहीं बन सकते। याद रहे! जब तक आपके खान-पान, रहन-सहन, आचार-विचार तथा कर्म में शुद्धता नहीं आती, तब तक आप धर्म के दायरे से बहूत दूर हैं। याद रहे कि कृत कर्मों का फल अवश्यमेव भुगतना पड़ता है। कर्मों के फल या दण्ड से कोई भी (स्वयं ईश्वर भी) छुड़ा नहीं सकता। शुभ कर्मों अर्थात् धार्मिक कर्मों का फल सुख (जाति, आयु और भोग द्वारा सुख) और उसके विपरीत अशुभ कर्मों अर्थात् अधार्मिक कर्मों का फल मात्र दुःख के रूप में ही प्राप्त होता है। स्मरण रहे! यह ईश्वरीय व्यवस्था (वेद कथन) है कि जो व्यक्ति धर्म का पालन करता है वह जीवन में सदा सुखी, उत्साही, निर्भय, बलवान, संतोषी और आनन्दित रहता है और जो उसके विपरीत चलता है सदा दुःखी रहता है। जो लोग चोरी, अन्याय और दुष्कर्म करते हैं, मन-वचन-कर्म में समानता नहीं रखते, झूठ-फ़रेब करते हैं वे लोग कभी सुखी नहीं रह सकते। सत्य को धारण करना सब से बड़ा धर्म है और झूठ बोलना सब से बड़ा पाप है। दुःख के साथ कहना पड़ता है कि "नास्तिक लोगों ने परमात्मा को इतना बदनाम नहीं किया है जितना कि झूठे धर्मिक लोगों ने किया है।" जब मूल में भूल होती है जो धर्म अधर्म बन जाता है। अतः सब मनुष्यों को चाहिये कि वे "धर्म" के सही अर्थ को जानें और उसे अपने जीवन में उतारने का प्रयास करें तो ही मनुष्य सही मायनों में ‘मनुष्य’ बन सकता है। आशा है कि हम अपने आप को मनुष्य समझने वाले "धर्म" (वैदिक धर्म) का पालन करें और "मनुष्य" बनें। मनुष्य ही ‘आर्य’ (श्रेष्ठ) बन सकता है अन्यथा अपने नाम के आगे या पीछे ‘आर्य’ लिखने से कोई ‘आर्य’ नहीं बनता। परमात्मा सब को सद्बुद्धि प्रदान करे!!! <<<<<
धर्म-कर्म और हम परम पिता परमात्मा ने सृष्टि की आदि में सब मनुष्यों के हितार्थ वेद का ज्ञान (वेद अर्थात् ज्ञान) सब से पवित्र चार ऋषियों (अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा के द्वारा क्रमशः ऋक्, यजुः, साम और अथर्व) को प्रदान किया और कालान्तर में वही ईश्वरप्रदत्त वेद-ज्ञान को धार्मिक महानुभावों ने पुस्तकों के रूप में सुरक्षित रखा और वह आज भी ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के नाम से प्रचलित और सुरक्षित हैं। विश्व के सभी सुशिक्षित विद्वान लोग भी यही मानते हैं कि "संसार की सर्वप्रथम लिखित पुस्तक ‘ऋग्वेद’ है। प्रत्येक मनुष्य के गुण, कर्म और स्वभाव एक दूसरे से अलग-अलग होते हैं और यही कारण है कि जब से यह दुनियाँ बनी है तब से आज तक अच्छे लोगों के साथ बुरे लोग भी विद्यमान रहते हैं और आगे भविष्य में भी इसी प्रकार रहेंगे। कोई भी युग ऐसा नहीं था, न ही वर्तमान में है और न ही भविष्य में होगा, जब मात्र अच्छे लोग होंगे या केवल बुरे लोग रहेंगे। सत्युग, द्वापर, त्रेता और वर्तमान कलियुग, हर युग में दोनों ही प्रकार के लोग रहे हैं। हर युग में धर्म के साथ अधर्म रहा है और आगे भी रहेगा क्योंकि मनुष्य ग़लतियों का पुतला है। जी हाँ! ग़लतियाँ केवल मनुष्य ही करता है, पशु नहीं करते क्योंकि पशु प्रकृति नियम का उलंघन नहीं कर सकते क्योंकि उनमें कर्म करने की स्वतन्त्रता नहीं है जैसे कि मनुष्य में है। स्वतन्त्रता के कारण मनुष्य ग़लतियों पर ग़लतियाँ करता है और विधि के विधानानुसार अपने कर्मों का फल भोगता है। धर्म हमें कर्म करने की सही जानकारी देता है और जो मनुष्य धर्म को नहीं जानता, धर्म उसकी रक्षा नहीं करता "धर्मो रक्षति रक्षिताः" अर्थात् धर्म का पालन करने वाले व्यक्ति की (हर परिस्थिति में) धर्म ही रक्षा करता है। । संसार में जितने भी मनुष्य रहते हैं उन को धर्म और अधर्म के विषय में जानकारी अवश्य होगी और होनी भी चाहिये क्योंकि धर्महीन व्यक्ति पशु के समान होता है – ऐसा महर्षि मनु महाराज कहते हैं। इस संसार में आज भी ऐसे अनेक लोग विद्यमान हैं जो ‘धर्म-कर्म’ के बारे में अधूरा अथवा विपरीत ज्ञान रखते हैं। कुछ लोग तो ‘धर्म’ के सही स्वरूप को जानना ही नहीं चाहते क्योंकि वे इस अज्ञान में रहते हैं कि जो वे जानते हैं बस वही ‘धर्म’ है। पत्येक मनुष्य को धर्म के मर्म को जानने का पूरा-पूरा अधिकार है। जो धर्म के सही स्वरूप को जानने का प्रयास नहीं करता या जानना ही नहीं चाहता, उसे महर्षि मनु महाराज की भाषा में ‘पशु’ कहा जाए तो कुछ ग़लत नहीं होगा। धर्म क्या है, इसके कौन से लक्षण हैं, कौन से नियम हैं, उसको कैसे जानें, मानें और व्यवहार में लाएँ अर्थात् धर्म का पालन कैसे करें – इसपर कुछ चिन्तन करते हैं। साधारण भाषा में धर्म का अर्थ है – मनुष्य के लिये करने योग्य कर्म या "कर्तव्य"। मनुष्य का क्या कर्तव्य है, उसे क्या करना चाहिये या क्या नहीं करना चाहिये – इस पैमाने को ही धर्म कहते हैं। दार्शनिक भाषा में 'धर्म' की परिभाषा आर्ष ग्रन्थों के अनेक ऋषियों ने अपने-अपने शब्दों में की है परन्तु उन सब का तात्पर्य एक ही है जैसे – "धारणाद्धर्ममित्याहुः" अर्थात् जिसके धारण करने से किसी वस्तु की स्िथति रहती है, उसे 'धर्म' कहते हैं। वैशेषिक दर्शन (वैशेषिक 1/2) के अनुसार "यतोऽभयुदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः" अर्थात् जिससे (इस संसार में) भोग और (मृत्योपरान्त) मोक्ष की सिद्धि हो वह धर्म है अर्थात् जिससे इह लोक और परलोक सुधरता है वह धर्म है। "श्रुतिः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः। एतच्चतुर्वधिं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणत्॥" (मनु॰) अर्थात् "श्रुति=वेद, स्मृति=वेदानुकूल आप्तोक्त मनुस्मृत्यादि शास्त्र, सत्पुरुषों का आचार जो सनातन अर्थात् वेद द्वारा परमेश्वरोक्त प्रतिपादित कर्म्म और अपने आत्मा में प्रिय, अर्थात् जिसको आत्मा चाहता है, जैसा कि सत्यभाषण – ये चार धर्म के लक्षण अर्थात् इन्हीं से धर्म्माधर्म्म का निश्चय होता है। जो पक्षपातरहित न्याय, सत्य का ग्रहण, असत्य का सर्वथा परित्यागरूप आचार है, उसी का नाम ‘धर्म’ और इससे विपरीत जो पक्षपातरहित अन्यायचरण, सत्य का त्याग और असत्य का ग्रहणरूप कर्म है, उसी को ‘अधर्म’ कहते हैं। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने अमर ग्रन्थ "सत्यार्थ प्रकाश" में बहुत ही सरल शब्दों में बताया है कि "धर्म वह है जिसमें परस्पर किसी का विरोध न हो अर्थात् धर्म एक सार्वभौम वस्तु है जिसका किसी विशेष देश, जाति तथा काल से ख़ास सम्बन्ध नहीं होता" (स॰ प्र॰)। "जो ईश्वर की आज्ञा का यथावत् पालन और पक्षपातरहित न्याय सर्वहित करना है, जो कि वेदोक्त होने से सब मनुष्यों के लिये एक ही मानने योग्य है, वह 'धर्म' कहलाता है" (स॰ प्र॰)। "जो न्यायचरण सबके हित का करना आदि कर्म हैं उनको 'धर्म' और जो अन्यायचरण सब के अहित के काम करने हैं उनको 'अधर्म' जानो" (व्यवहारभानु)। धर्म की सरलतम परिभाषा है कि "स्वस्य च प्रियमात्मनः" (मनु॰) इस श्लोकांश का अर्थ संक्षेप में ऊपर लिख आए हैं, उसी का विस्तार हम यहाँ करते हैं कि "जैसा हमारी आत्मा को अच्छा लगे या व्यवहार आप अपने लिये दूसरों से चाहते हैं वैसा ही व्यवहार आप भी दूसरों से करें।" क्या कोई चाहता है कि दूसरे आप के धर में आकर चोरी करें, आप से पूछे बिना आपकी वस्तुओं का प्रयोग करें, आप के पीछे आपकी बुराई करें या निन्दा करें, आपकी बहु-बेटियों से दुर्व्यवहार करें, आपके छोटे-छोटे बच्चों को प्यार देने के बजाय उनसे ग़लत ढंग से बात करें और बिना कारण के मारें इत्यादि? क्या आप चाहते हैं कि आपके क़ीमती गाड़ी/वाहन (कार) को देखकर दूसरों में मन में जलन हो? क्या आप चाहते हैं कि आप पेट भर खाएँ और आपके सामने बैठा हुआ व्यक्ति (आपका मित्र, रिश्तेदार या पड़ोसी) भूखा बैठा रहे और यह जानते हुए भी आप उससे खाने के लिये नहीं पूछें? क्या ऐसा व्यवहार आप करेंगे या कर सकते हैं? यदि नहीं! कदाचित् नहीं! तो अभी भी आप में धार्मिक्ता जीवित है, आप में मानवता है। अतः आप भी दूसरों से अच्छे से अच्छा बर्ताव करें। ऐसा व्यवहार कदाचित् न करें जैसा व्यवहार आप नहीं चाहते कि दूसरे आप के साथ कभी करें! बस यही धर्म है। अच्छा करेंगे तो बदले में अच्छा पाओगे और बुरा करेंगे तो बुरा ही हाथ आएगा। अंग्रेज़ी में कहावत है – Action and reaction are equal and opposite अर्थात् जैसा करोगे वैसा पाओगे। बस यही धर्म है। अब वे कौन से कर्म हैं जो मनुष्यों को करने चाहियें और कौन से कर्म नहीं करने चाहियें, इस विषय पर महर्षि मनु महाराज ने उन कर्मों को 'धर्म के लक्षण' नाम दिया है – "धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्िद्रयनिग्रहः। धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्।।" (मनु॰ 6/92) अर्थात् धर्म के दस लक्षण हैं:- 1. धृति (धैर्य धारण करना, र्धर्यवान बनना, धीरज न खोना)। 2. क्षमा (दूसरों की ग़लतियों को माफ़ करना, नज़र-अन्दाज़ कर देना)। 3. दम (हर परिस्थिति में आत्म संयम बनाए रखना, अपना आपा न खोना)। 4. अस्तेय (किसी की परिस्थिति में कभी किसी की चोरी न करना), 5. शौच (आत्मिक, मानसिक और शरीरिक स्वच्छता बनाए रखना तथा उसके लिये हर सम्भव प्रयास करते रहना), 6. इन्िद्रयनिग्रह (इन्िद्रयों पर नियंत्रण करना – यह बहुत ही कठिन कार्य है परन्तु अभ्यास और आत्म-विश्वास द्वारा सब कुछ सम्भव है), 7. धीः (विवेकशीलता अर्थात् कर्म करने से पूर्व अपने विवेक का प्रयोग करना, धर्म-अधर्म को ध्यान में रखकर ही कर्म करना), 8. विद्या (ज्ञान की वृद्धि करना क्योंकि ज्ञान रहित कर्म ठीक-ठीक फल प्रदान नहीं करता)। 9. सत्याचारण (सत्य का मन, वचन और कर्म से पालन करना, सत्य को अपनाना और 10. अक्रोध (कभी क्रोध न करना और यदि किसी बात पर क्रोध आने लगे तो उस समय धर्म क इस लक्षण "अक्रोध" को स्मरण करना कि मुझे क्रोध नहीं करना है। ‘वैदिक धर्म’ और ‘मानवता’ के ये ही दस लक्षण हैं और जो व्यक्ति इन दसों नियमों या लक्षणों का पालन करता है वह ‘धर्मात्मा’ कहाने योग्य है। हम किसी भी व्यक्ति को, उसके गुण, कर्म, स्वभाव जाने बिना ‘धर्मात्मा’ की उपाधि देते हैं, वह ग़लत है और जो वास्तव में धर्मात्मा हैं उनकी कद्र नहीं करते। धर्म मनुष्य को जीवन जीने की कला सिखाता है, मनुष्य को मनुष्य बनना सिखाता है। जी हाँ! धर्म ही मनुष्य को मनुष्य बनना सिखाता है। जो व्यक्ति धर्म को अपने जीवन का अभिन्न अंग समझकर अपने जीवन में आचरण में लाता है वह व्यक्ति ‘धार्मिक" या "धर्मात्मा" कहाता है। मन्दिर में जाना, नंगे पैर पैदल यात्रा करके मन्दिर जाना, माथे पर चंदन या लाल, काले, पीले इत्यादि अनेक प्रकार के अनेक रंगों से तिलक लगाना, धोती-कुर्ता या लाल, पीले, केसरी, भगवे रंग के वस्त्र पहनना, मन्त्र लिखे शॉल/कपड़े धारण करना, माथे पर चंदन की लकीरे खींचना, हाथ में माला फेरना, मुँह/शरीर को भस्म लगाना, अनेक दिनों तक नहीं नहाना और बाल बढ़ाकर जटायू बनाना, नंगे रहना (वस्त्र धारण न करना), नदी-विशेष या झरने-विशेष या स्थान-विशेष पर जाकर उसे पवित्र मानकर नहाना या डुबकी लगाना या उस स्थान के जल को अपने घर में सम्भाल कर रखना, जाने बग़ैर किसी को भी को दान-दक्षिणा देना (दान-दक्षिणा इत्यादि सुपात्र को ही देना चाहिये, कुपात्र को नहीं), लोकैषणा वश सब के सामने किसी को दान देना, आदि इत्यादि करने से कोई धर्मिक या धर्मात्मा नहीं बन जाता – यह सब पाखण्ड है, दिखावा है, धर्मिक बनने का प्रदर्शन है, अपने-आप को धोखा देना है, स्वयं को ठगना है, दूसरो को फ़रेब देना है यदि आप धर्म के बताए मार्ग पर नहीं चलते। हमारे देश में हज़रों नहीं, लाखों की संख्या में मन्दिर हैं, लाखों की संख्या में पुजारी हैं, करोड़ों की संख्या में लोग हैं जो मन्दिरों में जाकर माथा टेकते हैं, फूलों की मालाएँ चढ़ाते हैं, मूर्तियों पर अरबों रुपयों के फूलों के हार, वस्त्र, भेंटें और गहने चढ़ाते हैं, आप क्या समझते हैं कि ये सब धर्मिक हैं या मानवता के धर्म का पालन करते हैं? नहीं! नहीं! ये सब पाखण्ड है, दिखावा है यदि अपने व्यवहार में धर्म का पालन नहीं करे। हमारे ही देश में अनेकों लोग रात को भूखा सोते हैं, मन्दिरों के बाहर दानों हाथ फैलाकर भीख माँगते हुए नज़ार आते हैं, हमारी फैंकी हुई पत्तलों की जूठन खाते हैं, क्या ये इन्सान नहीं हैं? ईश्वर की बनाई हुई सजीव मूर्तियाँ नहीं हैं? क्या हमारा धर्म इनकी सहायता करने से रोकता है? क्या हम लोगों का धर्म नहीं है कि जो धन हम जड़ मूर्तियों के ऊपर सजाने में ख़्ार्च करते हैं, क्या इन ग़रीबों को बसाने में ख़र्च नहीं कर सकते? मनुष्य की बनाई जड़ मूर्तियों की तो हम ख़ूब सेवा करते हैं जहाँ से हमें तनिक भी लाभ नहीं पहँचता और दूसरी ओर परमात्मा की बनाई मूर्तियों को धुतकारते हैं। यह धर्म नहीं अधर्म है। स्मरण रहे! यदि आपके मन में किसी के लिये कोई दया नहीं, दूसरों के प्रति द्वेष भावना और शत्रुता है, ग़रीबों के प्रति कोई हमदर्दी नहीं है, दुःखियों के लिये कोई सहानुभूति नहीं है, किसी के आँसू पौंछने में शर्म आती है, किसी की मदद नहीं कर सकते, भूखे को अन्न नहीं खिला सकते, प्यासे को पानी पिला नहीं सकते, किसी से हँस कर बात नहीं कर सकते तो समझो आप में धार्मिक्ता नहीं है, आप धार्मिक नहीं हैं। हमारे देश में अनेक क़त्लखाने हैं जहाँ प्रतिदिन हज़ारों नहीं लाखों में गाएँ, भैंसें, भेड़-बकरियाँ इत्यादि मूक पशुओं की निमर्म् हत्याएँ होती हैं और उनके अलावा ऐसी अनेक दुकानें खुली है जहाँ आपकी आखों के सामने जीवित मुर्गे-मुर्गियाँ की गर्दनें काटकर बेचा जाता है क्योंकि स्वयं को ‘मनुष्य’ और ‘धर्मिक’ कहाने वाला अधर्मी और पाखण्डी प्राणी (मनुष्य) उन पशुओं के माँस-हड्डियों को अपने घर के बर्तनों में पकाकर अपने पशुवृति वाले मित्रों के साथ बड़े चाव से खाता है। क्या मनुष्य का यही धर्म है? आप कितना भी यज्ञ करो, कितने ही सत्संग सुना, कितनी संध्याएँ कर ला, कितने भी मन्दिरों में जाओ, कितनी भी मालाएँ जपो, कितनी भी यात्राएँ करो, कितना भी दान करो – ये सब बेकार हैं यदि आप पशु माँस खाते हैं, माँसाहारी हैं, समुद्र या मीठे पानी की मच्छी खाते हैं, किसी भी पक्षी का अण्डा या अण्डे से बने पदार्थ (जैसे केक और पेस्टरी आदि) खाते हैं क्योंकि आप उतने ही पाप के भागी हैं जितने पशु हत्यारे होते हैं। यदि आप मदिरा पान करते हैं, शराब (बीअर, वाईन, व्हिस्की, जिन, वोडका, शैपेन, देसी भटृटी का शराब, थर्रा इत्यादि नशीले पदार्थ) पीते हैं, बीड़ी, सिगरेट, चुरूट, हुक्का इत्यादि पीते हैं या मादक पदार्थ (Drugs) जैसे चरस, गान्जा, कोकिन, हिरोइन, गर्द आदि का सेवन करते हैं तो आप धर्मात्मा कभी नहीं बन सकते। याद रहे! जब तक आपके खान-पान, रहन-सहन, आचार-विचार तथा कर्म में शुद्धता नहीं आती, तब तक आप धर्म के दायरे से बहूत दूर हैं। याद रहे कि कृत कर्मों का फल अवश्यमेव भुगतना पड़ता है। कर्मों के फल या दण्ड से कोई भी (स्वयं ईश्वर भी) छुड़ा नहीं सकता। शुभ कर्मों अर्थात् धार्मिक कर्मों का फल सुख (जाति, आयु और भोग द्वारा सुख) और उसके विपरीत अशुभ कर्मों अर्थात् अधार्मिक कर्मों का फल मात्र दुःख के रूप में ही प्राप्त होता है। स्मरण रहे! यह ईश्वरीय व्यवस्था (वेद कथन) है कि जो व्यक्ति धर्म का पालन करता है वह जीवन में सदा सुखी, उत्साही, निर्भय, बलवान, संतोषी और आनन्दित रहता है और जो उसके विपरीत चलता है सदा दुःखी रहता है। जो लोग चोरी, अन्याय और दुष्कर्म करते हैं, मन-वचन-कर्म में समानता नहीं रखते, झूठ-फ़रेब करते हैं वे लोग कभी सुखी नहीं रह सकते। सत्य को धारण करना सब से बड़ा धर्म है और झूठ बोलना सब से बड़ा पाप है। दुःख के साथ कहना पड़ता है कि "नास्तिक लोगों ने परमात्मा को इतना बदनाम नहीं किया है जितना कि झूठे धर्मिक लोगों ने किया है।" जब मूल में भूल होती है जो धर्म अधर्म बन जाता है। अतः सब मनुष्यों को चाहिये कि वे "धर्म" के सही अर्थ को जानें और उसे अपने जीवन में उतारने का प्रयास करें तो ही मनुष्य सही मायनों में ‘मनुष्य’ बन सकता है। आशा है कि हम अपने आप को मनुष्य समझने वाले "धर्म" (वैदिक धर्म) का पालन करें और "मनुष्य" बनें। मनुष्य ही ‘आर्य’ (श्रेष्ठ) बन सकता है अन्यथा अपने नाम के आगे या पीछे ‘आर्य’ लिखने से कोई ‘आर्य’ नहीं बनता। परमात्मा सब को सद्बुद्धि प्रदान करे!!! <<<<<
Diwali
याद करो आज से ठीक 122 वर्ष पूर्व दिवाली की उस सन्ध्या को जब वर्तमान युग-प्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने जीवन की सन्ध्या समाप्त होने से पूर्व जगत् के असंख्य बुझे दीपकों को प्रज्वलित किया और हम से सदा-सदा के लिये विदा हो गए। ईश्वर की लीला देखिये - दिवाली की उस काली अमावस्या में एक ओर संसार के लोग दिवाली की ख़ुशियाँ मना रहे थे और दूसरी ओर "आर्य समाज" में मातम छा गया क्योंकि आर्य समाज का सूर्य सदा के लिये अस्त हो गया। "आर्य समाज" के इतिहास का एक पन्ना अन्धेरे से काला हो गया तथा एक प्रज्वलित चमकते सूर्य को सदा के लिये ग्रहण लगा दिया। उसी दिन महर्षि दयानन्द का अजमेर में देहावसन हुआ था।
दिवाली का पर्व हमें दो बातों की याद दिलाता है – एक, मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र की अयोध्या में वापसी की तथा दूसरे, आधुनिक युग-प्रवर्तक और महान सुधारक महर्षि दयानन्द सरस्वती ("आर्य समाज" के संस्थापक) की, जिनकी पुण्य-तिथि दिवाली के ही दिन पड़ती है। जब-जब ‘दिवाली’ (दीपावली अर्थात् प्रज्वलित दीपकों की लडि़याँ या वलियाँ) अर्थात् ‘प्रकाश’ का चम-चमाता हुआ त्यौहार आएगा तब-तब "आर्य समाज" के असंख्य सदस्यों को ही नहीं अपितु विश्व के अनेक बुद्धिजीवी लोगों को ‘बाल-ब्रह्मचारी देव दयानन्द’ के जीवन की अनेक घटनाएँ याद आती रहेंगी। श्री रामचन्द्र और महर्षि दयानन्द यद्यपि आज हमारे बीच नहीं हैं परन्तु जब तक सूर्य और चन्द्रमा में भौतिक प्रकाश रहेगा तब तक लोग दीपावली का त्यौहार मनाते रहेंगे और उन महान आत्माओं को याद करते रहेंगे।
आर्यवर्त (आधुनिक ‘भारत’) के लोग पिछले नौ लाख वर्षों से दीपावली का त्यौहार मनाते आ रहे हैं और वह भी केवल दिवाली के अवसर पर ही अपने मकानों की सफ़ाई कर और रात्रि के समय उसे दीपक जलाकर (आधुनिक समय में छोटी-बड़ी बत्तियों की सहायता से) रौशन करते हैं क्योंकि आज से लगभग नौ लाख वर्ष पूर्व (त्रोता युग की समाप्ित के समय) अमावस्या की सन्ध्या वेला में, चौदह वर्ष की वनवास की अवधि पूर्ण कर, मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र का अयोध्या नगरी में आगमन हुआ और वहाँ के रहवासियों ने श्री राम के स्वागत् में अपने-अपने मकानों के बाहर घी के दिये जलाकर अपनी प्रसन्नता को प्रदर्शन किया और वही परम्परा आज भी जारी है। दिवाली से प्रेरणा लेनी चाहिये कि हम भी अपने हृदयदेश की शुद्धि करें, अन्दर में जमे काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष, मान-अपमान, अहंकार इत्यादि मैल की सफ़ाई करें और उसके स्थान पर धर्म के लक्षणों को धारण करें, यम-नियमों का पालन करें। बाहर की सफ़ाई से अन्दर की शुद्धता का महत्व अधिक होता है।
महर्षि दयानन्द सरस्वती 19वीं शताब्दी के एक ऐसे योगीराज ब्रह्मचारी हुए हैं जिन्होंने सच्चे शिव की खोज में अपना जीवन लगा दिया और विश्व के लागों को भी सच्चे शिव के दर्शन कराये। दिवाली की सन्ध्या (ई॰ सन् 1883 आज से ठीक 122 वर्ष पूर्व) को महर्षि ने अजमेर में प्राण त्यागते हुए और जो अन्ितम शब्द कहे, वे विचारणीय हैं " हे ईश्वर – तेरी अच्छा पूर्ण हो" – ये उनके सच्चे ‘ईश्वर प्रणिधान’ की भावना को दर्शाते हैं।
यदि हम महर्षि के जीवन को पढ़ें और पाएँगे कि उन्होंने कभी सत्य का साथ नहीं छोड़ा, समझौता नहीं किया अर्थात् वे सदैव सत्य मार्ग पर चलते रहे, मार्ग में अनेक विपदाएँ तथा कठिनाइयाँ आईं परन्तु वे सदैव वैदिक सिद्धान्तों पर अडिग रहे और सब को सत्य मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते रहे। उन्होंने मनुष्य के अन्तःकरण में पड़े अज्ञानता के अन्धकार को ज्ञान के प्रकाश से प्रज्वलित करने का प्रयास करते रहे। अन्धविश्वास और अन्धश्रद्धा के दल-दल में धन्से अज्ञानी लोगों को निकाला और सत्यार्थ प्रकाश दिखाया। उनके जीवन का एक ही लक्ष्य रहा "संसार के समस्त लोगों को जन्म-मरण के बन्धन से छुड़ाकर मुक्ित दिलाना"। भटके हुए लोगों को सही रास्ता दिखाना, सत्य मार्ग दर्शाना, वापस वैदिक मार्ग पर लाना। उनका मन्तव्य था कि ‘वेद’ ही परम पिता परमात्मा का अनादि ज्ञान है तथा सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है जिसका स्वाध्याय अर्थात् पढ़ना-पढाना और सुनना-सुनाना सब श्रेष्ठ मनुष्यों का परम धर्म (कर्तव्य) है क्योंकि वेद को पढ़े, समझे और आचरण के बिना मनुष्य अपने जीवन के अन्ितम लक्ष्य को प्राप्त नहीं हो सकता और मुक्ित का यही एकमात्र मार्ग है।
महर्षि ने पौराणिक पण्िडतों से "मूर्तिपूजा" और "वैदिक सिद्धान्तों" के अनेक विषयों पर अनेक शास्त्रार्थ किये और उनको निरुत्तर कर दिया। सब लोगों के कल्याणार्थ अपनी छोटी सी आयु में 25 पुस्तकें भी लिखीं और सब की सब जगप्रसिद्ध पुस्तकें हैं। महर्षि दयानन्द कृत पुस्तकें: आर्याभिविनय, सत्यार्थ प्रकाश, व्यवहारभानु, काशी शास्त्रार्थ, सत्यधर्म विचार, आयौद्देश्य-रत्नमाला, संस्कारविधि, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, ऋग्वेद भाष्य, यजुर्वेद भाष्य, यजुर्वेद भाषा भाष्य, वेद विरुद्ध मत खण्डन, नारायण स्वामी मत खण्डन, भ्रमोच्छेदन, भ्रान्ितनिवारण, पंचमहायज्ञ विधि, गोकरुणा निधि, वेदांगप्रकाश, विवाह पद्धति, संस्कृत वाक्य प्रवोध, वेदभाष्य का नमूना, अष्टाध्यायी भाष्य, प्रतिमा पूजन विचार, वेदान्त भ्रान्ित निवारण और स्वमन्तव्याप्रकाश। क्या आप जानते हैं कि उपरोक्त ग्रन्थों को लिखने के लिये स्वामी जी ने 3000 से भी अधिक आर्ष ग्रन्थों तथा अन्य मत-मज़हब-सम्प्रदायों के पुस्तकों का भी स्वाध्याय किया था। महर्षिकृत "सत्यार्थप्रकाश" ग्रन्थ सर्वाधिक लोकप्रिय है जिसका अनुवाद भारत तथा विदेया की अनेक भाषाओं में हुआ है।
महर्षि 59 वर्ष की आयु में इस संसार से विदा हुए परन्तु उनका मार्गदर्शन मनुष्य जाति को सदैव प्राप्त होगा। महर्षि के मुख्य कार्य हैं- "आर्य समाज" की स्थापना, वेदमन्त्रों का सही अर्थ करने की विधि, देशवासियों को "स्वराज्य सर्वोपरि", "स्वतन्त्रता" तथा "एक राष्ट्रभाषा" का पाठ पढ़ाया, नारि का सम्मान करना, अनिवार्यरूप नारि प्रशिक्षण पर ज़ोर दिया, जाति-पाती, छूआ-छूत, सतीप्रथा, पाखण्ड, अन्धविश्वास, अन्धश्रद्धा इत्यादि महारोगों का निवारण हेतु निर्भकता से ‘पाखण्ड खण्िडनी पताका’ फहराई, मूर्तिपूजा का खण्डन करके सच्चे ‘शिव’ का दर्शन करया (ईश्वर का वैदिक स्वरूप और उसकी अनुभूति का उपाय – योग), वैदिक त्रोतवाद का समर्थन, एक निराकार परमात्मा की उपासना करना, मूर्तिमान और अमूर्तिमान (जड़) देवों की पूजा की विधि बताई, वेदों की ओर लौटने का आग्रह किया, यज्ञ करने की वैदिक रीति तथा अनेक कार्यों से परोपकार की भावना से ‘मनुष्य जाति की सेवा’ की। उनकी अन्त तक ‘मोक्ष’ की नहीं अपितु ‘परोपकार’ की तीव्र इच्छा रही। ऋषि तो अनेक हुए और होंगे परन्तु ऐसे महान व्यक्ितत्व के धनी को हम क्या कह सकते हैं – महर्षि से अधिक यदि कोई अन्य प्रभावशाली उपाधि हो सकती है तो वह मात्र ऋषिवर दयानन्द को ही जाती है।
अनेक लोग दुविधा में होते हैं कि आर्य समाजी ‘ऋषि निर्वाण दिवस’ का शोक मनाएँ या दिवाली पर्व की ख़ुशियाँ मनाएँ? ऐसे लोगों से हम मात्र इतना ही कहना चाहते हैं कि जो लोग महर्षि की मान्यताओं को स्वीकारते हैं और वैदिक धर्म का पालन करते हैं वे दिवाली के दिन महर्षि दयानन्द के कार्यों को अवश्य स्मरण करें, स्वाध्याय करें और अपने लक्ष्य से विचलित न होकर, हमेशा की तरह दिवाली का पर्व हर्षोल्लास के साथ अपने परिवार के अन्य सदस्यों के साथ अवश्य मनाएँ। महर्षि ने हमें सदैव प्रसन्न रहने की प्रेरणा दी है। दिवन्गतात्माओं के लिये शोक नहीं किया जाता और उनके लिये सच्ची श्रद्धान्जलि यही होती है कि हम उनकी शिक्षाओं को अपने जीवन में उतारें। दिवाली में अपने परिवार के सदस्यों के साथ यज्ञ करें, परमात्मा का धन्यवाद करें, अपने बड़ों का यथायोग्य आदर-सम्मान करें और छोटों को प्यार बाँटें, अपने मित्रों को अपने घर बुलाएँ, उनका मुँह मीठा कराएँ और ख़ुशियाँ मनाएँ। अपने कर्मचारियों को तोहफ़ा दें, ग़रीबों में प्रेम बाँटें तथा उन्हें वस्त्रादि प्रदान करें।
दिवाली के शुभावसर पर "लक्ष्मी-पूजन" (ऐसी पूजा जिससे परमलक्ष्य ‘मोक्ष’ की प्राप्ित हो) करें घट-घट में वसने वाले ‘नारायण’ (परम पिता परमात्मा) की उपासना करें तो ‘लक्ष्मी’ (प्रभु की कृपा) का घर में वास होता है। भौतिक लक्ष्मी आती है जाने के लिये अतः उसका कोई भरोसा नहीं परन्तु ‘नारायण-लक्ष्मी’ की कृपा हो जाए तो वारे-न्यारे हो जाते हैं – यही सही लक्ष्मी पूजन है।
महर्षिकृत ग्रन्थ "सत्यार्थ प्रकाश" वास्तव में सत्य का प्रकाश है। सत्यार्थ-प्रकाश को अपने जीवन में धारण करें, और इसे घर-घर पहँचाने का प्रयास करें। बाहर के प्रकाश के साथ-साथ अन्दर के प्रकाश को भी प्रज्वलित करें। बाहरी प्रकाश कुछ समय रहता है परन्तु सत्यार्थ-प्रकाश सदैव प्रकाश प्रदान करता है और मोक्ष के मार्ग तक पहुँचाता है। इस प्रकार की दिवाली मनाएँ - यही सच्ची दिवाली है।
आयुर्वेद चिकित्सा by Madan Raheja
आयुर्वेद चिकित्सा
आयुर्वेद चिकित्सा आयु में वृद्धि तथा शरीर को निरोग रखने की विद्या/विज्ञान को आयुर्वेद कहते हैं। वेद अथात् ज्ञान/विज्ञान। आयुर्वेद में तीन प्रकार के रोग माने जाते हैं अर्थात् शरीर में मुख्यतः तीन कारणों से रोग होने की सम्भावनाएँ होती हैं। ये हैं - वात, पित और कफ। वात प्रदत्त रोग - वात का अर्थ है – वायु। शरीर में वायु की मात्रा घटने/बढ़ने के कारण सर में दर्द, पेट में दर्द, जोड़ों में दर्द, पीठ में अकड़न/दर्द, तथा पैरों में जलन होती है और कब्ज़ भी हाती है। (हलदी, मेथी, सौंठ और सींधा नमक जल के साथ लेने से तुरन्त लाभ होता है। केला, मौसमी इत्यादि ठंडे पदार्थों से परहेज़ करें। नियमित योगासन करने से वात पदत्त-रोग धीरे-धीरे समाप्त हो जाते हैं। अधिक जानकारी के लिये जानकार आयुर्वैदिक वैद्य से सम्पर्क करें।) पित प्रदत्त रोग - पित अर्थात् अग्िन। इसके कारण कम भूख लगना, पेट में जलन, हृदय रोग, पैरों में जलन, चिड़चिड़ापन, नींद न आना, बालों का उड़ना, acidity, ulcer, constipation etc. शरीर सूखने लगता है। शरीर में Toxins की मात्रा अधिक हो जाती है। डॉ॰ की सलाह से उपचार करें। (मूली और केला, धनिया और पोदीना का सेवन लाभकारी है।) कफ प्रदत्त रोग – आयुर्वेद में कफ कहते हैं जल को। शरीर में जल की मात्रा अधिक अथवा कम होने से अनेक प्रकार के रोग होते हैं जैसे – सर्दी, ज़ुकाम, नज़ला, खाँसी, निमोनिया, ब्रोन्काईटिस इत्यादि जिसके कारण शरीर में सूजन आती है, कार्य करने में अरुचि, खाने पीने का मन नहीं होता, सुस्ती छाई रहती है, अधिक नींद का आना इत्यादि कफ प्रदत्त रोग के लक्षण हैं। 'नीम हक़ीम ख़तरे जान' अत: किसी भी प्रकार के रोग में स्वयं से कोई भी दवाई न लें अपितु योग्य डॉ॰ से मिलें और उसकी सलाह से ही उपचार करें। योगासन लाभकारी है परन्तु वह भी गुरु की देख-रेख में ही करें। जितना हो सके हरी सब्िज़याँ खूब खाएँ, जिस मौसम में जो फल उपलब्द्ध हों अवश्य खाएँ, खाने से पहले सलाद अवश्य खाएँ। जो सब्िज़याँ कच्ची खा सकते हैं खानी चाहियें। नमक और शक्कर का सेवन जितना हो सके कम से कम करें – ये दोनों विष हैं जिसका सेवन न करें तो शरीर को निरोग और स्वस्थ रखा जर सकता है। पेय में चाय, कॉफ़ी, Pepsi, Coke इत्यादि का सेवन न करें तो बहुत अच्छा है। छाछ (शक्कर और नमक रहित) बहुत लाभकारी पेय है।
आयुर्वेद चिकित्सा आयु में वृद्धि तथा शरीर को निरोग रखने की विद्या/विज्ञान को आयुर्वेद कहते हैं। वेद अथात् ज्ञान/विज्ञान। आयुर्वेद में तीन प्रकार के रोग माने जाते हैं अर्थात् शरीर में मुख्यतः तीन कारणों से रोग होने की सम्भावनाएँ होती हैं। ये हैं - वात, पित और कफ। वात प्रदत्त रोग - वात का अर्थ है – वायु। शरीर में वायु की मात्रा घटने/बढ़ने के कारण सर में दर्द, पेट में दर्द, जोड़ों में दर्द, पीठ में अकड़न/दर्द, तथा पैरों में जलन होती है और कब्ज़ भी हाती है। (हलदी, मेथी, सौंठ और सींधा नमक जल के साथ लेने से तुरन्त लाभ होता है। केला, मौसमी इत्यादि ठंडे पदार्थों से परहेज़ करें। नियमित योगासन करने से वात पदत्त-रोग धीरे-धीरे समाप्त हो जाते हैं। अधिक जानकारी के लिये जानकार आयुर्वैदिक वैद्य से सम्पर्क करें।) पित प्रदत्त रोग - पित अर्थात् अग्िन। इसके कारण कम भूख लगना, पेट में जलन, हृदय रोग, पैरों में जलन, चिड़चिड़ापन, नींद न आना, बालों का उड़ना, acidity, ulcer, constipation etc. शरीर सूखने लगता है। शरीर में Toxins की मात्रा अधिक हो जाती है। डॉ॰ की सलाह से उपचार करें। (मूली और केला, धनिया और पोदीना का सेवन लाभकारी है।) कफ प्रदत्त रोग – आयुर्वेद में कफ कहते हैं जल को। शरीर में जल की मात्रा अधिक अथवा कम होने से अनेक प्रकार के रोग होते हैं जैसे – सर्दी, ज़ुकाम, नज़ला, खाँसी, निमोनिया, ब्रोन्काईटिस इत्यादि जिसके कारण शरीर में सूजन आती है, कार्य करने में अरुचि, खाने पीने का मन नहीं होता, सुस्ती छाई रहती है, अधिक नींद का आना इत्यादि कफ प्रदत्त रोग के लक्षण हैं। 'नीम हक़ीम ख़तरे जान' अत: किसी भी प्रकार के रोग में स्वयं से कोई भी दवाई न लें अपितु योग्य डॉ॰ से मिलें और उसकी सलाह से ही उपचार करें। योगासन लाभकारी है परन्तु वह भी गुरु की देख-रेख में ही करें। जितना हो सके हरी सब्िज़याँ खूब खाएँ, जिस मौसम में जो फल उपलब्द्ध हों अवश्य खाएँ, खाने से पहले सलाद अवश्य खाएँ। जो सब्िज़याँ कच्ची खा सकते हैं खानी चाहियें। नमक और शक्कर का सेवन जितना हो सके कम से कम करें – ये दोनों विष हैं जिसका सेवन न करें तो शरीर को निरोग और स्वस्थ रखा जर सकता है। पेय में चाय, कॉफ़ी, Pepsi, Coke इत्यादि का सेवन न करें तो बहुत अच्छा है। छाछ (शक्कर और नमक रहित) बहुत लाभकारी पेय है।
Generation Gap
Generation Gap
वर्तमान में माता-पिता की सब से बड़ी समस्या है “Generation Gap” अर्थात् ‘पीढ़ीयों की दूरी’ या ‘बच्चों और बड़ों के बीच आयु का अन्तर’ और उस के कारण एक दूसरे की बातों को न समझना, जिसके फलस्वरूप आपस में अनबन, खिटपिट, टकराव होना और दूरियाँ बढ़ना स्वाभाविक है, परिणाम घर में अशान्ति का वातावरण। यह समस्या हर परिवार में माँ-बाप और बच्चों के बीच पहले भी थी, आज भी है और कल भी रहेगी। यह घर-घर की कहानी है। जब से यह संसार बना है और परिवार बने हैं, तब से हर घर में आपसी अनबन, मत-भेद और अशान्ति रही है। इस का कोई हल न पहले था, न आज है और न कभी भविष्य में हो सकता है परन्तु निराश होने की बात नहीं है क्योंकि यह ‘पीढि़यों का अन्तर’ कहीं हद तक दूर किया जा सकता है। आइये समझें कैसे?
माता-पिता बच्चों की बातों पर ध्यान नहीं देते, समझते हैं कि वे अभी बच्चे हैं और उनका अच्छा-बुरा हम अधिक जानते हैं। वास्तव में आधुनिक पीढ़ी के बच्चे अनेक विषयों में हम से ज़्यादा जानते हैं और अनेक बातें ऐसी होती हैं जिन्हें हम अधिक जानते हैं अतः समाधान यही है कि हम अपने अहंकार को अलग रखें और अपना निर्णय सुनाने से पूर्व, अपने बच्चों की बातों को ध्यान से सुनें। यदि वे ग़लत हैं तो ऐसी परिस्थिति में उनसे मित्रता का व्यवहार करें और प्रेम पूर्वक समझाने का प्रयत्न करें। ज़ोर-ज़बरदस्ती करने से बच्चे आपकी बातों को नहीं मानते, इससे आपके अहंकार को ठेस पहँचती है और घर में अशान्ति का वातावरण उत्पन्न होने की सम्भावना होती है। अहंकार के कारण मनुष्य हठी (ज़िद्दी) बन जाता है और दूसरे की बात को मानने से इन्कार करता है, अपनी बात पर ही अड़े रहते हैं – एक-दूसरे की बात नहीं मानते - चाहे वह बात सही ही क्यों न हो और यही घरेलू अशान्ति का कारण बन जाता है।
जब बच्चे पन्द्रह-सोलह वर्ष के हो जाएँ, सोचने-समझने लगें, अपना कार्य स्वयं करने लगें और निर्णय स्वयं करने लगें, तो उन्हें कभी भी नहीं डाटें अपितु उनसे एक सच्चे मित्र की भान्ति प्रेम से वार्तालाप करनी चाहिये और उन्हें सलाह देने का प्रयास करें। आदेश/आर्डर देने से बच्चे सुधरते नहीं हैं अपितु अधिक बिगड़ते हैं। बच्चों को ऐसा अहसास दिलाएँ कि आप उनका भला चाहते हैं।
इस मूल मन्त्र को सदा याद रखें - आप अपने बच्चों का मन रखें तो ही बच्चे आपका मान करेंगे। इससे बच्चों में आपके प्रति प्रेम और विश्वास जागृत होने लगता है और आपके कहे को टाल नहीं सकते। प्रेम से सब के मनों को जीता जा सकता है और प्रेम ही से संसार की हर समस्या का समाधान हो सकता है।
बच्चों में बचपन से ही संस्कार डालें तो वे बिगड़ते नहीं हैं, कभी सामने से उत्तर नहीं देते और यदि अन्य कारणों से बच्चे बिगड़ते हैं या आपका कहना नहीं मानते तो यही उचित है कि आप स्वयं को समय की तेज़ रफ़्तार के साथ चलने का प्रयास करें वरना समय आगे निकल जाएगा और आप पीछे रह जाएँगे।
माता-पिता अपने बच्चों से आयु में 20, 25 या 30 वर्ष बड़े होते हैं (आयु में और भी अधिक अन्तर हो सकता है) और जब हमारे बच्चे स्वयं 20/25 वर्ष के हो जाते हैं तो वे अपना अच्छा-बुरा स्वयं सोचने में सक्षम हो जाते हैं और आपके विचार-सिद्धान्त 20-25 वर्ष पुराने हो जाते हैं। ऐसी परिस्थिति में बच्चों के साथ समझौता करने तथा उनसे तित्रता का व्यवहार करने में ही समझदारी है। आपके बच्चे (पुत्र, पुत्री, बहू या दामाद) संस्कारी और योग्य हैं तो वे आपका उचित कहना अवश्य मानेंगे और सम्मान भी करेंगे बशर्ते आप अपना अधिकार समझकर उन्हें सीधा आदेश न करें।
दूसरी बात! कोई किसी के स्वभाव (पूर्व जन्म और माता-पिता के कुछ मिश्रित संस्कार) को बदल नहीं सकता। सब के स्वभाव भिन्न-भिन्न होते हैं अतः बच्चों पर बिना कारण के दबाव न डालें। कोई बच्चा शान्त स्वभाव का होता है तो कोई ज़िद्दी। माता-पिता को चाहिये कि वे अपने बच्चों से खूब वार्तालाप किया करें, उनके मन की बातों का जानने का प्रयास करें और अपने मन की बातें भी करें ताकि बच्चों को यह एहसास हो कि आप क्या चाहते हैं।
तीसरी बात! विवाहित बच्चों को उनके जीवन के निर्णय स्वयें लेने दें (उनमें हस्तक्षेप न करें) और अपनी बहू के साथ सास-ससुर जैसे व्यवहार न करें अपितु उस को अपनी बेटी के जैसा बर्ताव करें। स्मरण रखें कि आपकी बहू भी किसी की बेटी है और बेटियों को कौन ख़ुशहाल देखना नहीं चाहता? याद रहे! यदि आपकी बेटी के साथ भी उसके ससुराल वाले ग़लत व्यवहार करें तो आप के दिल पर कैसे गुज़रेगी? अपनी बहू का आदर-सम्मान करेंए उसे हर सम्भव प्रसन्न रखें फिर देखिये कि आपकी बहू आपका कितना सम्मान करती है और आपकी हर बात मानती है और अपने पति को भी मनाती है।
एक और महत्वपूर्ण बात को सदा ध्यान में रखें कि अपने बच्चों (बेटे, बेटी, बहू और दामाद) के समक्ष कभी भी, भूल कर भी झूठ न बोलें या उनके साथ किसी प्रकार की Politics न खेलें। उनसे जो भी बात करें मधुर वाणी से और सत्य बोलें। आपके इन्हीं गुणों का प्रभाव आपके बच्चों पर अवश्यरूप से पड़ता है। उनसे कभी ऊँची आवाज़ में न बोलें।
रात्रि भोजन के पश्चात् अपने बच्चों से पूरे दिन का हालचाल (दिनचर्या) के बीरे में पूछें। हँसी-ख़ुशी के वातावरण में अपनी आप-बीती सुनाएँ तथा उनकी बातें सुनें, इससे आपसी विचारों का आदान-प्रदान होता है। आधुनिक बच्चे बड़े समझदार एवं चतुर होते हैं और कोई बच्चा अपने माता-पिता या सास-ससुर को दुःखी देखना नहीं चाहता।
अपने घर में सबसे मातृभाषा का ही प्रयाग किया करें, यह हमारे संस्कृति और सभ्यता की पहचान है और इससे उसकी रक्षा होती है। मातृभाषा के पश्चात् राष्ट्रीय भाषा का ज्ञान होना आवश्यक है। वैसे भी बच्चे विद्यालयों में अन्ग्रेज़ी भाषा सीखते ही हैं जो विदेशी लोगों के साथ बात-चीत करने में उपयोगी होती है। हमने देखा है कि हमारे भारतीय मूल के लोग अपने घरों में अन्ग्रेज़ी भाषा का प्रयोग करते हैं और उसमें अपनी शान समझते हैं - जो एक ग़लत परम्परा है।
मैंने अनेक बार विदेश-यात्रा की है और यह मेरा दावा है कि जब भी कोई चीनी/रश्यिन/स्पैनशि/मैक्सीकन इत्यादि लोग आपस में मिलते हैं तो अपनी मात्रृभाषा में ही बात करते हैं और कभी भी उन्हें अन्ग्रेज़ी भाषा में बात करते हुए नहीं देखा है। क्या आपने विदेशी मूल के लोगों को उनके घरों में या उनके मित्रों के साथ ‘हिन्दी’ में बात-चीत करते हुए कभी देखा या सुना है? नहीं, तो हम क्यों अपने घरों में विदेशी भाषा बोलें? इससे यही मालूम पड़ता है कि वे लोग अपनी मात्रृभाषा को कितना मान देते हैं और हम हैं कि हमें अपने ही घरों में अपनी भाषा बोलने में शर्म आती है। हम कितनी भी विदेशियों की नकल करें, उनकी बोली बोलें, उनके लहजे (उनके ढंग) में बात करें, उनके जैसे कपड़े पहनें, उनकी स्टाईल मारें या उनके जैसा खाना खाएँ – फिर भी हम कभी भी उनके जैसा नहीं बन सकते, क्यों के हमारी शक्ल-सूरत, रंग-रूप जैसा है वैसी ही रहेगा। मुखौटा पहनने से कोई वैसी नहीं हो जाता। याद रहे, हमें जितना मान-सम्मान अपने समाज और अपनी संस्कृति से मिल सकता है और कहीं से नहीं मिल सकता अतः समझदारी इसी में है कि हमें अपनी भारतीय संस्कृति और सभ्यता पर गर्व करना चाहिये।
विदेश में रहने वाले भारतीयों को चाहिये कि वे अपने घरों में बच्चों के साथ अपनी मात्रृभाषा में बोलें। हमें हर देश की भाषा का सम्मान करना चाहिये जैसे अपनी मात्भाषा का करते हैं। अन्ग्रेज़ी भाषा का प्रयोग उन लोगों से करें जो हमारे देश की भाषा नहीं जानते। हम अपने ही हाथों से अपने घरों को स्वर्ग या नरक बनाए जा रहे हैं। हमें क्या चाहिये . स्वयं निर्णय करें!
'कृण्वन्तो विश्वमार्यम्' का यही नियम है कि 'पहले स्वयं आर्य बनें फिर औरों को आर्य बनाएँ', परन्तु वर्तमान की यह विडम्बना है कि सब दूसरों को ही सुधारना चाहते हैं, स्वयं के आचरण पर काई ध्यान नहीं देता।
उपरोक्त बातों को व्यवहार में लाएँ फिर देखें के अपन के परिवार में आपका और आपके परिवार में आप ही के बच्चे आपका कैसा सम्मान होता है, घर में शान्ति होती है और आप का घर स्वर्ग बन जाता है। ‘जिस घर में एक-दूजे की बात जाए मानी। उस घर में कभी न होवे कोई भी परेशानी’।।
वर्तमान में माता-पिता की सब से बड़ी समस्या है “Generation Gap” अर्थात् ‘पीढ़ीयों की दूरी’ या ‘बच्चों और बड़ों के बीच आयु का अन्तर’ और उस के कारण एक दूसरे की बातों को न समझना, जिसके फलस्वरूप आपस में अनबन, खिटपिट, टकराव होना और दूरियाँ बढ़ना स्वाभाविक है, परिणाम घर में अशान्ति का वातावरण। यह समस्या हर परिवार में माँ-बाप और बच्चों के बीच पहले भी थी, आज भी है और कल भी रहेगी। यह घर-घर की कहानी है। जब से यह संसार बना है और परिवार बने हैं, तब से हर घर में आपसी अनबन, मत-भेद और अशान्ति रही है। इस का कोई हल न पहले था, न आज है और न कभी भविष्य में हो सकता है परन्तु निराश होने की बात नहीं है क्योंकि यह ‘पीढि़यों का अन्तर’ कहीं हद तक दूर किया जा सकता है। आइये समझें कैसे?
माता-पिता बच्चों की बातों पर ध्यान नहीं देते, समझते हैं कि वे अभी बच्चे हैं और उनका अच्छा-बुरा हम अधिक जानते हैं। वास्तव में आधुनिक पीढ़ी के बच्चे अनेक विषयों में हम से ज़्यादा जानते हैं और अनेक बातें ऐसी होती हैं जिन्हें हम अधिक जानते हैं अतः समाधान यही है कि हम अपने अहंकार को अलग रखें और अपना निर्णय सुनाने से पूर्व, अपने बच्चों की बातों को ध्यान से सुनें। यदि वे ग़लत हैं तो ऐसी परिस्थिति में उनसे मित्रता का व्यवहार करें और प्रेम पूर्वक समझाने का प्रयत्न करें। ज़ोर-ज़बरदस्ती करने से बच्चे आपकी बातों को नहीं मानते, इससे आपके अहंकार को ठेस पहँचती है और घर में अशान्ति का वातावरण उत्पन्न होने की सम्भावना होती है। अहंकार के कारण मनुष्य हठी (ज़िद्दी) बन जाता है और दूसरे की बात को मानने से इन्कार करता है, अपनी बात पर ही अड़े रहते हैं – एक-दूसरे की बात नहीं मानते - चाहे वह बात सही ही क्यों न हो और यही घरेलू अशान्ति का कारण बन जाता है।
जब बच्चे पन्द्रह-सोलह वर्ष के हो जाएँ, सोचने-समझने लगें, अपना कार्य स्वयं करने लगें और निर्णय स्वयं करने लगें, तो उन्हें कभी भी नहीं डाटें अपितु उनसे एक सच्चे मित्र की भान्ति प्रेम से वार्तालाप करनी चाहिये और उन्हें सलाह देने का प्रयास करें। आदेश/आर्डर देने से बच्चे सुधरते नहीं हैं अपितु अधिक बिगड़ते हैं। बच्चों को ऐसा अहसास दिलाएँ कि आप उनका भला चाहते हैं।
इस मूल मन्त्र को सदा याद रखें - आप अपने बच्चों का मन रखें तो ही बच्चे आपका मान करेंगे। इससे बच्चों में आपके प्रति प्रेम और विश्वास जागृत होने लगता है और आपके कहे को टाल नहीं सकते। प्रेम से सब के मनों को जीता जा सकता है और प्रेम ही से संसार की हर समस्या का समाधान हो सकता है।
बच्चों में बचपन से ही संस्कार डालें तो वे बिगड़ते नहीं हैं, कभी सामने से उत्तर नहीं देते और यदि अन्य कारणों से बच्चे बिगड़ते हैं या आपका कहना नहीं मानते तो यही उचित है कि आप स्वयं को समय की तेज़ रफ़्तार के साथ चलने का प्रयास करें वरना समय आगे निकल जाएगा और आप पीछे रह जाएँगे।
माता-पिता अपने बच्चों से आयु में 20, 25 या 30 वर्ष बड़े होते हैं (आयु में और भी अधिक अन्तर हो सकता है) और जब हमारे बच्चे स्वयं 20/25 वर्ष के हो जाते हैं तो वे अपना अच्छा-बुरा स्वयं सोचने में सक्षम हो जाते हैं और आपके विचार-सिद्धान्त 20-25 वर्ष पुराने हो जाते हैं। ऐसी परिस्थिति में बच्चों के साथ समझौता करने तथा उनसे तित्रता का व्यवहार करने में ही समझदारी है। आपके बच्चे (पुत्र, पुत्री, बहू या दामाद) संस्कारी और योग्य हैं तो वे आपका उचित कहना अवश्य मानेंगे और सम्मान भी करेंगे बशर्ते आप अपना अधिकार समझकर उन्हें सीधा आदेश न करें।
दूसरी बात! कोई किसी के स्वभाव (पूर्व जन्म और माता-पिता के कुछ मिश्रित संस्कार) को बदल नहीं सकता। सब के स्वभाव भिन्न-भिन्न होते हैं अतः बच्चों पर बिना कारण के दबाव न डालें। कोई बच्चा शान्त स्वभाव का होता है तो कोई ज़िद्दी। माता-पिता को चाहिये कि वे अपने बच्चों से खूब वार्तालाप किया करें, उनके मन की बातों का जानने का प्रयास करें और अपने मन की बातें भी करें ताकि बच्चों को यह एहसास हो कि आप क्या चाहते हैं।
तीसरी बात! विवाहित बच्चों को उनके जीवन के निर्णय स्वयें लेने दें (उनमें हस्तक्षेप न करें) और अपनी बहू के साथ सास-ससुर जैसे व्यवहार न करें अपितु उस को अपनी बेटी के जैसा बर्ताव करें। स्मरण रखें कि आपकी बहू भी किसी की बेटी है और बेटियों को कौन ख़ुशहाल देखना नहीं चाहता? याद रहे! यदि आपकी बेटी के साथ भी उसके ससुराल वाले ग़लत व्यवहार करें तो आप के दिल पर कैसे गुज़रेगी? अपनी बहू का आदर-सम्मान करेंए उसे हर सम्भव प्रसन्न रखें फिर देखिये कि आपकी बहू आपका कितना सम्मान करती है और आपकी हर बात मानती है और अपने पति को भी मनाती है।
एक और महत्वपूर्ण बात को सदा ध्यान में रखें कि अपने बच्चों (बेटे, बेटी, बहू और दामाद) के समक्ष कभी भी, भूल कर भी झूठ न बोलें या उनके साथ किसी प्रकार की Politics न खेलें। उनसे जो भी बात करें मधुर वाणी से और सत्य बोलें। आपके इन्हीं गुणों का प्रभाव आपके बच्चों पर अवश्यरूप से पड़ता है। उनसे कभी ऊँची आवाज़ में न बोलें।
रात्रि भोजन के पश्चात् अपने बच्चों से पूरे दिन का हालचाल (दिनचर्या) के बीरे में पूछें। हँसी-ख़ुशी के वातावरण में अपनी आप-बीती सुनाएँ तथा उनकी बातें सुनें, इससे आपसी विचारों का आदान-प्रदान होता है। आधुनिक बच्चे बड़े समझदार एवं चतुर होते हैं और कोई बच्चा अपने माता-पिता या सास-ससुर को दुःखी देखना नहीं चाहता।
अपने घर में सबसे मातृभाषा का ही प्रयाग किया करें, यह हमारे संस्कृति और सभ्यता की पहचान है और इससे उसकी रक्षा होती है। मातृभाषा के पश्चात् राष्ट्रीय भाषा का ज्ञान होना आवश्यक है। वैसे भी बच्चे विद्यालयों में अन्ग्रेज़ी भाषा सीखते ही हैं जो विदेशी लोगों के साथ बात-चीत करने में उपयोगी होती है। हमने देखा है कि हमारे भारतीय मूल के लोग अपने घरों में अन्ग्रेज़ी भाषा का प्रयोग करते हैं और उसमें अपनी शान समझते हैं - जो एक ग़लत परम्परा है।
मैंने अनेक बार विदेश-यात्रा की है और यह मेरा दावा है कि जब भी कोई चीनी/रश्यिन/स्पैनशि/मैक्सीकन इत्यादि लोग आपस में मिलते हैं तो अपनी मात्रृभाषा में ही बात करते हैं और कभी भी उन्हें अन्ग्रेज़ी भाषा में बात करते हुए नहीं देखा है। क्या आपने विदेशी मूल के लोगों को उनके घरों में या उनके मित्रों के साथ ‘हिन्दी’ में बात-चीत करते हुए कभी देखा या सुना है? नहीं, तो हम क्यों अपने घरों में विदेशी भाषा बोलें? इससे यही मालूम पड़ता है कि वे लोग अपनी मात्रृभाषा को कितना मान देते हैं और हम हैं कि हमें अपने ही घरों में अपनी भाषा बोलने में शर्म आती है। हम कितनी भी विदेशियों की नकल करें, उनकी बोली बोलें, उनके लहजे (उनके ढंग) में बात करें, उनके जैसे कपड़े पहनें, उनकी स्टाईल मारें या उनके जैसा खाना खाएँ – फिर भी हम कभी भी उनके जैसा नहीं बन सकते, क्यों के हमारी शक्ल-सूरत, रंग-रूप जैसा है वैसी ही रहेगा। मुखौटा पहनने से कोई वैसी नहीं हो जाता। याद रहे, हमें जितना मान-सम्मान अपने समाज और अपनी संस्कृति से मिल सकता है और कहीं से नहीं मिल सकता अतः समझदारी इसी में है कि हमें अपनी भारतीय संस्कृति और सभ्यता पर गर्व करना चाहिये।
विदेश में रहने वाले भारतीयों को चाहिये कि वे अपने घरों में बच्चों के साथ अपनी मात्रृभाषा में बोलें। हमें हर देश की भाषा का सम्मान करना चाहिये जैसे अपनी मात्भाषा का करते हैं। अन्ग्रेज़ी भाषा का प्रयोग उन लोगों से करें जो हमारे देश की भाषा नहीं जानते। हम अपने ही हाथों से अपने घरों को स्वर्ग या नरक बनाए जा रहे हैं। हमें क्या चाहिये . स्वयं निर्णय करें!
'कृण्वन्तो विश्वमार्यम्' का यही नियम है कि 'पहले स्वयं आर्य बनें फिर औरों को आर्य बनाएँ', परन्तु वर्तमान की यह विडम्बना है कि सब दूसरों को ही सुधारना चाहते हैं, स्वयं के आचरण पर काई ध्यान नहीं देता।
उपरोक्त बातों को व्यवहार में लाएँ फिर देखें के अपन के परिवार में आपका और आपके परिवार में आप ही के बच्चे आपका कैसा सम्मान होता है, घर में शान्ति होती है और आप का घर स्वर्ग बन जाता है। ‘जिस घर में एक-दूजे की बात जाए मानी। उस घर में कभी न होवे कोई भी परेशानी’।।
Namaste
Namaste
There is no need to hug, kiss or shake hands,
Or say Hello, Hi or Bye, by waiving your hands.
Just say Namaste with both hands fold,
And thus avoid hug shocks or risk catching cold.
Namaste conveys love for minors and majors,
Without discrimination of sex, race, or colors.
Replace Hi/Bye and start greeting with Namaste.
Be happy to revert to this original humble way.
Namaste, the sweetest word when chanted,
Conveys respects and greetings when wanted.
It can be used for both singular & plural forms,
It’s commonly used for all occasions and norms.
Be it a child addressing an elder, or a male or female,
Or vice-versa facing each other or through mail.
Be it any time morning, noon, evening or night.
Greeting with just sweet Namaste, fits right.
Namaste is the salutation for all communications,
Whether they are of business or any personal relations.
Don’t get confused over salutation for madams or sirs,
Use Namaste for friends, parents, brothers or sisters.
It is not simply just a word, it’s a symbol of civilization,
If adopted universally, it will usher unity for each nation.
This humble salutation doesn’t interfere with any religion,
Namaste being insignia of love is thus worth adaptation.
Just join both hands and bring them near your heart,
And say Namaste the simple word so sweet and short.
The posture itself indicates regards from core of the heart,
All ladies, gents, teens or kids can easily follow this art.
[Poem by late Shri Dharmaveer Gulati - Mumbai]
There is no need to hug, kiss or shake hands,
Or say Hello, Hi or Bye, by waiving your hands.
Just say Namaste with both hands fold,
And thus avoid hug shocks or risk catching cold.
Namaste conveys love for minors and majors,
Without discrimination of sex, race, or colors.
Replace Hi/Bye and start greeting with Namaste.
Be happy to revert to this original humble way.
Namaste, the sweetest word when chanted,
Conveys respects and greetings when wanted.
It can be used for both singular & plural forms,
It’s commonly used for all occasions and norms.
Be it a child addressing an elder, or a male or female,
Or vice-versa facing each other or through mail.
Be it any time morning, noon, evening or night.
Greeting with just sweet Namaste, fits right.
Namaste is the salutation for all communications,
Whether they are of business or any personal relations.
Don’t get confused over salutation for madams or sirs,
Use Namaste for friends, parents, brothers or sisters.
It is not simply just a word, it’s a symbol of civilization,
If adopted universally, it will usher unity for each nation.
This humble salutation doesn’t interfere with any religion,
Namaste being insignia of love is thus worth adaptation.
Just join both hands and bring them near your heart,
And say Namaste the simple word so sweet and short.
The posture itself indicates regards from core of the heart,
All ladies, gents, teens or kids can easily follow this art.
[Poem by late Shri Dharmaveer Gulati - Mumbai]
Worship with folded hands
हाथ जोड़ झुकाए मस्तक
समस्त विश्व में जितने भी धर्म, मत, मज़हब, सम्प्रदायादि हैं और जो लोग ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करते हैं, प्रायः सभी उसकी प्रार्थना करते समय हाथ जोड़ते हैं और अपना सिर झुकाते हैं जिस क्रिया से यह मालूम पड़ता है कि वे परमात्मा का ध्यान, प्रार्थना या उपासना कर रहे हैं परन्तु कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो अपने दम्भ, हठ, दुराग्रह और अभिमान के कारण प्रभु की प्रार्थना करते समय न तो हाथ जोड़ते हैं और न ही मस्तक झुकाते हैं क्योकि वे इसे अपनी झूठी आन-मान-शान के विरुद्ध समझते हैं या हो सकता है उन्हें ऐसा करने से लज्जा आती हो। ऐसे ही कुछ लोगों का कहना है कि हाथ जोड़ना और सर झुकाना उनके सिद्धान्त और मान्यता के विरुद्ध है। उनको कौन समझाए कि भला परम पिता परमात्मा - ईश्वर के समक्ष हाथ जोड़ने और सर झुकाने में कैसी लज्जा? चलो उन्हीं से पूछते हैं कि वे ईश्वर वन्दना के समय हाथ क्यों नहीं जोड़ते या मस्तक क्यों नहीं झुकाते?
हमारे पूछने पर स्पष्टीकरण मिला - "क्योंकि ईश्वर सर्वव्यापक, निराकार और सर्वान्तर्यामी है, हमारे अन्दर-बाहर और हमारे हाथों में, सिर में तथा हमारे प्रत्येक अंग-प्रत्यंग में समान रूप विद्यमान है अतः प्रार्थना करते समय हम हाथ किसको जोड़ें और मस्तक किसके सामने झुकाएँ, यह मात्र दिखावा है और इससे कोई लाभ नहीं होता है। हम किसी को हाथ जोड़ते हैं या सिर झुकाकर ‘नमस्ते’ करते हैं तो व्यक्ित का हमारे सामने उपस्िथत होना आवश्यक है और क्योंकि ईश्वर हमारे समक्ष नहीं है और परमात्मा सर्वान्तर्यामी होने से हमारे भावों को जानता है। शास्त्रों में भी ऐसा लिखा है अतः ईश्वर के लिये हाथ जोड़ना या मस्तक झुकाना उचित नहीं है। अपने बड़ों के सामने हाथ जोड़ना या मस्तक झुकाना ठीक है।"
उपरोक्त सब बातों को हम भी स्वीकारते हैं कि परमात्मा निराकार, अकाय, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी है, सदैव हमारे अंग-संग रहता है और साक्षी बनकर हमारी भावनाओं को भली-भान्ित जानता है। वेद में अनेक मन्त्र विद्यमान हैं (ओ३म् नमः शम्भवाय च मयोभवाय च, नमः शंकराय चमयस्कराय च, नमः शिवाय च शिवतराय च॥ यजुर्वेद: 16/41), (भूयिष्ठान्ते नम उक्ितं विधेम॥ यजुर्वेद: 40/16) – जिन में परमात्मा के लिये ‘नमः’ अर्थात् ‘नमन’ और ‘नमस्कार’ अर्थात् नम्रतापूर्वक स्तुति करना लिखा है। यदि हम अपने मित्र या व्यक्ित-विशेष का स्वागत् करते समय हाथ जोड़कर सिर झुका सकते हैं, तो क्या सर्वेश्वर के समक्ष, जो हमारे सामने, दाएँ, पीछे, बाएँ, नीचे, ऊपर सब स्थान में सदैव साथ रहता है, ‘नमन’ करते समय हाथ जोड़ना भूल जाते हैं तथा अपने मस्तक को झुका नहीं सकते? क्या हमें लज्जा आती है?
अब आप ही बताएँ कि - क्या ईश्वरीय वाणी वेद में कहीं भी ‘सन्ध्या’, ‘ध्यान’ या ‘प्रार्थना’ करने का विधान बताया है? नहीं। किस समय किस दिशा में किस आसन में कैसे बैठें, आँखें बन्द करके बैठें या आँखें खोलकर बैंठें और सन्ध्या, हवन या ध्यान के समय कौन से मन्त्रों का उच्चारण करें ..... इत्यादि का वर्णन लिखा है? नहीं। उपासना के समय हाथ कहाँ और किस मुद्रा में रखें, कहीं इस का कहीं वर्णन है? नहीं। यज्ञादि तथा ईश्वर-स्तुति-प्रार्थना-उपासना में कौन से मन्त्रों कब और कैसे जाप करें, क्या वेदों में कहीं लिखा है? नहीं .... इत्यादि अनेक प्रश्न उत्पन्न हो सकते हैं जिनकी जानकारी हमें ऋषिकृत ग्रन्थों से या िफर योगीजनों के सान्िनध्य में रहकर ही मालूम की जा सकती हैं। उदाहरण के तौर पर महर्षि पतञ्जलि ने योग-दर्शन में ‘ध्यान’ के समय ‘सुखासन’ में सीधे बैठने का तरीका बताया गया है अर्थात् जिस आसन में सुखपूवैक बैठ सकें, उस स्िथति में बैठकर प्रभु का ध्यान किया जा सकता है। इसका अर्थ यह कदाचित् नहीं है कि यदि कोई व्यक्ित किसी कारण सीधा बैठने में असमर्थ है तो क्या वह ‘ध्यान’ नहीं कर सकता? नहीं! कोई भी व्यक्ित जिस स्िथति में सुखपूर्वक बैठ सकता है, उसके लिये वही सुखासन है, चाहे वह नदी के किनारे बैठे, जंगल में कसी वृक्ष के नीचे बैठे या अपने घर के किसी कोने में बैठे, इससे ध्यान की विधि में कोई अन्तर नहीं पड़ता, अपने हाथों को दानों जाँघों पर रखे या गोदी में एक दूसरे के ऊपर रखे (बाएँ के ऊपर दायाँ रखे या दाएँ के ऊपर बायाँ रखे) इत्यादि बातों से कुछ नहीं होता अर्थात् जो स्िथति आपके अनुकूल हो, उसमें बैठकर ध्यान किया जा सकता है।
रही बात हाथ जोड़ने तथा मस्तक झुकाने की तो सुनिये! संसार में जो कोई हमारा थोड़ा सा भी काम करता है या सहायता करता है तो हम उसे अनेक बार हाथ जोड़कर मस्तक नमाते हुए धन्यवाद करते हैं और कृतज्ञता जताते हैं तो क्या हम परमात्मा के प्रति इतने कृतघ्न हो गए हैं कि जिस परमेश्वर ने हमें संसार की सब सुख-सुविधाएँ प्रदान की हैं, माता-पिता-भाई-बहन तथा मित्रों और गुरुजनों का दर्शन कराया है और उसका धन्यवाद करते समय हम उसे हाथ नहीं जोड़ सकते और सिर को झुका नहीं सकते? स्वार्थपूर्ति के लिये ग़लत लोगों के सामने हाथ जोड़कर या बाँधकर झुकना, सलामी भरना, मन में ईर्ष्या, द्वेष, छल और कपट होते भी उनकी चापलूसी करना तो आपको गवारा है परन्तु ईश्वर के सामने, जो हमें बिना माँगे ही सब-कुछ दे रहा है, उसको हाथ जोड़कर नमन करने में इतनी शर्म क्यों? चिन्तन करना पड़ेगा कि क्या हम मानवता के पथ से विचलित होकर कहीं दानवता की राह पर तो नहीं जा रहे?
और रही बात शास्त्रों की तो कौन से शास्त्रा में लिखा है प्रभु के समक्ष हाथ नहीं जोड़ें और मस्तक नहीं झुकाएँ? हमारे विद्वान पाठकव्न्दों ने अवश्य पढ़ा होगा कि महर्षि दयानन्द सरस्वती अपने अमर ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ का प्ररम्भ इस मन्त्र से करते हैं "ओ३म्। शन्नो मित्रः वरुणः शन्नो भवत्वर्य्यमा। शन्नऽइन्द्रो बृहस्पतिः शन्नो विष्णुरुक्रमः। नमो ब्रह्मणे नमस्ते वायो त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि ऋतं वदिष्यामि सत्यं वदिष्यामि तन्मामवतु तद्वक्तारमवतु। अवतु माम्। अवतु वक्तारम्। ओ३म् शान्ितश्चान्ितश्चान्ित॥" इस मन्त्र के शब्द इतने सरल हैं कि संस्कृत न जानने वाला व्यक्ित भी आसानी से समझ सकता है। गुरुवर दयानन्द ईश्वर को ‘प्रत्यक्ष’ (अपने समक्ष हाजि़र-नाजि़र जानकर, अपने हृदय/मन में विद्यमान) जानकर ही प्रार्थना करते हैं और प्रतिज्ञा करते हैं कि मैं जो भी कहूँगा (या लिखूँगा) मात्रा सत्य का ही पालन करूँगा ......इत्यादि। यदि आप मानते हैं कि वेद ईश्वरकृत हैं, तो आप को अवश्य मानना पड़ेगा कि परमात्मा सर्वव्यापक होने से हमारे भीतर-बाहर अप्रत्यक्ष (निराकार) होते हुए भी ज्ञान-चक्षुओं से देखें तो सर्वदा ‘प्रत्यक्ष’ है। अतः हाथ जोड़ने तथा मस्तक झुकाकर प्रार्थना करना पूर्णरूपेण वैदिक है।
[गुरुकुल कालवा के आचार्य पूज्य बलदेव जी महाराज ने अनेक ब्रह्मचारियों को वैदिक पद्धति से शिक्षा प्रदान की है और उनमें से एक हैं - जग-प्रसिद्ध योगीराज स्वामी रामदेव महाराज, जिनकी प्रार्थना करने की विधि इस प्रकार है – वे प्रार्थना के समय आँखें बन्द करते हैं, दोनों हाथ जोड़कर मस्तक से लगाकर शान्तभाव से प्रार्थना-मन्त्रों का उच्चारण करते हैं। अब आप ही बताएँ कि क्या वे वेद विरुद्ध आचरण करते हैं? हाथ जोड़ने से हृदय के भाव शुद्ध होते हैं और आखें बन्द करने से हम ईश्वर को अपने अन्दर ‘साक्षात’ अनुभव करते हैं। ]
स्मरण रहे कि मस्तक केवल परमात्मा के सामने अथवा अपने माता, पिता, गुरु, आचार्य और विद्वान अतिथि के सामने ही झुकाया जाता है, सब के सामने नहीं क्योंकि माता, पिता, गुरु, आचार्य और विद्वान अतिथि हमारे पूज्य होते हैं और उन से बहुत कुछ सीखते हैं। पति-पत्नी आपस में हाथ जोड़कर ‘नमस्ते’ करें तो आपसी प्रेम बढ़ता है। परम पिता परमात्मा सर्वोपरि है, वही हम सब का माता, पिता, गुरु, मित्र, सखा और सब कुछ है अतः हमारा कर्तव्य है कि जब भी प्रार्थना करें तो बड़ी श्रद्धा और प्रेम भाव से दोनों आखें मूँदकर अपने मन मन्िदर (हृदय) में प्रवेश करें, उस निराकार प्रभु के गुणों का ध्यान करें और दोनों हाथ जोड़कर, नम्रभाव से मस्तक झुकाकर नमन (नमस्कार) करें और उससे मित्र की भान्ित वार्तालाप करें, उसका धन्यवाद करें। ईश्वर पर पूर्ण विश्वास रखें - आपके सब उल्झे कार्य सुलझ जाएँगे।
एक और बात ध्यान में रखने योग्य है कि ‘नमस्ते’ दानों हाथों को जोड़कर की जाती है और अपने से बड़े को सिर नमाकर की जाती है। हाथ जोड़ने से मनुष्य में समर्पण भाव जागृत होता है और सिर नमाने से अहंकार शून्यता आती है। ‘नमस्ते’ करने से आपसी सद्-भावना उत्पन्न होती है एक-दूसरे के प्रति प्रेम बढ़ता, आपस के गिले-शिकवे दूर हो जाते हैं। ‘नमस्ते’ का अर्थ है – "मैं आपका सत्कार करता हूँ" या "मैं आपको साधुवाद देता हूँ"।
वैसे भी हाथ जोड़ना और मस्तक नमाते हुए ‘नमस्ते’ (आदर-सत्कार) करना भारतीय सभ्यता और संस्कृति की देन है, धरोहर है और पहचान है। भारत की मान-आन-शान है और आर्यों (श्रेष्ठ जनों) की पहचान है। अपने से बड़ों को ‘नमस्ते’ दोनों हाथ जोड़कर हृदय से लगाते हुए और थोड़ा सा मस्तक को झुकाते हुए की जाती है और ‘नमस्ते’ का उत्तर प्रसन्नतापूर्वक देना चाहिये। आज विदेश के अनेक देशों में हाथ जोड़कर झुकने का रिवाज़ प्रचलित है तथा अनेक मत-मतान्तरों तथा सम्प्रदायों के अनुयायियों ने भी ‘नमस्ते’ कहने की परम्परा को सहर्ष अपनाया है।
क्रिश्िचयन लोग गिरिजाघरों में हाथ जोड़ते है, सिर झुकाते हैं (चाहे मूर्तियों के आगे झुकते हैं या हाथ जोड़ते हैं)। इस्लाम के अनुयायी आर्यों की तरह निराकार अल्लाह (ईश्वर) की हाथ मिलाकर बन्दगी करते हैं। कहने का तात्पर्य यही है कि चाहे कोई भी क्यों न हो (हिन्दू, मुस्िलम, सिक्ख, ईसाई .....) सभी ईश्वर की उपासना के समय हाथ जोड़ते और मस्तक झुकाते हैं तो िफर कुछ लोग, जो स्वयं को बहुत ज्ञानी-ध्यानी समझते हैं, ऐसा क्यों नहीं करते? मात्र ज्ञान प्राप्त करने से कोई ज्ञानी नहीं बनता, ज्ञान के साथ-साथ नम्रता और क्रिया (व्यवहार) भी आवश्यक होती है।
जो व्यक्ित ईश्वर के समक्ष हाथ नहीं जोड़ सकता और न ही मस्तक नवा सकता है, भला वह माता, पिता, गुरु तथा विद्वानों के आगे हाथ जोड़कर नमस्ते करता है तो वह ढौंग करता है, मात्र दिखावा ही करता है। रही बात शुभाशुभ भावनाओं की तो, इसे सर्वान्तर्यामी परमात्मा के सिवाय कोई नहीं जान सकता। यह सम्भव नहीं कि मनुष्य जैसा बाहर से दिखता है, अन्दर से भी वैसा ही हो, नहीं! मनुष्य ही मात्र ऐसा प्राणी है जो "स्वभाव से स्वार्थी प्रवृत्ति का होता है" और इस संसार में आकर प्रकृति के आकर्षण में और अधिक स्वार्थी हो जाता है। मन में कुछ और बाहर कुछ – मुँह में राम और बग़ल में छुरी, ऐसे लोगों से सावधानी बरतनी चाहिये, उनकी मीठी-मीठी बातों पर बातों में विष भरा होता है अतः ऐसे लोगों की बातों पर विश्वास करना स्वयं को धोखे में रखना है।।
आप जानते ही हैं आर्य समाजों में यज्ञोपरान्त यज्ञ-प्रर्थना अर्थात् ‘ईश-प्रार्थना’ गाते हैं - ‘यज्ञरूप प्रभे हमारे भाव उज्वल कीजिये’ और जिसके अन्त में "हाथ जोड़ झुकाएँ मस्तक वन्दना हम कर रहे" ऐसा कहते हैं। एक और प्रार्थना है "सुखी रहे संसार सब दुःखिया रहे न कोय" इस ईश-प्रार्थना के अन्त में भी लिखा है "हाथ जोड़ विनती करूँ सुनिये कृपा-निधान" क्या ये प्रार्थनाएँ वैदिक सिद्धान्तों के विरुद्ध हैं? हम मुँह से बोलें और उसे क्रिया में न लाएँ तो यह दिखावा/धोखा/कृतघ्नता नहीं? यदि उपरोक्त प्रार्थना वैदिक सिद्धान्तों के विरुद्ध है तो इसे "आर्य समाजों" में क्यों गाते हैं? आर्य समाज ही एक ऐसी सन्स्था है जहाँ सब कार्य/संस्कार वैदिक सिद्धान्तों ने अनुरूप होते हैं। वैदिक मान्यताओं को जानने और मानने वाले विद्वान कभी हाथ जोड़ने या सिर नमाने का विरोध नहीं करते और न ही करना चाहिये क्योंकि ईश्वर प्रार्थना के समय समर्पण भाव उत्पन्न करने के लिये भक्त यदि हाथ जोड़ता है और मस्तक झुकाता है तो बहुत अच्छी बात है, कोई बुराई नहीं है। कुछ लोग "हाथ जोड़ झुकाएँ मस्तक वंदना हम कर रहे" नहीं कहते उसके स्थान पर "प्रेम रस में तृप्त होकर वन्दना हम कर रहे" ऐसा गाते हैं – क्या यह ढौंग और असत्य नहीं है? ‘प्रेम रस में तृप्त’ होने वाला व्यक्ित कभी ऐसा बोल ही नहीं सकता क्योंकि प्रेमरस का अनुभव किया जाता है उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। ईश्वर वन्दना के पश्चात् ही परमात्मा का प्रेमरस प्राप्त होता है अतः "प्रेम रस में तृप्त होकर वन्दना हम कर रहे" ऐसा बालना पाखण्ड, डौंग और दिखावे के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
"सन्ध्या में विशेषतः ‘नमस्कार मन्त्रों’ में सब को चाहिये कि वे आखें बन्द करें और दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुकाएँ और मन्त्रोच्चारण करें – आप स्वयं ही आनन्द का अद्भुत् अनुभव करने लगेंगे।
स्मरण रहे! परम पिता परमात्मा को ‘विष्णु’ इसलिये कहते हैं कि कण-कण में समा रहा है, वह सदैव सब दिशाओं में एकरस विद्यमान रहता है अतः हमारे अन्तःकरण में (समक्ष-रूपेण) विद्यमान रहता है – यह प्रमाणित है। अपने मन को स्वच्छ करें तो वह परमात्मा आपको सब स्थान में, सब में दिखाई देगा अर्थात् उसका आभास होने लगेगा और यही परमात्मा का प्रत्यक्ष करना है। मन पर जमे लोकैषणा, अहंकार और स्वार्थ के आवरण को मिटाएँ तो सब कुछ स्पष्ट और सरल मालूम पड़ेगा अन्यथा आप यही कहेंगे कि परमात्मा हमारे सामने नहीं है अतः प्रार्थना के समय हाथ जोड़ना और शीश नमाना मात्र दिखावा है।
हमारे विद्वान पाठकव्न्द स्वयं निर्णय करें कि क्या हम वेद तथा आर्ष ग्रन्थों को प्रमाणित मानते हैं या िफर कुछ ऐसे लोगों के बहकावे में न आएँ क्योंकि "नीम हकीम ख़तरे जान" तथा "अधजल गगरी छलकत जाए" ऐसे लोग अपने अहंकार, हठ और दुराग्रह के कारण अपनी हानि तो करते ही हैं, दूसरों को भी अन्धश्रद्धा एवं अन्धविश्वास की अन्धेरी खाई में ढकेलते रहते हैं। हम आप महानभावों से निवेदन करते हैं कि स्व-आत्मा की वाणी को सुनें और आचरण में लावें क्योंकि सच्चे श्रेष्ठ मनुष्य का आत्मा सत्यासत्य को जानने वाला होता है।
ईश्वर सब को सर्वदा सद्-बुद्धि और मन की शान्ित प्रदान करे!
समस्त विश्व में जितने भी धर्म, मत, मज़हब, सम्प्रदायादि हैं और जो लोग ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करते हैं, प्रायः सभी उसकी प्रार्थना करते समय हाथ जोड़ते हैं और अपना सिर झुकाते हैं जिस क्रिया से यह मालूम पड़ता है कि वे परमात्मा का ध्यान, प्रार्थना या उपासना कर रहे हैं परन्तु कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो अपने दम्भ, हठ, दुराग्रह और अभिमान के कारण प्रभु की प्रार्थना करते समय न तो हाथ जोड़ते हैं और न ही मस्तक झुकाते हैं क्योकि वे इसे अपनी झूठी आन-मान-शान के विरुद्ध समझते हैं या हो सकता है उन्हें ऐसा करने से लज्जा आती हो। ऐसे ही कुछ लोगों का कहना है कि हाथ जोड़ना और सर झुकाना उनके सिद्धान्त और मान्यता के विरुद्ध है। उनको कौन समझाए कि भला परम पिता परमात्मा - ईश्वर के समक्ष हाथ जोड़ने और सर झुकाने में कैसी लज्जा? चलो उन्हीं से पूछते हैं कि वे ईश्वर वन्दना के समय हाथ क्यों नहीं जोड़ते या मस्तक क्यों नहीं झुकाते?
हमारे पूछने पर स्पष्टीकरण मिला - "क्योंकि ईश्वर सर्वव्यापक, निराकार और सर्वान्तर्यामी है, हमारे अन्दर-बाहर और हमारे हाथों में, सिर में तथा हमारे प्रत्येक अंग-प्रत्यंग में समान रूप विद्यमान है अतः प्रार्थना करते समय हम हाथ किसको जोड़ें और मस्तक किसके सामने झुकाएँ, यह मात्र दिखावा है और इससे कोई लाभ नहीं होता है। हम किसी को हाथ जोड़ते हैं या सिर झुकाकर ‘नमस्ते’ करते हैं तो व्यक्ित का हमारे सामने उपस्िथत होना आवश्यक है और क्योंकि ईश्वर हमारे समक्ष नहीं है और परमात्मा सर्वान्तर्यामी होने से हमारे भावों को जानता है। शास्त्रों में भी ऐसा लिखा है अतः ईश्वर के लिये हाथ जोड़ना या मस्तक झुकाना उचित नहीं है। अपने बड़ों के सामने हाथ जोड़ना या मस्तक झुकाना ठीक है।"
उपरोक्त सब बातों को हम भी स्वीकारते हैं कि परमात्मा निराकार, अकाय, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी है, सदैव हमारे अंग-संग रहता है और साक्षी बनकर हमारी भावनाओं को भली-भान्ित जानता है। वेद में अनेक मन्त्र विद्यमान हैं (ओ३म् नमः शम्भवाय च मयोभवाय च, नमः शंकराय चमयस्कराय च, नमः शिवाय च शिवतराय च॥ यजुर्वेद: 16/41), (भूयिष्ठान्ते नम उक्ितं विधेम॥ यजुर्वेद: 40/16) – जिन में परमात्मा के लिये ‘नमः’ अर्थात् ‘नमन’ और ‘नमस्कार’ अर्थात् नम्रतापूर्वक स्तुति करना लिखा है। यदि हम अपने मित्र या व्यक्ित-विशेष का स्वागत् करते समय हाथ जोड़कर सिर झुका सकते हैं, तो क्या सर्वेश्वर के समक्ष, जो हमारे सामने, दाएँ, पीछे, बाएँ, नीचे, ऊपर सब स्थान में सदैव साथ रहता है, ‘नमन’ करते समय हाथ जोड़ना भूल जाते हैं तथा अपने मस्तक को झुका नहीं सकते? क्या हमें लज्जा आती है?
अब आप ही बताएँ कि - क्या ईश्वरीय वाणी वेद में कहीं भी ‘सन्ध्या’, ‘ध्यान’ या ‘प्रार्थना’ करने का विधान बताया है? नहीं। किस समय किस दिशा में किस आसन में कैसे बैठें, आँखें बन्द करके बैठें या आँखें खोलकर बैंठें और सन्ध्या, हवन या ध्यान के समय कौन से मन्त्रों का उच्चारण करें ..... इत्यादि का वर्णन लिखा है? नहीं। उपासना के समय हाथ कहाँ और किस मुद्रा में रखें, कहीं इस का कहीं वर्णन है? नहीं। यज्ञादि तथा ईश्वर-स्तुति-प्रार्थना-उपासना में कौन से मन्त्रों कब और कैसे जाप करें, क्या वेदों में कहीं लिखा है? नहीं .... इत्यादि अनेक प्रश्न उत्पन्न हो सकते हैं जिनकी जानकारी हमें ऋषिकृत ग्रन्थों से या िफर योगीजनों के सान्िनध्य में रहकर ही मालूम की जा सकती हैं। उदाहरण के तौर पर महर्षि पतञ्जलि ने योग-दर्शन में ‘ध्यान’ के समय ‘सुखासन’ में सीधे बैठने का तरीका बताया गया है अर्थात् जिस आसन में सुखपूवैक बैठ सकें, उस स्िथति में बैठकर प्रभु का ध्यान किया जा सकता है। इसका अर्थ यह कदाचित् नहीं है कि यदि कोई व्यक्ित किसी कारण सीधा बैठने में असमर्थ है तो क्या वह ‘ध्यान’ नहीं कर सकता? नहीं! कोई भी व्यक्ित जिस स्िथति में सुखपूर्वक बैठ सकता है, उसके लिये वही सुखासन है, चाहे वह नदी के किनारे बैठे, जंगल में कसी वृक्ष के नीचे बैठे या अपने घर के किसी कोने में बैठे, इससे ध्यान की विधि में कोई अन्तर नहीं पड़ता, अपने हाथों को दानों जाँघों पर रखे या गोदी में एक दूसरे के ऊपर रखे (बाएँ के ऊपर दायाँ रखे या दाएँ के ऊपर बायाँ रखे) इत्यादि बातों से कुछ नहीं होता अर्थात् जो स्िथति आपके अनुकूल हो, उसमें बैठकर ध्यान किया जा सकता है।
रही बात हाथ जोड़ने तथा मस्तक झुकाने की तो सुनिये! संसार में जो कोई हमारा थोड़ा सा भी काम करता है या सहायता करता है तो हम उसे अनेक बार हाथ जोड़कर मस्तक नमाते हुए धन्यवाद करते हैं और कृतज्ञता जताते हैं तो क्या हम परमात्मा के प्रति इतने कृतघ्न हो गए हैं कि जिस परमेश्वर ने हमें संसार की सब सुख-सुविधाएँ प्रदान की हैं, माता-पिता-भाई-बहन तथा मित्रों और गुरुजनों का दर्शन कराया है और उसका धन्यवाद करते समय हम उसे हाथ नहीं जोड़ सकते और सिर को झुका नहीं सकते? स्वार्थपूर्ति के लिये ग़लत लोगों के सामने हाथ जोड़कर या बाँधकर झुकना, सलामी भरना, मन में ईर्ष्या, द्वेष, छल और कपट होते भी उनकी चापलूसी करना तो आपको गवारा है परन्तु ईश्वर के सामने, जो हमें बिना माँगे ही सब-कुछ दे रहा है, उसको हाथ जोड़कर नमन करने में इतनी शर्म क्यों? चिन्तन करना पड़ेगा कि क्या हम मानवता के पथ से विचलित होकर कहीं दानवता की राह पर तो नहीं जा रहे?
और रही बात शास्त्रों की तो कौन से शास्त्रा में लिखा है प्रभु के समक्ष हाथ नहीं जोड़ें और मस्तक नहीं झुकाएँ? हमारे विद्वान पाठकव्न्दों ने अवश्य पढ़ा होगा कि महर्षि दयानन्द सरस्वती अपने अमर ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ का प्ररम्भ इस मन्त्र से करते हैं "ओ३म्। शन्नो मित्रः वरुणः शन्नो भवत्वर्य्यमा। शन्नऽइन्द्रो बृहस्पतिः शन्नो विष्णुरुक्रमः। नमो ब्रह्मणे नमस्ते वायो त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि ऋतं वदिष्यामि सत्यं वदिष्यामि तन्मामवतु तद्वक्तारमवतु। अवतु माम्। अवतु वक्तारम्। ओ३म् शान्ितश्चान्ितश्चान्ित॥" इस मन्त्र के शब्द इतने सरल हैं कि संस्कृत न जानने वाला व्यक्ित भी आसानी से समझ सकता है। गुरुवर दयानन्द ईश्वर को ‘प्रत्यक्ष’ (अपने समक्ष हाजि़र-नाजि़र जानकर, अपने हृदय/मन में विद्यमान) जानकर ही प्रार्थना करते हैं और प्रतिज्ञा करते हैं कि मैं जो भी कहूँगा (या लिखूँगा) मात्रा सत्य का ही पालन करूँगा ......इत्यादि। यदि आप मानते हैं कि वेद ईश्वरकृत हैं, तो आप को अवश्य मानना पड़ेगा कि परमात्मा सर्वव्यापक होने से हमारे भीतर-बाहर अप्रत्यक्ष (निराकार) होते हुए भी ज्ञान-चक्षुओं से देखें तो सर्वदा ‘प्रत्यक्ष’ है। अतः हाथ जोड़ने तथा मस्तक झुकाकर प्रार्थना करना पूर्णरूपेण वैदिक है।
[गुरुकुल कालवा के आचार्य पूज्य बलदेव जी महाराज ने अनेक ब्रह्मचारियों को वैदिक पद्धति से शिक्षा प्रदान की है और उनमें से एक हैं - जग-प्रसिद्ध योगीराज स्वामी रामदेव महाराज, जिनकी प्रार्थना करने की विधि इस प्रकार है – वे प्रार्थना के समय आँखें बन्द करते हैं, दोनों हाथ जोड़कर मस्तक से लगाकर शान्तभाव से प्रार्थना-मन्त्रों का उच्चारण करते हैं। अब आप ही बताएँ कि क्या वे वेद विरुद्ध आचरण करते हैं? हाथ जोड़ने से हृदय के भाव शुद्ध होते हैं और आखें बन्द करने से हम ईश्वर को अपने अन्दर ‘साक्षात’ अनुभव करते हैं। ]
स्मरण रहे कि मस्तक केवल परमात्मा के सामने अथवा अपने माता, पिता, गुरु, आचार्य और विद्वान अतिथि के सामने ही झुकाया जाता है, सब के सामने नहीं क्योंकि माता, पिता, गुरु, आचार्य और विद्वान अतिथि हमारे पूज्य होते हैं और उन से बहुत कुछ सीखते हैं। पति-पत्नी आपस में हाथ जोड़कर ‘नमस्ते’ करें तो आपसी प्रेम बढ़ता है। परम पिता परमात्मा सर्वोपरि है, वही हम सब का माता, पिता, गुरु, मित्र, सखा और सब कुछ है अतः हमारा कर्तव्य है कि जब भी प्रार्थना करें तो बड़ी श्रद्धा और प्रेम भाव से दोनों आखें मूँदकर अपने मन मन्िदर (हृदय) में प्रवेश करें, उस निराकार प्रभु के गुणों का ध्यान करें और दोनों हाथ जोड़कर, नम्रभाव से मस्तक झुकाकर नमन (नमस्कार) करें और उससे मित्र की भान्ित वार्तालाप करें, उसका धन्यवाद करें। ईश्वर पर पूर्ण विश्वास रखें - आपके सब उल्झे कार्य सुलझ जाएँगे।
एक और बात ध्यान में रखने योग्य है कि ‘नमस्ते’ दानों हाथों को जोड़कर की जाती है और अपने से बड़े को सिर नमाकर की जाती है। हाथ जोड़ने से मनुष्य में समर्पण भाव जागृत होता है और सिर नमाने से अहंकार शून्यता आती है। ‘नमस्ते’ करने से आपसी सद्-भावना उत्पन्न होती है एक-दूसरे के प्रति प्रेम बढ़ता, आपस के गिले-शिकवे दूर हो जाते हैं। ‘नमस्ते’ का अर्थ है – "मैं आपका सत्कार करता हूँ" या "मैं आपको साधुवाद देता हूँ"।
वैसे भी हाथ जोड़ना और मस्तक नमाते हुए ‘नमस्ते’ (आदर-सत्कार) करना भारतीय सभ्यता और संस्कृति की देन है, धरोहर है और पहचान है। भारत की मान-आन-शान है और आर्यों (श्रेष्ठ जनों) की पहचान है। अपने से बड़ों को ‘नमस्ते’ दोनों हाथ जोड़कर हृदय से लगाते हुए और थोड़ा सा मस्तक को झुकाते हुए की जाती है और ‘नमस्ते’ का उत्तर प्रसन्नतापूर्वक देना चाहिये। आज विदेश के अनेक देशों में हाथ जोड़कर झुकने का रिवाज़ प्रचलित है तथा अनेक मत-मतान्तरों तथा सम्प्रदायों के अनुयायियों ने भी ‘नमस्ते’ कहने की परम्परा को सहर्ष अपनाया है।
क्रिश्िचयन लोग गिरिजाघरों में हाथ जोड़ते है, सिर झुकाते हैं (चाहे मूर्तियों के आगे झुकते हैं या हाथ जोड़ते हैं)। इस्लाम के अनुयायी आर्यों की तरह निराकार अल्लाह (ईश्वर) की हाथ मिलाकर बन्दगी करते हैं। कहने का तात्पर्य यही है कि चाहे कोई भी क्यों न हो (हिन्दू, मुस्िलम, सिक्ख, ईसाई .....) सभी ईश्वर की उपासना के समय हाथ जोड़ते और मस्तक झुकाते हैं तो िफर कुछ लोग, जो स्वयं को बहुत ज्ञानी-ध्यानी समझते हैं, ऐसा क्यों नहीं करते? मात्र ज्ञान प्राप्त करने से कोई ज्ञानी नहीं बनता, ज्ञान के साथ-साथ नम्रता और क्रिया (व्यवहार) भी आवश्यक होती है।
जो व्यक्ित ईश्वर के समक्ष हाथ नहीं जोड़ सकता और न ही मस्तक नवा सकता है, भला वह माता, पिता, गुरु तथा विद्वानों के आगे हाथ जोड़कर नमस्ते करता है तो वह ढौंग करता है, मात्र दिखावा ही करता है। रही बात शुभाशुभ भावनाओं की तो, इसे सर्वान्तर्यामी परमात्मा के सिवाय कोई नहीं जान सकता। यह सम्भव नहीं कि मनुष्य जैसा बाहर से दिखता है, अन्दर से भी वैसा ही हो, नहीं! मनुष्य ही मात्र ऐसा प्राणी है जो "स्वभाव से स्वार्थी प्रवृत्ति का होता है" और इस संसार में आकर प्रकृति के आकर्षण में और अधिक स्वार्थी हो जाता है। मन में कुछ और बाहर कुछ – मुँह में राम और बग़ल में छुरी, ऐसे लोगों से सावधानी बरतनी चाहिये, उनकी मीठी-मीठी बातों पर बातों में विष भरा होता है अतः ऐसे लोगों की बातों पर विश्वास करना स्वयं को धोखे में रखना है।।
आप जानते ही हैं आर्य समाजों में यज्ञोपरान्त यज्ञ-प्रर्थना अर्थात् ‘ईश-प्रार्थना’ गाते हैं - ‘यज्ञरूप प्रभे हमारे भाव उज्वल कीजिये’ और जिसके अन्त में "हाथ जोड़ झुकाएँ मस्तक वन्दना हम कर रहे" ऐसा कहते हैं। एक और प्रार्थना है "सुखी रहे संसार सब दुःखिया रहे न कोय" इस ईश-प्रार्थना के अन्त में भी लिखा है "हाथ जोड़ विनती करूँ सुनिये कृपा-निधान" क्या ये प्रार्थनाएँ वैदिक सिद्धान्तों के विरुद्ध हैं? हम मुँह से बोलें और उसे क्रिया में न लाएँ तो यह दिखावा/धोखा/कृतघ्नता नहीं? यदि उपरोक्त प्रार्थना वैदिक सिद्धान्तों के विरुद्ध है तो इसे "आर्य समाजों" में क्यों गाते हैं? आर्य समाज ही एक ऐसी सन्स्था है जहाँ सब कार्य/संस्कार वैदिक सिद्धान्तों ने अनुरूप होते हैं। वैदिक मान्यताओं को जानने और मानने वाले विद्वान कभी हाथ जोड़ने या सिर नमाने का विरोध नहीं करते और न ही करना चाहिये क्योंकि ईश्वर प्रार्थना के समय समर्पण भाव उत्पन्न करने के लिये भक्त यदि हाथ जोड़ता है और मस्तक झुकाता है तो बहुत अच्छी बात है, कोई बुराई नहीं है। कुछ लोग "हाथ जोड़ झुकाएँ मस्तक वंदना हम कर रहे" नहीं कहते उसके स्थान पर "प्रेम रस में तृप्त होकर वन्दना हम कर रहे" ऐसा गाते हैं – क्या यह ढौंग और असत्य नहीं है? ‘प्रेम रस में तृप्त’ होने वाला व्यक्ित कभी ऐसा बोल ही नहीं सकता क्योंकि प्रेमरस का अनुभव किया जाता है उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। ईश्वर वन्दना के पश्चात् ही परमात्मा का प्रेमरस प्राप्त होता है अतः "प्रेम रस में तृप्त होकर वन्दना हम कर रहे" ऐसा बालना पाखण्ड, डौंग और दिखावे के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
"सन्ध्या में विशेषतः ‘नमस्कार मन्त्रों’ में सब को चाहिये कि वे आखें बन्द करें और दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुकाएँ और मन्त्रोच्चारण करें – आप स्वयं ही आनन्द का अद्भुत् अनुभव करने लगेंगे।
स्मरण रहे! परम पिता परमात्मा को ‘विष्णु’ इसलिये कहते हैं कि कण-कण में समा रहा है, वह सदैव सब दिशाओं में एकरस विद्यमान रहता है अतः हमारे अन्तःकरण में (समक्ष-रूपेण) विद्यमान रहता है – यह प्रमाणित है। अपने मन को स्वच्छ करें तो वह परमात्मा आपको सब स्थान में, सब में दिखाई देगा अर्थात् उसका आभास होने लगेगा और यही परमात्मा का प्रत्यक्ष करना है। मन पर जमे लोकैषणा, अहंकार और स्वार्थ के आवरण को मिटाएँ तो सब कुछ स्पष्ट और सरल मालूम पड़ेगा अन्यथा आप यही कहेंगे कि परमात्मा हमारे सामने नहीं है अतः प्रार्थना के समय हाथ जोड़ना और शीश नमाना मात्र दिखावा है।
हमारे विद्वान पाठकव्न्द स्वयं निर्णय करें कि क्या हम वेद तथा आर्ष ग्रन्थों को प्रमाणित मानते हैं या िफर कुछ ऐसे लोगों के बहकावे में न आएँ क्योंकि "नीम हकीम ख़तरे जान" तथा "अधजल गगरी छलकत जाए" ऐसे लोग अपने अहंकार, हठ और दुराग्रह के कारण अपनी हानि तो करते ही हैं, दूसरों को भी अन्धश्रद्धा एवं अन्धविश्वास की अन्धेरी खाई में ढकेलते रहते हैं। हम आप महानभावों से निवेदन करते हैं कि स्व-आत्मा की वाणी को सुनें और आचरण में लावें क्योंकि सच्चे श्रेष्ठ मनुष्य का आत्मा सत्यासत्य को जानने वाला होता है।
ईश्वर सब को सर्वदा सद्-बुद्धि और मन की शान्ित प्रदान करे!
Tuesday, August 19, 2008
Time units in the Vedas by Madan Raheja
Units of Time in the Vedas
(Metrics of Time)
Sidereal metrics:
• A Paramanu is the normal interval (With regards to time, an interval is the duration between two events or occurrences of similar events. It is related to the mathematical concept of interval in that the interval contains all of the points of time between the two events) of blinking in humans, or approximately 4 seconds.
• A Vighadiya is 6 Pranamus (approximately 24 seconds)
• Aghadiya is 60 Vighadiyas (approximately 24 minutes)
• A Muhurt is equal to 2 Ghadiyas, or approximately 48 minutes.
• An important Muhurta is the Brahma Muhurta, which is on the 25th Nadiya or approximately two hours before sunrise. This time is recommended in all practices of yoga and the most appropriate for meditation)
• A Nakshatra Ahoratram or sidereal day (An apparent sidereal day (is the time it takes for the Earth to turn 360 degrees in its rotation; more precisely, is the time it takes the vernal equinox to make two successive upper meridian transit. This is slightly shorter than a solar day; there are 366.2422 sidereal days in a tropical year, but 365.2422 solar days, resulting in a sidereal day of 86,164.09 seconds (or: 23 hours, 56 minutes, 4.09 seconds) is exactly equal to 30 Muhurtas.
Note: According to Hindu belief ‘a day is considered to begin and end at sunrise and not midnight.)
Time units used in the Vedas:
• A Leekshakamu is 1/60th of a Pranamu or 1/15th of a second.
• A Lavamu is 1/60th of a Leekshakamu or 1/900th of a second.
• A Renuvu is 1/60th of a Lavamu or 1/54,000th of a second.
• A Truti is 1/60th of a Renuvu or 1/3,240,000th of a second.
Lunar metrics in the Vedas:
• A Tithi (is a lunar day, or the time it takes for the longitudinal angle between the moon and the sun to increase by 12°.
• Tithis begin at varying times of day and vary in duration from approximately 19 to approximately 26 hours. There are 30 Tithis in each lunar month).
• A Paksha or lunar fortnight consists of 15 Tithis.
• A Maas or lunar month is divided into 2 Pakshas, the one between new moon Traditionally, (the lunar phase new moon begins with the first visible crescent of the Moon, after conjunction with the Sun. This takes place over the western horizon in a brief period between sunset and moonset. Therefore the time and even the day depend on the actual geographical location of the observer) is called Gaura (bright) or Shukla Pksha; the one between full moon and new moon Krishna (dark) Paksha.
• 2 lunar months makes one Ritu. And there are six Ritus (Indian seasons) according to Hindu calendar.
The Season (Ritus):
1- Hemant i.e. pre-winter Margashiirsh to Poush (December to February)
2- Shishir i.e. Winter Maagh to Phaalgun (February to April)
3- Vasant i.e. Spring Chaitra to Vaishaakh (April to June)
4- Griishma i.e. Summer Jyesht to Aashaad June to August)
5- Varsha i.e. Rainy season Shraavan to Bhaadrapad (August to October) and
6- Sharat i.e. Autumn Aashviyuj to Kaartik (October to December).
• 3 Ritus makes an Aayanya.
• 2 Aayanas equal to one year.
• A year is the term for any period of time that is derived from the period of the orbit of the Earth (or indeed any planet) around its Sun).
Sidereal year: the actual period for the Earth to complete one revolution of its orbit, as measured in a fixed frame of reference (such as the fixed stars). Its duration is on average: 365.256363051 days.
• A day is divided into 8 Prahara and each Prahara into 6 Dandas. (Danda is equal to half an hour)
• Each Danda into 25 Laghus
• Each Laghu into 10 Kasthas
• Each Kastha into 5 Ksanas
• Each Ksana into 3 Nimeshas
• Each Nimesh into 3 Lavas
• Each Lava into 3 Vedhas and finally
• Each Vedha into 100 Trutis.
• The Truti is a very fine division of time equal in the modern way equal to 300th of a second. It is quite remarkable that the ancient sages (Rishis) of Aryavrata (India) had such a fine division of time and perhaps it can be attributed to the Vedic Philosophy, other large divisions of time to the above two along with astronomical observations.
A day is divided in:
• 10 long syllables (Gurvakshara) = 1 respiration (Prana)
• 6 respirations = 1 Vinadi
• 60 Vinadis = 1 Nadi and
• 60 Nadis = 1 day (Divas)
Smallest measure of time:
• Paramanu 60,750th of a second
• Krati 34,000th of second
• Truti 300th of a second
• Nimesh 16/75th of a second
• Vipal 2/5th of a second
• Ksan 1 second
• Pal 24 seconds
• Minute 60 seconds
• Ghadi 24 minutes
• Hora Hour 60 minutes
• Divas Day 24 hours
• Saptah 7 days (week)
• Maas 4 weeks (month)
• Varsh 12 Months (Year)
• Satabd One hundred Years (Century)
• Sahasrabd One thousand Year Millennium)
• Dev Yug 12,000 years:
Duration of Creation & Deluge of the Universe:
Time of creation is 4,32,00,00,000 earthly years and same time is set for deluge. According to the Vedas and calculation of Maharishi Manu duration of the Universe i.e. the day of Brahma is calculated as follows:
There are four Yugas; such as Kaliyuga, Dwaparyuga, Tretayuga and Satyuga.
1 Deva year = 360 earthly years.
Krita Yuga (Sat Yuga) = 4,000 Deva years or (4,000 x 360) = 1,440,000
Twilight preceding = 400 Deva years or (400 x 360 yrs) = 14,400
Twilight following = Ditto ………………………………= 14,400
Hence duration of Sat-Yuga = 1,728,000 = Treta Yuga……….= 3,000 Deva years or (3000 x 360) = 1,080,000
Twilight preceding= 300 ….Deva years or (300 x 360) = 108,000
Twilight following= 300…………Ditto………………......= 108,000
Thus duration of Treta Yuga = 1,296,000
Dwapar Yuga…..= 2,000 Deva years or (2000 x 360) = 720,000
Twilight preceding= ..200 Deva years or (200 x 360) = 72,000
Twilight following=.…………….Ditto…………….. = 72,000
……………………………….Duration of Dwapara Yuga = 864,000
Kali Yuga ………= 1000 Deva years or (1000 x 360) = 360,000
Twilight preceding= 100 Deva years or (100 x 360) = 36,000
Twilight following =……….Ditto…… = l36,000
Duration of Kali Yuga = 432,000
Four Yugas = Satyuga+Treta+Dwapar+Kaliyuga = 4,320,000 (1 Chaturyuga)
71 Chaturyugas i.e. 71 x 4,320,000 = 306,720,000 (1 Manvantra)
306,720,000 (1 Manvantra)
14 Manvantras i.e. 14 x 306,720,000 = 4,294,080,000 earthly years
Note: To this must be added 15 twilights i.e. one at the beginning of each Manvantara and one at the end of the last Manvantaras. Each such Twilight is equal to a Krita Yuga. Thus these should be added thus:
Fifteen twilights = 1,728,000 x 15 ……………….= 25,920,000
i.e. Six Chaturyugas = 4,320,000 x 6……… ..= 25,920,000
15 x 1,728,000 years (construction period for creation) = 25,920,000
Total duration of a day of Brahma i.e. 100 Chaturyugas) = 4,32,00,00,000 earthly years i.e. 432 million earthly years.
15 twilights of Manvantaras are equal to 6 four-Yugas i.e. 6 Chaturyugas.
A day of Brahma consists of 1000 Chaturyugas i.e. 71 x 14 = 994 and when 6 four-Yugas - duration of fifteen twilights added we’ll 1000 Chatauryugas called a day of Brahma. This is the duration of creation i.e. 4,32,00,00,000 worldly years.
In short:
• Kaliyuga = 43200000 (Time period of ‘Kali-Era’)
• Dwaparyuga = 86400000 (Double the time of Kaliyuga)
• Tretayuga = 129600000 (Triple the time of Kaliyuga)
• Satyuga = 172800000 (Four times Kaliyuga time)
• Now above-mentioned the four Yugas (Chaturyugas) make one Creation 4,32,00,00,000 worldly years = 1 Brahma day.
• And same years for Deluge 4,32,00,00,000 = 1 Brahma night.
• Hence 8,64,00,00,000 = Brahma day & night.
• Such 360 Brahma days & nights make one Brahma year = 31,10,40,00,00,000 worldly years. (8640000000 x 360 = 3110400000000)
• And such 100 Brahma years is the time for liberated souls which is equal 36000 times of the period of creation and dissolution of the Universe is also known as “Prant-Kaal” i.e. 8640000000 x 360 x 100 = 31,10,40,00,00,00,000 years). (Rigveda; 6.9.4 & 6.9.5 and Atharvaveda: 10.8.26)
• “Parant-Kaal” is thus (In Hindi 31 Neel, 10 Kharab and 40 Arab Varsha) i.e. 311040 billions blissful worldly years, the total period of 'Emancipation' called ‘Salvation’or 'Liberation'.
• In emancipation time (Parant-Kaal) the liberated soul enjoys God’s Bliss. This is called the “Moksha time’ in which the soul is completely free from all worldly pains & sorrows and spends full time in enjoying heavenly pleasures and can travel anywhere in the Universe.
Imp: Inquisitive readers are requested to study the Vedas and related literature to acquire eternal and authoritative knowledge to dispel ignorance that leads to happiness and in touch of Supreme Soul - God.
• God bless all our learned readers.
• Have faith in God who is always with us, within us to guide us.
Visit: http://vedicdharma.rahejas.org
(Metrics of Time)
Sidereal metrics:
• A Paramanu is the normal interval (With regards to time, an interval is the duration between two events or occurrences of similar events. It is related to the mathematical concept of interval in that the interval contains all of the points of time between the two events) of blinking in humans, or approximately 4 seconds.
• A Vighadiya is 6 Pranamus (approximately 24 seconds)
• Aghadiya is 60 Vighadiyas (approximately 24 minutes)
• A Muhurt is equal to 2 Ghadiyas, or approximately 48 minutes.
• An important Muhurta is the Brahma Muhurta, which is on the 25th Nadiya or approximately two hours before sunrise. This time is recommended in all practices of yoga and the most appropriate for meditation)
• A Nakshatra Ahoratram or sidereal day (An apparent sidereal day (is the time it takes for the Earth to turn 360 degrees in its rotation; more precisely, is the time it takes the vernal equinox to make two successive upper meridian transit. This is slightly shorter than a solar day; there are 366.2422 sidereal days in a tropical year, but 365.2422 solar days, resulting in a sidereal day of 86,164.09 seconds (or: 23 hours, 56 minutes, 4.09 seconds) is exactly equal to 30 Muhurtas.
Note: According to Hindu belief ‘a day is considered to begin and end at sunrise and not midnight.)
Time units used in the Vedas:
• A Leekshakamu is 1/60th of a Pranamu or 1/15th of a second.
• A Lavamu is 1/60th of a Leekshakamu or 1/900th of a second.
• A Renuvu is 1/60th of a Lavamu or 1/54,000th of a second.
• A Truti is 1/60th of a Renuvu or 1/3,240,000th of a second.
Lunar metrics in the Vedas:
• A Tithi (is a lunar day, or the time it takes for the longitudinal angle between the moon and the sun to increase by 12°.
• Tithis begin at varying times of day and vary in duration from approximately 19 to approximately 26 hours. There are 30 Tithis in each lunar month).
• A Paksha or lunar fortnight consists of 15 Tithis.
• A Maas or lunar month is divided into 2 Pakshas, the one between new moon Traditionally, (the lunar phase new moon begins with the first visible crescent of the Moon, after conjunction with the Sun. This takes place over the western horizon in a brief period between sunset and moonset. Therefore the time and even the day depend on the actual geographical location of the observer) is called Gaura (bright) or Shukla Pksha; the one between full moon and new moon Krishna (dark) Paksha.
• 2 lunar months makes one Ritu. And there are six Ritus (Indian seasons) according to Hindu calendar.
The Season (Ritus):
1- Hemant i.e. pre-winter Margashiirsh to Poush (December to February)
2- Shishir i.e. Winter Maagh to Phaalgun (February to April)
3- Vasant i.e. Spring Chaitra to Vaishaakh (April to June)
4- Griishma i.e. Summer Jyesht to Aashaad June to August)
5- Varsha i.e. Rainy season Shraavan to Bhaadrapad (August to October) and
6- Sharat i.e. Autumn Aashviyuj to Kaartik (October to December).
• 3 Ritus makes an Aayanya.
• 2 Aayanas equal to one year.
• A year is the term for any period of time that is derived from the period of the orbit of the Earth (or indeed any planet) around its Sun).
Sidereal year: the actual period for the Earth to complete one revolution of its orbit, as measured in a fixed frame of reference (such as the fixed stars). Its duration is on average: 365.256363051 days.
• A day is divided into 8 Prahara and each Prahara into 6 Dandas. (Danda is equal to half an hour)
• Each Danda into 25 Laghus
• Each Laghu into 10 Kasthas
• Each Kastha into 5 Ksanas
• Each Ksana into 3 Nimeshas
• Each Nimesh into 3 Lavas
• Each Lava into 3 Vedhas and finally
• Each Vedha into 100 Trutis.
• The Truti is a very fine division of time equal in the modern way equal to 300th of a second. It is quite remarkable that the ancient sages (Rishis) of Aryavrata (India) had such a fine division of time and perhaps it can be attributed to the Vedic Philosophy, other large divisions of time to the above two along with astronomical observations.
A day is divided in:
• 10 long syllables (Gurvakshara) = 1 respiration (Prana)
• 6 respirations = 1 Vinadi
• 60 Vinadis = 1 Nadi and
• 60 Nadis = 1 day (Divas)
Smallest measure of time:
• Paramanu 60,750th of a second
• Krati 34,000th of second
• Truti 300th of a second
• Nimesh 16/75th of a second
• Vipal 2/5th of a second
• Ksan 1 second
• Pal 24 seconds
• Minute 60 seconds
• Ghadi 24 minutes
• Hora Hour 60 minutes
• Divas Day 24 hours
• Saptah 7 days (week)
• Maas 4 weeks (month)
• Varsh 12 Months (Year)
• Satabd One hundred Years (Century)
• Sahasrabd One thousand Year Millennium)
• Dev Yug 12,000 years:
Duration of Creation & Deluge of the Universe:
Time of creation is 4,32,00,00,000 earthly years and same time is set for deluge. According to the Vedas and calculation of Maharishi Manu duration of the Universe i.e. the day of Brahma is calculated as follows:
There are four Yugas; such as Kaliyuga, Dwaparyuga, Tretayuga and Satyuga.
1 Deva year = 360 earthly years.
Krita Yuga (Sat Yuga) = 4,000 Deva years or (4,000 x 360) = 1,440,000
Twilight preceding = 400 Deva years or (400 x 360 yrs) = 14,400
Twilight following = Ditto ………………………………= 14,400
Hence duration of Sat-Yuga = 1,728,000 = Treta Yuga……….= 3,000 Deva years or (3000 x 360) = 1,080,000
Twilight preceding= 300 ….Deva years or (300 x 360) = 108,000
Twilight following= 300…………Ditto………………......= 108,000
Thus duration of Treta Yuga = 1,296,000
Dwapar Yuga…..= 2,000 Deva years or (2000 x 360) = 720,000
Twilight preceding= ..200 Deva years or (200 x 360) = 72,000
Twilight following=.…………….Ditto…………….. = 72,000
……………………………….Duration of Dwapara Yuga = 864,000
Kali Yuga ………= 1000 Deva years or (1000 x 360) = 360,000
Twilight preceding= 100 Deva years or (100 x 360) = 36,000
Twilight following =……….Ditto…… = l36,000
Duration of Kali Yuga = 432,000
Four Yugas = Satyuga+Treta+Dwapar+Kaliyuga = 4,320,000 (1 Chaturyuga)
71 Chaturyugas i.e. 71 x 4,320,000 = 306,720,000 (1 Manvantra)
306,720,000 (1 Manvantra)
14 Manvantras i.e. 14 x 306,720,000 = 4,294,080,000 earthly years
Note: To this must be added 15 twilights i.e. one at the beginning of each Manvantara and one at the end of the last Manvantaras. Each such Twilight is equal to a Krita Yuga. Thus these should be added thus:
Fifteen twilights = 1,728,000 x 15 ……………….= 25,920,000
i.e. Six Chaturyugas = 4,320,000 x 6……… ..= 25,920,000
15 x 1,728,000 years (construction period for creation) = 25,920,000
Total duration of a day of Brahma i.e. 100 Chaturyugas) = 4,32,00,00,000 earthly years i.e. 432 million earthly years.
15 twilights of Manvantaras are equal to 6 four-Yugas i.e. 6 Chaturyugas.
A day of Brahma consists of 1000 Chaturyugas i.e. 71 x 14 = 994 and when 6 four-Yugas - duration of fifteen twilights added we’ll 1000 Chatauryugas called a day of Brahma. This is the duration of creation i.e. 4,32,00,00,000 worldly years.
In short:
• Kaliyuga = 43200000 (Time period of ‘Kali-Era’)
• Dwaparyuga = 86400000 (Double the time of Kaliyuga)
• Tretayuga = 129600000 (Triple the time of Kaliyuga)
• Satyuga = 172800000 (Four times Kaliyuga time)
• Now above-mentioned the four Yugas (Chaturyugas) make one Creation 4,32,00,00,000 worldly years = 1 Brahma day.
• And same years for Deluge 4,32,00,00,000 = 1 Brahma night.
• Hence 8,64,00,00,000 = Brahma day & night.
• Such 360 Brahma days & nights make one Brahma year = 31,10,40,00,00,000 worldly years. (8640000000 x 360 = 3110400000000)
• And such 100 Brahma years is the time for liberated souls which is equal 36000 times of the period of creation and dissolution of the Universe is also known as “Prant-Kaal” i.e. 8640000000 x 360 x 100 = 31,10,40,00,00,00,000 years). (Rigveda; 6.9.4 & 6.9.5 and Atharvaveda: 10.8.26)
• “Parant-Kaal” is thus (In Hindi 31 Neel, 10 Kharab and 40 Arab Varsha) i.e. 311040 billions blissful worldly years, the total period of 'Emancipation' called ‘Salvation’or 'Liberation'.
• In emancipation time (Parant-Kaal) the liberated soul enjoys God’s Bliss. This is called the “Moksha time’ in which the soul is completely free from all worldly pains & sorrows and spends full time in enjoying heavenly pleasures and can travel anywhere in the Universe.
Imp: Inquisitive readers are requested to study the Vedas and related literature to acquire eternal and authoritative knowledge to dispel ignorance that leads to happiness and in touch of Supreme Soul - God.
• God bless all our learned readers.
• Have faith in God who is always with us, within us to guide us.
Visit: http://vedicdharma.rahejas.org
Unpredictable death by Madan Raheja
Death
Death is certain and unpredictable because it can come to anyone and anytime during the life time. Science cannot control or prevent it because its an eternal natural law "One who has come has to go" or "What is created will be destroyed" or "One who is born has to die" hence nothing is permanent in this created world. Yes! This creation is created will be destroyed on day.
Of course! There are three things which are 'ETERNAL' namely God, Innumerable souls and the Matter commonly known as 'Nature'. They are called Eternal (Forever) because they are never born or created hence they never die or destroyed.
Any question: madanraheja@gmail.com
Death is certain and unpredictable because it can come to anyone and anytime during the life time. Science cannot control or prevent it because its an eternal natural law "One who has come has to go" or "What is created will be destroyed" or "One who is born has to die" hence nothing is permanent in this created world. Yes! This creation is created will be destroyed on day.
Of course! There are three things which are 'ETERNAL' namely God, Innumerable souls and the Matter commonly known as 'Nature'. They are called Eternal (Forever) because they are never born or created hence they never die or destroyed.
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