वैदिक समाधान
जितने लोग उतनी बातें! लोग तरह-तरह की बातें करते हैं तथा जो कुछ सुनते-पढ़ते या विचारते हैं उन्ही बातों को अपने ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं और उसी को वे सही मानते हैं। कुछ लोग किसी की भी बात को मानने की बात तो अलग है समझना भी नहीं चाहते। वे समझते हैं कि जो वे जानते हैं वही सही है और अपने विचारों को बदलना उचित नहीं समझते क्योंकि वे समझते हैं कि कहीं उनकी सोच ग़लत न हो जाए। यह सब उनके अपने संस्कारों, आधुनिक शिक्षा प्रणाली तथा पारिवारिक प्रभाव का ही परिणाम होता है।
आधुनिक पीढ़ी के पढ़े-लिखे लोग परमात्मा को मानते तो अवश्य हैं परन्तु उसके बारे में अधिक जानना नहीं चाहते या ऐसे वाद-विवादों में पड़ना नहीं चाहते या गूढ़ रहस्यों को जानना नहीं चाहते और यहाँ तक कि वे परमात्मा के वास्तविक स्वरूप को भी जानना नहीं चाहते क्योंकि वे अपने ज्ञान में अधिक वृद्धि करना ही नही चाहते। जितना पुस्तकों में अथवा समाचार पत्रों पढ़ते हैं, उसी को सत्य मानते हैं। सब जानते हैं, यह कोई नई बात नहीं हैं यहाँ तक कि वे अपने बड़े-बुज़ुर्गों की बातों को भी अधिक तवज्जो नहीं देते, उनका कहना है कि आखि़र इतना सब जानने की आवश्यक्ता ही क्या है। क्या इस में आधुनिक शिक्षा प्रणाली का प्रभाव है या उनके अपने संस्कारों का या कुछ और ही बात है जिसके कारण आज-कल के लोगों को भगवान में से भरोसा कम होते जा रहा है?
आधुनिक शिक्षा प्रणाली केवल भौतिकवाद की ओर जाती है। आध्यात्मिक ज्ञान से वञ्चित होने के कारण तथा पारिवारिक सुख-सुविधाओं के दबाव में आकर आधुनिक पीढ़ी के लोग सारी उम्र केवल धन और साधनों को संग्रह करने में ही जुटे रहते हैं। ऐसे लोग भौतिकवाद में ही अपने उज्वल भविष्य की कामना करते हैं। यह आधुनिक शिक्षा का प्रभाव हैं। विज्ञान को समझते और समझाते हुए लोग भी प्रायः दूसरों के बहकावे में ओर अन्धविश्वासों के घेरे में घिर जाते हैं। कभी मन्दिरों में जाते नहीं, सत्संग में जाते नहीं, सन्त-महात्माओं के सम्पर्क में आते नहीं, घर में वैदिक विद्वानों को बुलाते नहीं, कभी स्वाध्याय करते नहीं, तो इन से क्या उम्मीद की जा सकती है? और भी अनेक कारण हो सकते हैं जिनके कारण ये पढ़े-लिखे दिखने वाले लोग अनेक प्रकारों के अन्धविश्वासों तथा अन्धश्रद्धाओं में बिना सोचे-समझे, बिना तर्क किये, बिना सत्य जाने, ऐसी बेतुकी बातों पर शीघ्रता से विश्वास करने लगते हैं।
मैंने अपनी पुस्तक "वैदिक समाधान" में प्रत्येक प्रश्न का बहुत ही संक्षेप और सरल भाषा मे उत्तर देने का प्रयास किया है वरना प्रत्येक प्रश्न का विषय इतना गूढ़ है कि उस के उत्तर में अलग से एक पुस्तक लिखी जा सकती है। उसी बात को ध्यान में रखकर हमने, पाठकवृन्द की जानकारी हेतु, इस पुस्तक के अन्तिम पृष्ठों में "वैदिक धर्म" के कुछ प्रचलित सिद्धान्त और मान्यताओं का वर्णन किया है। आशा है पाठकवृन्द उसको पढ़कर समझकर अपने जीवन में अवश्य लाभ उठाएँगे और अपने विचारों से दूसरों को भी लाभान्वित करेंगे।
मनुष्य कमाता है अपने लिये, परिवार के लिये, अपनी रोज़ मर्रा की आवश्यक्ताओं की पूर्ति के लिये तथा अपने उज्वल भविष्य के लिये – यह उसकी ‘प्रकृति’ (प्रवृति या स्वभाव) है। जब वह दूसरों की कमाई पर नज़र रखता है तथा छल-कपट-धोखे से दूसरे के माल को हथिया कर अपनी आवश्यक्ताओं के लिये प्रयोग करता है तो वह उसकी ‘विकृति’ कहाती है और जब वह अपनी नेक कमाई का कुछ हिस्सा परोपकार के कार्यों में लगाता है तो वह उसकी ‘संस्कृति’ कहाती है। जो अपने सुख के लिये दूसरों की हानि करता है, ऐसा व्यक्ति मनुष्य के रूप में राक्षस प्रवृति का कहाता है। मनुष्य वही है जो अपनी नेक कमाई का कुछ निर्धारित भाग औरों की सेवा में लगाता है, ज्ी हाँ! ऐसा व्यक्ति ही सचमुच में ‘मनुष्य’ की कोटि में आता है। वैसे अपना पेट तो सभी भरते हैं परन्तु जो दूसरों के दुःख-दर्द को अपना दुःख-दर्द समझता है वास्तव में वही ‘मनुष्य’ कहाने योग्य है क्योंकि यही हमारी संस्कृति है। यही वैदिक संस्कृति है।
The Sanskrit word 'Veda' means 'Knowledge. All human-beings are born ignorant by nature hence they need proper knowledge and guidance for proper living in this world. There are four Vedas namely Rigveda, Yajurveda, Samaveda and Arharvaveda revealed by Omnipresent, Omniscient, Omnipotent GOD in the beginning of the creation for benefit and upliftment of all mankind. One must read and follow the teachings of the Vedas. For more info. visit 'Arya Samaj'. Email: madanraheja@rahejas.org
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Tuesday, September 16, 2008
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