Friday, May 8, 2009

Patanjali Yog and Modern Yoga

पतञ्जलि 'योग' और आधुनिक 'योगा'

आर्य समाज सान्‍ताक्रुज़ की मासिक पत्रिका "निष्‍काम परिवर्तन" (मई-2005) में प्रकाशित श्री विवेक भूषण दर्शनाचार्य जी के लेख '' को मैंने बहुत ध्‍यानपूर्वक पढ़ा और अत्‍यन्‍त प्रसन्‍नता हुई कि इस प्रकार के स्‍पष्‍टवादी, क्रान्तिन्‍कारी एवं ज्ञानवर्धक लेख समस्‍त आर्य समाजों की पत्र-पत्रिकाओं में कम ही पढ़ने को मिलते हैं। इस के लिये मैं अपनी ओर से श्री विवेक भूषण 'दर्शनाचार्य' को शुभकामनाएँ प्रदान करता हूँ और आशा करता हूँ कि वे भविष्‍य में भी अपनी लेखनी से सर्वहितार्थ मार्गदर्शन करते रहेंगे।
             हम किसी संस्‍था या व्‍यक्ति-विशेष के विरोध करने या समर्थन के लिये नहीं अपितु हमारे अनेक पाठकवृन्‍दों को 'योग तथा योगा' के वास्‍तविक स्‍वरूप का साक्षात्‍कार कराने हेतु यह लेख प्रकाशित कर रहे हैं। सत्‍य को ग्रहण करना और असत्‍य का परित्‍याग करना – यही श्रेष्‍ठ मनुष्‍य की पहचान है। यदि कोई मनुष्‍य अज्ञानता के कारण या किसी भ्रम या बहकावे में अपने लक्ष्‍य या मार्ग से भटक जाता है तो हम सभी का कर्तव्‍य है कि हम अपनी योग्‍यता के अनुसार उसका मार्गदर्शन करें – इसी से स्‍वस्‍थ समाज का निर्माण हो सकता है।
एक ओर - वित्तैषणा-ग्रसित दूरदर्शन के तथाकथित धार्मिक चैनलों ने 'धर्म' के नाम पर 'अधर्म' फैलाना अपना लक्ष्‍य बनाया हुआ है और दूसरी ओर मानव समाज में स्‍वाध्‍याय के प्रमाद का लाभ उठाते हुए तथा स्‍वार्थ एवं धन कमाने हेतु तथाकथित धार्मिक चैनलों के माध्‍यम से लोगों को गुमराह किया जा रहा है और जिसके कारण आज हमारे समाज में अनेक प्रकार के भ्रमों/भ्रान्तियों/संशयों/अन्‍धविश्‍वासों/अन्‍धश्रद्धाओं ने घर किया हुआ है जिनका समाधान/निवारण/निर्मूलन तथा मार्गदर्शन करना परमावश्‍यक है। यह कार्य समाज के अनेक विद्वानों और ब्रह्मणों का है। यह उनका कर्तव्‍य ही नहीं धर्म है। ज्ञान होने पर भी, जो व्‍यक्ति, समाज में प्रचलित भ्रमों, भ्रान्तियों इत्‍यादि को दूर करने का प्रयत्‍न नहीं करता या जन-साधारण को सचेत नहीं करता या उनका मार्गदर्शन नहीं करता, तो उनकी विद्वता का होना, न होने के समान है।
            महर्षि पतञ्जलि ने "योग दर्शन" की रचना की, जिसका उद्देश्‍य विवेकशील मनुष्‍यों को आत्‍मा-परमात्‍मा के साक्षात्‍कार करने का उपाय दर्शाना था, जो आगे चलकर "पतञ्जलि योग" के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 'योग' कहते हैं – जुड़ने को, जिसका अंग्रज़ी भाषा में शब्‍द है Yoke, Conjunction या To join अर्थात् जुड़ना। दार्शनिक भाषा में "आत्‍मा का परमात्‍मा से जुड़ने का नाम 'योग' है"। 'योग-विद्या' का प्रचलन हमारे आर्यवर्त देश (आधुनिक भारत) के सभी गुरुकुलों में प्राचीन काल से जारी रहा है और इस विद्या को सीखने के लिये समस्‍त भू-मण्‍डल से जिज्ञासु विद्यार्थीगण हमारे देश में आते रहते हैं। वर्तमान में भी भारत के अनेक गुरुकुलों में वैदिक शिक्षा के साथ-साथ "पतञ्जलि योग" की शिक्षा प्रदान की जाती है।
               पतञ्जलि योग: योग के आठ अङ्ग (भाग/स्‍तर/सी़‍ढि़याँ) हैं – जिसे "अष्‍टाङ्ग योग" कहते हैं। योग के अंगों को क्रम से अपने जीवन में धारण करने से अन्‍ितम स्‍तर पर पहुँचा जा सकता है। "पतञ्जलि योग" के आठ अङ्ग इस प्रकार हैं: यम (अहिन्‍सा, सत्‍य, अस्‍तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह – योग॰ 2/30), नियम (शौच, सन्‍तोष, तप, स्‍वाध्‍याय और ईश्वरप्रणिधान - योग॰ 2/32), आसन (योग॰ 2/46), प्राणायाम (योग॰ 2/49), प्रत्‍याहार (योग॰ 2/54), धारणा (योग॰ 3/1), ध्‍यान (योग॰ 3/2) और समाधि (योग॰ 3/3)।                       "पतञ्जलि योगदर्शन" की विस्‍तृत जानकारी हेतु 'स्‍वामी सत्‍यपति परिव्राजक' लिखित - "योगदर्शनम्" का स्‍वाध्‍याय अवश्‍य करें ।
               यदि मनुष्‍य (आत्‍मा) विशुद्ध सुख (अर्थात् दुःख-रहित सुख अर्थात् आनन्‍द) को प्राप्‍त करना चाहता है तो उसे उपरोक्‍त आठ अंगों का अभ्‍यास करना चाहिये – तभी उसको समाध्‍यावस्‍था में पहुँचने पर आत्‍मा-परमात्‍मा का साक्षात्‍कार होने लगता है और आनन्‍द की अनुभूति होती है। यही पतञ्जलि योग की उपलब्‍िध है जिसमें आत्‍मा और परमात्‍मा के स्‍वरूप को जाना जा सकता है। ईश्‍वर-प्राप्ति का और कोई उपाय/मार्ग नहीं है और यही मनुष्‍य जीवन का परम लक्ष्‍य है।
          मनुष्‍य के चित्त पर निम्‍नलिखित चौबीस प्रकार के प्रभाव पड़ते ‍हैं जिन का सीधा प्रभाव उसके स्‍वास्‍थ पर पड़ता है, वे हैं - पाँच विघ्‍न (दु:ख, दौर्मनस्‍य, अंगमेजयत्‍व, श्‍वास और प्रश्‍वास – योग:1/39), नौ विक्षेप (व्‍याधि, स्‍त्‍यान, संशय, प्रमाद, आलस्‍य, अवरति, भ्रान्‍ितदर्शन, अलब्‍ध-भूमिकत्‍व और अनवास्‍िथतत्‍व), पाँच क्‍लेश (अविद्या, अस्‍िमता, राग, द्वेष और अभिनिवेश – योग:2/3) और पाँच वृ‍त्तियाँ (प्रमाण, विपर्य, विकल्‍प, निद्रा और स्‍मृति – योग: 1/6)।
           ईश्‍वरोपासना के लिये स्‍वस्‍थ्‍य (निरोगी) शरीर का होना परमवाश्‍यक है, क्‍योंकि स्‍वस्‍थ शरीर में ही स्‍वस्‍थ आत्‍मा रहता है या इसे यूँ भी कह सकते हैं कि स्‍वास्‍थ्‍य ठीक होने पर ही ईश्‍वर की उपासना की जा सकती है अन्‍यथा नहीं। शरीर को निरोग और चुस्‍त रखने के अनेक उपाय हैं जैसे सात्‍िवक आहार-विहार का होना बहुत ज़रूरी है। सात्‍िवक खान-पान के साथ शारीरिक व्‍यायाम भी ज़रूरी है। स्‍वस्‍थ और सुन्‍दर रहना कौन नहीं चाहता? यह सत्‍य है कि मात्र प्राणायाम से अनेक मानसिक रोग ठीक हो जाते हैं और शरीरिक व्‍यायाम से शरीर गठीला बनता है तथा उसमें स्‍फ़ूर्ति आती है और शरीर को अनेक रोगों से बचाया जा सकता है। यह कुछ हद तक तो सत्‍य है परन्‍तु पूर्णरूपेण सत्‍य नहीं है क्‍योंकि मन, शरीर और आत्‍मा को पूर्ण रूप से स्‍वस्‍थ्‍य रखने के लिये और भी अनेक बातों का ध्‍यान रखना आवश्‍यक है जैसे - शुद्ध आहार-विहार के साथ शुद्ध विचार, सत्‍याचरण तथा ठीक-ठीक समय पर चिकित्‍सा। इन के अतिरिक्‍त यम और नियमों का पालन करना, परमात्‍मा की स्‍तुति, प्रार्थना, उपासनादि करना। शरीर स्‍वस्‍थ हो और मन में अशान्ति हो तो क्‍या वह मनुष्‍य स्‍वस्‍थ कहलाएगा ? कदाचित् नहीं!
             सर्वविदित है कि 'पतञ्जलि योग' को ही "अष्‍टांग योग" अथवा संक्षेप में 'योग' कहते हैं। "योग" आत्‍मा-परमात्‍मा के मिलन का नाम है, आत्‍मा-परमात्‍मा के साक्षात्‍कार करने की विधि का नाम है। जिन लागों को अष्‍टांग योग के आठों अंगों का अभ्‍यास करने का अनुभव है और समाध्‍यावस्‍था में पहँच चुके हैं अर्थात् किसी भी परिस्थिति में समाधि लगा सकते हैं - उनको "योगी" कहते हैं और एक अनुभवी 'योगी' के मार्गदर्शन से ही 'योग' सीखा जा सकता है, परन्‍तु पिछले कुछ वर्षों से कुछ तथाकथित शिक्षित/अशिक्षित, नाम के योगाचार्यों ने निजी स्‍वार्थ (वित्तैषणा और लोकैषणा) इत्‍यादि की पूर्ति के लिये 'योग' के नाम पर शरीर को स्‍वस्‍थ्‍य रखने की हठयोग की क्रियाएँ तथा 'प्राणायाम' के नाम पर स्‍वनिर्मित प्रणायाम की कक्षाएँ प्रारम्‍भ कर दी हैं, जिनका "पतञ्जलि योगदर्शन" में कहीं भी वर्णन नहीं है। ठीक है - शरीर को स्‍वस्‍थ्‍य रखने के लिये 'रोग-निवारक व्‍यायाम' सीखना/सिखाना अच्‍छी बात है तथा 'आसन' इत्‍यादि करना उससे भी बेहतर है, इसमें दो राय नहीं हो साकती और स्‍वस्‍थ्‍य रहने के लिये आवश्‍यक भी है। जिसमें जन-साधारण का लाभ हो, संसार का उपकार हो - वह सब श्रेष्‍ठ कार्य हैं।
सामान्‍यतः आसन का अर्थ होता है – Position अर्थात् स्थिति, बैठने का स्‍थान या जिस वत्र (सूती दरी) पर बैठा जाए। जिस स्थिति में मनुष्‍य बैठ सके, वह 'आसन' और जिस स्थिति में कोई लम्‍बे काल तक सुखपूर्वक बैठ सके वह 'सुखासन' कहाता है। इस प्रकार योग के आसनों को "योगासन" कहते हैं तथा शारीरिक व्‍यायाम के आसनों को "हठासन" की सकते हैं।
               यहाँ हम जन-साधारण से निवेदन करना चाहते हैं और वे अच्‍छी तरह समझ लें कि जिसे हम "योगासन" (सुखासन) कहते हैं वह "पतञ्जलि योग" का तीसरा अंग है और "प्राणायाम" चौथा अंग है। वास्‍तव में 'योगासन' और 'प्राणायाम' बिल्‍कुल पृथक वस्‍तुएँ हैं। पतञ्जलि योगानुसार "जिस आसन में सुखपूर्वक बैठकर परमात्‍मा का ध्‍यान किया जाए – वह "आसन" या "सुखासन" कहाता है। सुखासन में सीधा बैठना होता है, रीढ़ की हड्डी सीधी हो - जैसे पद्मासन, वज्र-आसन, पालती मार कर सीधे सुखपूर्वक बैठना, अस्‍वस्‍थ्‍य होने पर टेक लगाकर बैठना ...इत्‍यादि।
           'हठयोग' के सन्‍दर्भ में अनेक लोगों की ऐसी धारणा है कि हठयोग 'आयुर्वेद' का एक अंग/शाख़ा है परन्‍तु यह सोच बिल्‍कुल ग़लत है। वस्‍तव में हठयोग का मूल गन्‍थ "हठयोग प्रदीपिका" है जो 15वीं शताब्‍दी में लिखी गई और जिसके रचयिता हैं स्‍वामी गोरखनाथ के शिष्‍य 'स्‍वामी स्‍वतम् राम', जिन्‍होंने निजी अभ्‍यास के आधार निम्‍नलिखित विषयों को लिखा है: आसन, प्राणायाम, चक्र, कुण्‍डलिनी, बन्‍ध, क्रिया, श्‍सक्‍ित, नाड़ी और मुद्रादि – जो वर्तमान में 'योगा' शिविरों में प्रचलित हैं। आप सभी ने 'चॉक्‍लेट योगा' का नाम सुना होगा जो पश्चिमी देशों में प्रचलित है। "हठयोग प्रदीपिका" के अनुसार 'ह' का अर्थ सूर्य और 'ठ' का अर्थ है चन्‍द्रमा और दोनों को जोड़ का नाम हठयोग है।
जिसमें प्रायः आसनों तथा अनेक प्राणायामों के माध्‍यम से अनेक शारीरिक रोगों का निदान हो सकता है। शरीर लचीला और सुन्‍दर बनता है। 'हठ-आसन' अनेक प्रकार के होते हैं जैसे पद्मासन, भुजञ्गासन, हलासन, ताड़ासन, शीर्षासन, गोमुखासन, भद्रासन, हस्तिनिषदनासन, मयूरासन इत्‍यादि –ये सब रोगों की निवृति के लिये लाभकारी हैं परन्‍तु इन आसनों में हम सुखपूर्वक बैठकर परमात्‍मा का ध्‍यान नहीं कर सकते क्‍योंकि ईश्‍वर के ध्‍यान या उपासना के समय 'सुखासन' का होना आवश्‍यक होता है, जिसमें लम्‍बे समय तक सुखपूर्वक बैठा जा सके। अतः हठयोग का अभ्‍यास शारीर को निरोग रखने के लिये लाभकारी हो सकता है बशर्ते वह किसी सुशिक्षित अभ्‍यासी गुरु की देख-रेख में किया जाए अन्‍यथा लाभ के स्‍थान पर हानि की सम्‍भावनाएँ अधिक होती हैं और लेने के देने भी पड़ सकते हैं।
                 'प्राणायाम' के विषय में भी अनेक भ्रान्तियाँ प्रचलित हैं जिनको हम 'प्राणायाम' न कह कर 'श्‍वास-क्रिया' कहें तो अधिक उपयुक्‍त होगा। आजकल तथाकथित 'योगा शिविरों' में हठयोग के अन्‍तर्गत् अनेक प्रकार की 'श्‍वास-क्रियाएँ' जैसे कपाल-भाति, भस्त्रिका, आलोम-विलोम, षट्कर्म (नेति, न्‍यौली, धौती, गजक्रिया ..... आदि) इत्‍यादि सिखाई जाती है। कहते हैं इन के करने से अनेक लोगों को लाभ पहुँचा है – यह अच्‍छी बात है परन्‍तु एक गुरु की निगरानी में, एक साथ सैंकड़ों/हज़ारों की संख्‍या में शिविरार्थियों को लाभ मिले – असम्‍भव है क्‍योंकि वह गुरु एक समय में सब को क्रिया करते नहीं देख सकता। नतीजा क्‍या हो सकता है आप निर्णय कर सकते हैं।
"पतञ्जलि योग" हो या हठयोग की क्रियाएँ एक अभ्‍यासी गुरु (शिक्षक) के मार्गदर्शन/देख-रेख में ही करने उचित हैं। ध्‍यान रहे कि सब हठ-योगासन (शारीरिक क्रियाएँ या व्‍यायाम) सब के लिये सदा लाभकारी नहीं होते, अतः जो हठ-आसन या क्रिया, जिसे अनुकूल अथवा लाभकारी लगे, उसे करने में कोई आपत्ति या हानि नहीं है। यदि किसी आसन के करने के दौरान किसी को शरीर के किसी भी अंग में अत्‍यन्‍त पीड़ा/दर्द का अनुभव हो तो उसे तुरन्‍त रोक देना चाहिये और अपने शिक्ष्‍ाक से सम्‍पर्क करना चाहिये।
              प्राणायाम अर्थात् प्राणों का आयाम। आयाम कहते हैं – लम्‍बा करना अतः प्रणायाम का अर्थ हुआ – प्राणों को लम्‍बा करना अर्थात् प्राणों को यथाशक्ति अन्‍दर/बाहर रोके रखना और जब न रह सकें तो सामान्‍य स्थिति में आ जाना। पतञ्जलि योगदर्शन में चार प्रकार के प्राणायामों का उल्‍लेख है – 
1. बाह्य प्राणायाम (मूलेन्द्रि य को ऊपर खीचते हुए अपने श्‍वासों को यथाशक्ति बाहर निकालकर रोकना और जब घबराहट हो तो धीरे-धीरे अन्‍दर भर लेना), 
2. आभ्‍यान्‍तर प्राणायाम (श्‍वास को पूरी तरह से सीने में भरकर यथाशक्ति रोकना और घबराहट होने पर धीरे-धीरे बाहर छोड़ना), 
3. स्‍तम्‍भ्‍क प्राणायाम (जहाँ हैं, वहीं साँस को रोक देना अर्थात् जितनी साँस अन्‍दर/बाहर है उसी स्‍िथति में रहना और जब न रह सकें तो सामान्‍य स्‍िथति में आ जाना) और 
4. बरह्याभ्‍यन्‍तराक्षेपी प्राणायाम (पूरी शक्ति से साँसों को बाहर निकाल कर रोकना और जब घबराहट हो तो फिर दोबारा जो साँस अन्‍दर बची है उसे भी बाहर छोड़ना और रुकना, और घबराहट होने पर धीरे-धीरे श्‍वासों को अन्‍दर भरना। इसी प्रकार साँसों को यथा शक्ति अन्‍दर भर लेना, और जब घबराहट हो तो फिर दोबारा श्‍वासों को भीतर लेना और रोके रहना और अन्‍त में श्‍वासों को धीरे-धीरे बाहर निकालकर सामान्‍य स्थिति में आ जाना।
              उपरोक्‍त चार प्रकार के प्राणायाम से मानसिक शक्ति बढ़ती है, मन को वश में किया जा सकता है तथा मन की शान्ति प्राप्‍त होती है। मन पर नियन्‍त्रण होने से उपायसक को ध्‍यान और उपासना करने में लाभ मिलता है। और दूसरी ओर हठयोग में 'प्राणायाम' के भी अनेक प्रकार बताये जाते हैं जिनसे शारीरिक और मानसिक रोगों में लाभ पहँचता है।
                वैसे भी जन-साधारण की 'योग' में अथाह आस्‍था है परन्‍तु उन्‍हें क्‍या पता कि उनकी आस्‍था से कुछ लोग अपना उल्‍लू सीधा करने में लगे हैं। आज समाज में 'योग' के नाम पर अनेक भ्रान्तियाँ उत्‍पन्‍न हो गई हैं जिनका निराकरण करना अत्‍यन्‍तावश्‍यक है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो कहीं ऐसा न हो कि आने वाले कुछ वर्षों के पश्‍चात् लोग "विशुद्ध योग" से सदा के लिये वंचित हो जाएँ और केवल कुछ आसनों को ही 'योग' समझने लगें तथा मात्र आसन और प्राणायाम को ही योग समझने की ग़लती करें।
             सत्‍य की यही परिभाषा है के जो वस्‍तु जैसी है उसे वैसा ही कहना चाहिये परन्‍तु मुझे मजबूरन यह बात यहाँ लिखनी पड़ती है कि हमारे अनेक भारतीयों के मस्तिष्‍क में एक बात की भ्रान्ति घर किये है (इसे हम अपनी कमज़ोरी समझें या आत्‍म विश्‍वास की कमी!) कि विदेशी वस्‍तुएँ बढि़या होती हैं क्‍योंकि उस पर विदेशी लेबल लगा है। देश की 400 वर्षों की पराधीनता से हमें स्‍वतन्‍त्रता तो मिली है परन्‍तु वास्‍तविकता यही है कि हम दिलो-दिमाग़ से आज भी विदेशी वस्‍तुओं के ग़ुलाम हैं। हमारे प्राचीन योग को सीखकर विदेशियों ने इसे "योगा" कहना प्रारम्‍भ कर दिया है। योगा कोई शब्‍द नहीं है। YOG (योग) कहने में हमें लज्‍जा आती है और YOGA (योगा) कहने से हमें गर्व होता है। विदेश में रहने वाले लोग जिनकी मातृभाषा अंग्रेज़ी है उन्‍हें और राम या योग इत्‍यादि को लिखने के लिये रामा या योगा लिखना पड़ता है परन्‍तु क्‍या हमें राम या योग बालना नहीं आता या क्‍या हम अपने घरों में आपस में भी अंग्रज़ी में बात करते हैं? हमारी नकल हमारे बचचे भी करते हैं वे भी राम को रामा और योग को योगा कहते हैं। अच्‍छी बात की नकल अवश्‍य करनी चाहिये परन्‍तु अपनी शुद्ध भाषा को अशुद्ध करके बोलना – यह कहाँ की समझदारी है? यह तो अपनी संस्‍कृति और सभ्‍यता का अपमान करना है, इसे मूर्खता ही कह सकते हैं। है ना?
            "आर्य समाज" एक मात्र ऐसी संस्‍था है जहाँ ईश्‍वरकृत 'वेद' की सत्‍य विद्या पर आधारित धार्मिक, शारीरिक, सामाजिक और आत्‍मोन्‍नति के कार्यक्रमों को ही प्राथमिकता दी जाती है तथा योग (पतञ्जलि योग) के प्रशिक्षण शिविर आयोजित किये जाते हैं। ऐसे शिविरों में आने वाले जिज्ञासु शिविरा‍र्थियों के अनेक प्रश्‍नों के उत्तर तथा शंकाओं के समाधान होते हैं। मैं सब महानुभावों से विनम्र निवेदन करता हँ कि वे 'योग शिविरों' में अधिक से अधिक संख्‍या में भाग लें और योग के महत्‍व को भली-भाँति जानें।
               यह सत्‍य है कि "परिवर्तन सृष्टि का अटल नियम है" परन्‍तु सनातन वैदिक ज्ञान में परिवर्तन हो तो वह सब आर्यों (श्रेष्‍ठ चिन्‍तनशील विद्वानों) के लिये चिन्‍तन का विषय बन जाता है। सत्‍य सर्वदा सत्‍य ही रहता है, उसमें लेशमात्र भी असत्‍य मिल जाए तो वह सत्‍य नहीं रहता।
        आज वैदिक शिक्षा और 'योग' का मज़ाक उड़ाया जा रहा है ! योग के नाम पर योगा, नामदान के नाम पर स्‍वार्थ-छल-कपट, स्‍मरण के नाम पर गाना-बजाना, सत्‍संग के नाम पर पाखण्‍ड, भक्ति के नाम पर रासलीला इत्‍यादि - ये सब ही हो रहा है और हम दूरदर्शन (टी॰ वी॰) के अनेक कार्यक्रमों में पाखण्‍ड देखते हुए भी अनदेखा कर देते हैं। किसी की हानि हो या सत्‍यानाश – हमें क्‍या ? कोई डूबता है तो डूबे – इससे हमें क्‍या अन्‍तर पड़ता है? यदि हममें थोड़ी भी जागरुकता है तो हमारा कर्तव्‍य बनता है कि हम वह सत्‍य दूसरों तक भी पहुँचाएँ।                  स्‍वाध्‍याय का अर्थ यह कदाचित् नहीं है कि हम जो कुछ पढ़ें, सुनें, सीखें – वह अपने तक ही सीमित रखें अपितु उस ज्ञान को दूसरों तक भी पहँचाएँ। बन्‍धुओ! ज्ञान उपयोग करने से तथा बाँटने से ही बढ़ता है। केवल तमाशाई बनकर देखने से तो अच्‍छा है कि हम दूसरों का मार्गदर्शन कर उनका और अपना जीवन सफल बनाएँ।
          जिन आसनों के करने (योगासन अथवा हठासन) से जन-कल्‍याण होता हो – उन आसनों को करने-कराने में कोई अपत्ति नहीं होनी चाहिये। किसी को कुछ अच्‍छा लगता है तो किसी को कुछ। सब मनुष्‍यों के गुण-कर्म-स्‍वभाव भिन्‍न-भिन्‍न होते हैं इसलिये सब लोगों की विचार शक्‍ित या प्रवृत्तियों में अन्‍तर देखा जा सकता है। मनुष्‍य नही है जो साच-समझ कर सावधानी से चलता है। जहाँ से अच्‍छी बातें मिलें उन्‍हें अपनाने में ही समझदारी है। जिसको जो करना है, उसे लाख समझाने पर भी वह वही करेगा जो उसकी इच्‍छा होगी।
"श्‍व कार्यमद्य कुर्वीत पूर्वाहने चापराहिनकम्। नहि प्रतीक्षते मृत्‍युः कृतमस्‍य न वा कृतम्।।" (महाभारत)
अर्थात् जो करना हो तो कल का काम आज और दोपहर का काम प्रतःकाल ही कर डालो क्‍योंकि मृत्‍यु इस बात की प्रतीक्षा नहीं करती कि तुमने कोई कार्य पूरा किया है या नहीं? जी हाँ! "काल करे सो आज कर, आज करे सो अब। पल में प्रलय होयगी, बहुरी करैगा कब"? प्रिय सज्‍जनों! मेरे लिखने का तात्‍पर्य समझ ही गये होंगे! अत्‍योम्।। .......  मदन रहेजा