Monday, May 11, 2009

पाखण्‍ड खिण्‍डनी पताका

"पाखण्‍ड खिण्‍डनी पताका" वह पताका है जो सर्वप्रथम ईसवी सन् 1867 में जगत्गुरु महर्षि दयानन्‍द सरस्‍वती ने हरिद्वार के कुम्‍भ मेले के शुभावसर पर फहराई थी और जिस का मुख्‍य उद्देश्‍य 'जनता को पाखण्‍डों से घिरे अन्‍धकार से निकालकर ज्ञान के प्रकाश में लाना' था। "आर्य समाज" के संस्‍थापक महर्षि दयानन्‍द सरस्‍वती (1824-1883) ने अपने जीवन काल में जहाँ भी अधर्म और पाखण्‍ड का सामना किया, वहाँ धर्म के सही स्‍वरूप और सत्‍य का प्रचार किया और पाखण्‍ड (अधर्म) का खण्‍डन किया।
यह सत्‍य है कि गिरना (‍िफसल‍ना) सरल है, सम्‍भलना समझदारी है और सम्‍भलना उठकर खड़े होना बहुत कठिन कार्य है। गिरने का कारण अज्ञानता है, सम्‍भलना पुरुषार्थ है और सम्‍भलकर उठना समझदारी (ज्ञान) है। मनुष्‍य को उन्‍नति के लिये ज्ञान और पुरुषार्थ दोनों की आवश्‍यक्‍ता पड़ती है। मनुष्‍य वही है जो अपने विवेक का प्रयोग कर, सदा उन्‍नति के मार्ग पर चलकर अपने लक्ष्‍य को प्राप्‍त करे। मनुष्‍य जीवन का लक्ष्‍य है – परमगति अर्थात् सब प्रकार के दुःखों से निवृति प्राप्‍त करना और आनन्‍द में रहना, उसके लिये असत्‍य का त्‍याग करना तथा सत्‍य को जानना अत्‍यन्‍तावश्‍यक है। "पाखण्‍ड खण्‍िडनी पताका" उसी सत्‍य का मार्गदर्शक है।
madanraheja@gmail.com
धर्मप्रेमी पाठकगण इस पुस्‍तक के शीर्षक को पढ़ कर समझ ही गए होंगे कि इस पुस्‍तक को सहजता पूर्वक पढ़ना इतना आसान नहीं होगा क्‍योंकि सत्‍य का सामना करना सब के बस की बात नहीं है, बहुत कठिन कार्य है और सत्‍य को ग्रहण करना तलवार की तेज़ धार पर नंगे पाँव चलने के बराबर होता है। कहावत है कि ‘सत्‍य कड़वा होता है’। निःसंदेह कुछ लोगों को पहली बार सत्‍य सुनने में कड़वा लगता है परन्‍तु उस सत्‍य का प्रभाव घीरे-धीरे पड़ने लगता है और कालान्‍तर में वही कड़वा सत्‍य मीठा लगने लगता है क्‍योंकि सत्‍य स्‍वाभाविक, सरल और एक होता है।
प्रत्‍यक्ष देखा गया है कि अनेक लोग आर्ष ग्रन्‍थों को पढ़ते तो हैं और अच्‍छी तरह से समझते भी हैं फिर भी वास्‍तविकताओं को मानने और अपनाने से कतराते हैं। उनके जीवन में सत्‍याचरण की एक भी झलक नहीं दिखाई नहीं देती या उनके चरित्र में कोई बदलाव नहीं आता। धार्मिक ग्रन्‍थों की तो बात ही निराली है। मनुष्‍य यदि प्रामाणित धर्मग्रन्‍थों को पढ़े, समझे और जीवन में अपनाने का प्रयास करे तो उसका इह-लोक और परलोक दोनों सुधर और सँवर सकते हैं।
वर्तमान में बाज़ार में तथाकथित धर्मिक ग्रन्‍थों की कोई कमी नहीं है, सरे आम सड़कों पर धर्म के नाम पर अनेक पुस्‍तकें बिकती हैं जिनमें अशलील बातें और आप‍ित्तजनक तस्‍वीरें भी होती हैं। उदाहरण के तौर पर पुराणों को ही लीजिये – जिनको प्राय: लोग धर्मिक ग्रन्‍थ समझते हैं – तो बताएँ हममें से कितने लोग हैं जिन्‍हों ने पुराणों के नाम सुने तो होंगे परन्‍तु क्‍या पढ़े हैं? इनमें से कुछ ऐसे भी पुराण हैं जिनको लोग, पढ़ना तो दूर की बात है, अपने घरों में रखना भी उचित नहीं समझते। पता है क्‍यों? जी हाँ। इनमें ऐसी अशलील बातें लिखी हैं कि हो सकता है कि कहीं हम वैसी हरकतें न कर बैठें और यही कारण है कि पुराणों को कोई भी अपने घरों में घुसने नहीं देता। धर्म ग्रन्‍थों में सब धार्मिक और ज्ञानवर्धक बातें होती हैं जिनको पढ़ना-पढ़ाना, सुनना-सुनाना सब लोगों का कर्तव्‍य ही नहीं, धर्म है।
धर्म और सम्‍प्रदाय में बहुत अन्‍तर होता है अत: आगे बढ़ने के पूर्व हमें धर्म और सम्‍प्रदाय या मज़हब को अच्‍छी तरह से समझना होगा तो ही हम पाखण्‍ड का खण्‍डन कर सकेंगे और सत्‍य मार्ग पर चलने का प्रयास कर सकेंगे।
धर्म: ईश्‍वरकृत होने से 'धर्म' सनातन होता है और सब मनुष्‍यों के लिये समान होता है। 'धर्म' जाति-पाति, वाद-विवाद, तथा देश, काल और परिस्‍िथति से स्‍वतन्‍त्र होता है अर्थात् वह सर्वोपरि होता है। परमात्‍मा के सं‍विधान को जानने और मानने का नाम 'धर्म है।'
 संस्‍कृत में 'धृ धारणे' धातु से धर्म शब्‍द बनता है जिसका अर्थ है – धारण करना अर्थात् वे सत्‍य और अटल सिद्धान्‍त या ईश्‍वरकृत नियम जिनके धारण करने से यह समस्‍त ब्रह्माण्‍ड थमा हुआ है और परमात्‍मा की रची सृष्‍िट के हर कार्य में जो सत्‍यरूपी नियम पूर्णरूपेण प्रत्‍येक वस्‍तु में रमा हुआ है – वह धर्म है। मनु महाराज के अनुसार 'धारणद्धर्ममित्‍याहु:' (मनु॰) अर्थात् जिसके धारण करने से किसी वस्‍तु की स्‍िथति रहती है – वह धर्म है।
 वैशेषिक दर्शनकार कहते हैं 'यतोऽभदुदयनि:श्रेयस‍िद्धि: स धर्म:' (वैशेषिक: 1/2) अर्थात् जिससे भोग और मोक्ष की सिद्धि हो – वह धर्म है।
साधारण भाषा में कहें तो मनुष्‍य का धर्म है "मनुष्‍यता" अर्थात् मनुष्‍य के स्‍वाभाविक और मौलिक गुण। मनुष्‍य के इन्‍हीं स्‍वाभाविक और मौलिक गुणों का वर्णन महर्षि मनु महाराज ने मात्र दस लक्षणों में प्रस्‍तुत किया है: –
 धृति क्षमा दमोऽस्‍तेयं शौचमिन्‍िद्रयनिग्रह। धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो: दशकं धर्मलक्षणम्॥ (मनु॰ 6/92)
अर्थात् धृति (धैर्य), क्षमा (माफ़ करना), दम (आत्‍म संयम), अस्‍तेय (चोरी न करना), शौच (स्‍वच्‍छता रखना), इन्‍िद्रयनिग्रह (अपनी इन्‍िद्रयों पर नियन्‍त्रण रखना), धीः (विवेकशीलता रखना), विद्या (ज्ञान की वृद्धि करना), सत्‍य (सत्‍याचरण करना) और अक्रोध (कभी क्रोध न करना) – ये वैदिक धर्म और मानवता ‍के दस लक्षण हैं अर्थात् जिस मनुष्‍य के जीवन में ये दस लक्षण विद्यमान होते हैं वह मनुष्‍य 'धार्मिक प्रवृति' वाला होता है।
महर्षि स्‍वामी दयानन्‍द सरस्‍वती, वर्तमान युग के क्रान्‍ितकारी समाजोद्धारक और आर्य समाज के पुरोद्धा, ने धर्म की परिभाषा सरल शब्‍दों में इस प्रकार की है:
 धर्म वह है जिसमें परस्‍पर किसी का विरोध न हो अर्थात् "धर्म" एक सार्वभौमिक वस्‍तु है जिसका किसी विशेष देश, जाति तथा काल से ख़ास सम्‍बन्‍ध नहीं होता। (सत्‍यार्थ प्रकाश)
 जो न्‍यायाचरण सबके हित का करना आदि कर्म हैं उनको "धर्म" और जो अन्‍यायचरण सबके अहित के काम हैं उनको "अधर्म" जानो। (व्‍यवहारभानु)
 जिसका स्‍वरूप ईश्‍वर की आज्ञा का यथावत् पालन, पक्षपातरहित न्‍याय सर्वहित करना है, जो कि प्रत्‍यक्षादि प्रमाणों से सुपरीक्षित और वेदोक्‍त होने से सब मनुष्‍यों के लिये एक और मानने योग्‍य है, उसको "धर्म" कहते हैं। (आर्य्योद्देश्‍यरत्‍नमाला)

मत, पन्‍थ या सम्‍प्रदाय: यह मनुष्‍य का अपना बनाया हुआ 'मत' है जिसे हम मत, मज़हब, पन्‍थ तथा सम्‍प्रदाय आदि कह सकते हैं परन्‍तु इन को 'धर्म' समझना अपनी ही मूर्खता का प्रदर्शन करना है। हिन्‍दू, मुस्‍िलम, सिक्‍ख, ईसाई, जैन, बौध, इत्‍यादि सब मत, मज़हब, सम्‍प्रदाय हैं और जो लोग (तथाकथित साधु, सन्‍त, पीर, फ़कीर, गुरु, आचार्य, महात्‍मादि) मतमतान्‍तरों पर 'धर्म' की मुहर लगाकर लागों के समक्ष पेश करते हैं और प्रचार-प्रसार करते हैं वे बहुत बड़ी ग़लती करते हैं तथा पाप के भागी बनते हैं।

पाखण्‍ड क्‍या है? धर्म की दृष्‍िट में झूठ और फ़रेब का दूसरा नाम पाखण्‍ड है। जो वेद विरुद्ध है, सत्‍य के विपरीत है और प्रकृति नियमों के‍ विपरीत है – ऐसी बातें करना या मानना पाखण्‍ड है। धर्म के नाम पर अधर्म फैलाना या धर्म की आढ़ में, ऐषणाओं (पुत्रेषणा, वित्तेषणा और लोकेषणा) की पूर्ति के लिये, दूसरों से ढौंग करना/कराना, फरेब करना/कराना, धोखाधड़ी करना/कराना, अपने शर्मनाक कुकर्मों पर पर्दा डालने के लिये पूजा के योग्‍य देवी-देवताओं तथा महापुरुषों (भगवानों) के शुद्ध-पवित्र जीवन को कलंकित करना और स्‍वरचित मनघड़त कहानियों के माध्‍यम से उनकी लाज उछालना और कलंकित करना आदि - इत्‍यादि 'पाखण्‍ड' या 'पोपलीला' कहाता है। उपरोक्‍त के अतिरिक्‍त धर्म का ग़लत ढंग से प्रचार-प्रसार करना तथा स्‍वार्थ पूर्ति हेतु जन-साधारण की भावनाओं से खिलवाड़ कर उन्‍हें ग़लत मार्ग दिखाना भी 'पाखण्‍ड' है। 'मन्‍त्र, यन्‍त्र, तन्‍त्र' का अनर्थ कर, ग़लत अर्थ निकालकर एवं ग़लत प्रयोग कर भोली-भाली जनता को लूटना आदि पाखण्‍ड की श्रेणी में आते हैं।
महर्षि दयानन्‍द सरस्‍वती, मनु-स्‍मृति के दो श्‍लोकों (4/165,166) के आधार पर पाखण्‍िडयों के लक्षण वर्णन करते हैं - "धर्म कुछ भी न करे परन्‍तु धर्म के नाम से लागों को ठगे, सर्वदा लोभ से युक्त, कपटी, संसारी मनुष्‍यों के समान अपनी बड़ाई के गपोड़े मारा करे, प्राणियों का घातक,अन्‍य से वैरबुद्धि रखनेवाला, सब अच्‍छे और बुरों से भी मेल रखे, उसको वैडालव्रति अर्थात् विड़ाल के समान धूर्त और नीच समझो। कीर्ति के लिये नीचे दृष्‍िट रखे, ईर्ष्‍यक किसी ने उस का पैसा भर अपराध किया हो तो ऐस का बदला लेने को प्राण तक तत्‍पर रहै। चाहे कपट अधर्म विश्‍वासघात क्‍यों न हो, अपना प्रयोजन साधने में चतुर, चाहे अपनी बात झूठी क्‍यों न हो परन्‍तु हठ कभी न छोड़े, झूठ-मूठ ऊपर से शीत संतोष और साधुता दिखलावे, उसको बगुले के समान नीच समझो। ऐसे-ऐसे लक्षणों वाले पाखण्‍डी होते हैं, उनका विश्वास वा सेवा कभी न करे। (स॰ प्र॰ चतुर्थसमुल्‍लास)
ऐतिहासिक रामायण तथा महाभारत की अनेक सत्‍य घटनाओं में मनमानी मिलावट कर बड़ी चतुराई से अशलीलता के साथ प्रसतुत करना, ग़लत अनहोनी बातों का प्रचार-प्रसार करना तथा जनता को गुमराह करना पाखण्‍ड है। इनके अतिरिक्‍त नये-नये मत-मज़हब-पंथ-सम्‍प्रदायों की रचना करना, प्राचीन वैदिक गुरुकुल प्रणाली को समाप्‍त करने का प्रयास करना, अवैदिक नाम-दान के बहाने ग़लत गुरु-शिष्‍य परम्‍परा का निमार्ण करना इत्‍यादि पाखण्‍ड के ही नवीनत्तम गोरख धन्‍धे प्रारम्‍भ हो गए हैं। हमारे देश में ही नहीं अपितु विश्‍व के लगभग सभी देशों में पाखण्‍ड का व्‍यापार बड़े ज़ोरों-शोरों से, खुले आम तेज़ी से फल-फूल रहा है। वर्तमान में सनातन धर्म के नाम पर अनेक पाखण्‍डी और तथाकथित बाबा, बापू, साधु, सन्‍त, पीर साहिब, फ़कीर इत्‍यादि बहुरूपियों ने अपने-अपने आश्रम/मठ/मन्‍िदरादि स्‍थापित कर रखे हैं जहाँ दिन दूनी और रात चौगुनी पाखड के जाल में साधारण जनता को फँसाया जा रहा है। धर्म तथा पूजा-पाठ के बहाने बहाने ऐसे स्‍थानों पर क्‍या-क्‍या होता है यह बताने की कोई आवश्‍यक्‍ता नहीं है क्‍योंकि इनके बारे में समाचार पत्रों में हम सभी ने बहुत कुछ पढ़ा है।
वर्तमान युग 'विज्ञान-युग' कहाता है क्‍योंकि हम समझते हैं कि हम पहले से कहीं अधिक ज्ञानवान हो चुके हैं परन्‍तु वास्‍तविक्‍ता कुछ और ही है कि हम पहले से कहीं अधिक अज्ञानी हो गए हैं। ठीक है कि विज्ञान के क्षेत्र में हमने समय की तेज़ रफ़्तार के साथ बहुत अच्छी उन्‍नति की है। हमें पहले से कहीं अधिक सुख-सुविधाओं के साधन प्राप्‍त हैं – जिसमें नि:संदेह विज्ञान का सहयोग है। हमने स्‍वयं को इन भौतिक साधनों में इतना उलझा दिया है कि हम अपने को ही भूल गए हैं और यही कारण है कि हम आध्‍यात्‍िमक क्षेत्र में हर पल और हर घड़ी दूर होते जा रहे हैं। दूसरी भाषा में कहें तो हम नास्तिक्‍ता की ओर क़दम रखते जा रहे हैं। भौतिक चकाचौंध ने हममें से सत्‍य और असत्‍य को परखने की समझ निकाल की है।
धर्म क्‍या है, अधर्म क्‍या है, सच क्‍या है और झूठ क्‍या है, सत्‍य क्‍या है और पाखण्‍ड क्‍या है – इसका हमें कुछ पता नहीं है। हम जो कुछ सुनते या पढ़ते हैं, उन बातों पर बिना सोचे-समझे या परखे विश्‍वास कर लेते हैं और अज्ञानता रूपी दल-दल में धँसते जाते हैं। बस यहीं से झूठ और अधर्म की जड़ें मज़बूत होती रहती हैं और पाखण्‍ड अंकुरित होने लगता है।
अज्ञानी मनुष्‍य स्‍वभाव से स्‍वार्थी होता है और स्‍वार्थपूर्ति के लिये वह हठ, कपट, दुराग्रह और असत्‍य का साथ नहीं छोड़ता। पद-लालसा और वाह-वाही में आकर्षित होने वाले लोंग प्रायः लोकैषणा में अन्‍धे हो जाते हैं। अपने-परायों में भेद नहीं समझते। अधर्म अपनों से दूर कर देता है – यह जानते हुए भी ऐसे लोग स्‍वयं को धर्म के अनुसासी समझते हैं। ऐसे स्‍वार्थी, हठी, कपटी, दुराग्रही तथा झूठे लोग ही पाखण्‍ड को बढ़ावा देते हैं। अत: पाखण्‍ड का खण्‍डन करना अर्थात् ढौंग-फ़रेब को नष्‍ट करना सभी विवेकशील कर्मठ मनुष्‍यों का कर्तव्‍य ही नहीं धर्म है क्‍योंकि पाखण्‍ड करने वाले पाखण्‍डीयों का भाँडा फोड़ करना ही चाहिये क्‍योंकि ऐसे पाखण्‍डी अपनी ही नहीं बल्‍िक समाज, देश और संस्‍कृति की भी हानि करते हैं। पाखण्‍डी पाप का भागी तो है ही परन्‍तु पाखण्‍ड को देखकर चुप रहने वाला, उस पाखण्‍डी से भी बड़ा गुनाह करता है और अधिक पाप का भागी होता है। ठीक ही कहा है कि ज़ुल्‍म करना पाप है परन्‍तु ज़ुल्‍म को सहना महापाप होता है। प्राय: लोग ऐसी दलीलें देते हैं कि यह हमारा काम नहीं है, हमें क्‍या, हम क्‍यों बुरा बनें? पाखण्‍ड का खण्‍डन हम क्‍यों करें?
पाखण्‍िडयों का यही कार्य है कि भोली-भाली जनता को गुमराह करना ताकि अपना उल्‍लू सीधा कर सकें। पोपलीला करके ऐसे पाखण्‍डी, स्‍वार्थी और निकम्‍मे लोग जनता को लूटते हैं, दूसरों के परिश्रम से कमाए धन को धोखे से लूटते रहें, उसमें तो सब विवेकशील महानुभावों को आपत्ति होनी चाहिये। जो लोग थोड़ी सी भी बुद्धि के मालिक हैं उन्‍हें सम्‍भल जाना चाहिये तथा औरों को भी सचेत करना चाहिये जिससे इन पाखण्‍िडयों के माया (भ्रम) जाल से बच सकें। श्रीमद्भगवद्गीता का सुभाषित है - "परिप्रश्‍नेन" (गीता: 4/34) अर्थात् प्रश्‍नोत्तर करने से ज्ञान की वृद्धि होती है। जब तक हम स्‍वाध्‍याय नहीं करते या किसी विद्वान से प्रश्‍न नहीं करते, हमें ज्ञान प्राप्‍त नहीं हो सकता।
चलिये! आप के समक्ष इन पाखण्‍िडयों के कुछ पाखण्‍डों, काले करतूतों और कुकर्मों का पर्दाफ़ाश (भाँडाफोड़) करते हैं तथा वैदिक प्रमाणों तथा तर्क के साथ उनका खण्‍डन कर सही-सही मण्‍डन करते हैं। हमारे समाज में अनेक पाखण्‍डों को फैलाने में अहम् भुमिका निभाई है – पुराणों ने। समाज मे पनप रहे अनेक अन्‍धश्रद्धाओं और अन्‍धविश्‍वासों के स्रोत भी ये पुराण ही हैं और इन सब का यदि कोई मुख्‍य कारण है तो वह है – अज्ञान। स्‍वाध्‍याय की कमी के कारण प्राय: लोग ज्ञान मार्ग से भटक जाते हैं और अज्ञान के जाल में फँस जाते हैं। धर्महीन मनुष्‍य पशु समान होता है (मनु॰)।

नोट : हम पुराणों या भागवतादि को शत-प्रति-शत प्रामाणिक अथवा ग़लत नहीं बताते क्‍योंकि इनमें जो बातें वैदिक सिद्धान्‍तानुसार लिखी हैं, वे अवश्‍य ग्रहणीय और माननीय हैं, परन्‍तु इनमें जो बातें काल्‍पनिक, मनघड़त, वेद विरुद्ध या प्रकृति नियम के विरुद्ध तथा पाखण्‍डों (झूठ, कपट, और स्‍वार्थ) से ओत-प्रोत हैं वे सब अप्रामाणित होने से अमाननीय हैं जिसे एक अल्‍प-बुद्धि रखने वाला व्‍यक्‍ित भी मान नहीं सकता। पाठकवृन्‍द इन बातों को ग़लत अर्थों में न लें।
हम किसी भी मत-मज़हब, पन्‍थ-सम्‍प्रदाय या जाति-विशेष के अनुयायीयों को गुमराह करना या उनके दिलों को तोड़ना या ठेस पहँचाना नहीं चाहते, अपितु सब को धर्म अर्थात् सत्‍य से जोड़ने का प्रयास करना चाहते हैं। सत्‍य वही है जिसमें सब का हित और सम्‍मान हो। हम सभी धर्मप्रेमी पाठकों का समान रूप से सम्‍मान करते हैं चाहे वह किसी भी देश, प्रान्‍त, जाति अथवा सम्‍प्रदाय का क्‍यों न हो। किसी भी हाल में, किसी का भी दिल दुःखाना किसी को भी अच्‍छा नहीं लगता।
सत्‍य हर काल में, हर परिस्थिति में और सब के लिये सत्‍य ही होता है। सत्‍य सरल एवं सीधा होता है अतः सब को प्रिय लगता है। सत्‍याचरण ही मनुष्‍य को परमात्‍मा से जोड़ता है और झूठ, फ़रेब, छल, कपट, धोखा, स्‍वार्थ इत्‍यादि पाखण्‍ड ही परमात्‍मा से दूर करता है। हम परम पिता परमात्‍मा से प्रार्थना करते हैं कि सब को सद्-बुद्धि, सुमति और आत्‍मशक्‍ित प्रदान करें ताकि सब सत्‍य को ग्रहण और अधर्म को त्‍यागने में तत्‍पर रहें और धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्‍ित कर अमूल्‍य मनुष्‍य योनि को सफल बना सकें ! सत्‍य ही ईश्‍वर है और ईश्‍वर ही सत्‍य है - इत्‍योम्।
विशेष: आर्य समाज के संस्‍थापक एवं युग प्रवर्तक महर्षि दयानन्‍द सरस्‍वती को स्‍व॰ विद्याशंकर शास्‍त्री ने अपने हृदय के भाव कविता के रूप में समर्पित किये हैं:

मैं दिल में "ओ३म्" जिगर में "वेद" का सामान रखता हूँ।
"वैदिक धर्म" में सब से बड़ा ईमान रखता हूँ।।
हमेशा ‍िज़न्‍दगी को बेसरो सामान रखता हूँ।
चुकाऊँ ऋण दयानन्‍द का यही अरमान रखता हूँ।।
जो पैदा जहाँ में दयानन्‍द न होते।
तो यहाँ पर किसी के क़दम भी न होते।।
ख़ुशी भी न होती अलम भी न होते।
दयानन्‍द न होते तो हम भी न होते।।
कहूँगा पीर पैग़म्‍बर से तुम रुतबे में हारे हो।
दयानन्‍द चौदवीं के चाँद थे और तुम सितारे हो।।

महर्षि दयानन्‍द बेमिसाल तेरा काम। सैकड़ों हज़ारों हाँ लाखों प्रणाम।।
संदेश तेरा पाके मैं घर-घर में कहूँगा, तकलीफ़ मुसीबत को मैं हँस-हँस के सहूँगा।
दर-दर भटकता जाऊँगा बन कर तेरा ग़ुलाम।। महर्षि दयानन्‍द.......प्रणाम।।
घर-घर में तेरे नाम का नाला करूँगा मैं, दिल को जला-जला के उजाला करूँगा मैं।
बिक जाऊँ तेरे नाम पे या हो मेरा नीलाम।। महर्षि दयानन्‍द.......प्रणाम।।
मुझ को तो दयानन्‍द ने ही चलना सिखा दिया, गिरने से पहले उसने संभलना सिखा दिया। रस्‍ता दिखा रहा है दयानन्‍द का हर क़लाम।। महर्षि दयानन्‍द.......प्रणाम।।
कहना है मेरा अबलो ये चलता ही रहूँगा, जलना हो मुक़द्दर में तो जलता ही रहूँगा। संकल्‍प कर चुका हूँ कि आराम है हराम।। महर्षि दयानन्‍द.......प्रणाम।। (साभार: स्‍व॰ विद्याशंकर शास्‍त्री)

आओ मन्‍त्रणा करें

आओ मन्‍त्रणा करें
ओ३म्। शन्‍नो मित्रः वरुणः शन्‍नो भवत्‍वर्य्यमा। शन्‍नऽइन्‍द्रो बृहस्‍पतिः शन्‍नो विष्‍णुरुक्रमः।
नमो ब्रह्मणे नमस्‍ते वायो त्‍वमेव प्रत्‍यक्षं ब्रह्मासि। त्‍वमेव प्रत्‍यक्षं ब्रह्म वदिष्‍यामि ऋतं वदिष्‍यामि सत्‍यं वदिष्‍यामि तन्‍मामवतु तद्वक्तारमवतु। अवतु माम्। अवतु वक्तारम्। ओ३म् शान्तिश्शन्तिश्‍शान्तिः
परमात्‍मा साक्षी है कि हम किसी भी तथाकथित धर्म, मत, मज़हब, पन्‍थ या जाति अथवा सम्‍प्रदाय इत्‍यादि की निन्‍दा की दृष्टि से खण्‍डन, अवहेलना, अपमान या मज़ाक करना नहीं चाहते। हमारे दिल में दुनियाँ के सभी मनुष्‍य, जीव तथा प्रणियों के लिये प्रेम, दया, करुणा और स्‍नेह है। हम किसी के मन, हृदय, आस्‍था या निचारों को दुःखी करना नहीं चाहते और न ही कभी ऐसा सोच सकते हैं। हम सब को स्‍वस्‍थ, सुखी, ख़ुशहाल, धार्मिक और सत्‍य के दर्शन कराने का प्रयास कर रहे हैं ताकि हमारे समाज में जितने भी तथाकथित, अधर्मी, नक़ली, बहुरूपिये, वित्तैषणा-रोगी साधु, संत, गुरु और धर्म के नाम पर अन्‍धविश्‍वास, अन्‍धश्रद्धा और पाखण्‍ड जैसे भयानक रोग फैलाए जा रहे हैं, उनको जनता की खुली अदालत के समक्ष लाना चाहते हैं ताकि उन पाखण्डियों को चहरे से असत्‍य का नक़ाब (पर्दा) हटा सकें। कौन नहीं चाहता कि हम पाखण्‍डों और अन्‍धविश्‍वासों से मुक्‍त हों और सत्‍यासत्‍य की जानकारी प्राप्‍त कर मन, वचन, कर्म और स्‍वभाव से धार्मिक बनें। हमारे अपने देश में ही नहीं, सारे विश्‍व में हमारे अधार्मिक पौराणिक मान्‍यताओं की वजह से हमारे हिन्‍दू समाज की देवी-देवताओं को लेकर जो मज़ाक उड़ाया जाता है उसे रोकें। हमारा कर्तव्‍य ही नहीं धर्म है कि हम अपने भाई-बहनों को, समाज में आग की भान्ति फैल रहे अनेक प्रकार के पाखण्‍डों तथा अन्‍धविश्‍वासों के रोगों से मुक्‍त कराएँ और गुमराह लोगों को सच्‍चे परमात्‍मा के दर्शन कराएँ।
हम धार्मिक विद्वानों, साधु, सन्‍तों, महात्‍माओं का हृदय की गहराइयों से आदर-सम्‍मान करते हैं। धर्म के नाम पर अधर्म का प्रचार करना अधर्म है। ईश्वर के नाम पर दुकानदारी करना, नाम दान के बदले दाम वसूली करना तथा ईश्वर के स्‍थान पर किसी और की पूजा करवाना कहाँ का धर्म है?

वैदिक संस्‍कृति और परम्‍परा में प्रत्‍येक नये कार्य प्रारम्‍भ करने से पूर्व
गणपति (परम पिता परमात्‍मा) की पूजा का विधान है। यह उचित भी है क्‍योंकि ईश्वर की कृपा से ही हमारे सम्‍पूर्ण कार्य सिद्ध होते हैं। हिन्‍दू समाज में भी सब देवी-देवताओं की पूजा से पहले गणपति की ही पूजा का विधान है क्‍योंकि गणपति (परमेश्वर) सर्वोपरि हैं।
साधारण लोग काल्‍पनिक देवी-देवताओं की मूर्तियों को देखकर ऐसा समझते हैं कि जैसे उनको मूर्ति के रूप में ईश्वर के दर्शन हो गए
परन्‍तु वास्‍तविकता तो यही है कि उनकी ऐसी धारणा मात्र एक अन्‍धविश्‍वास है। कोई भी मूर्ति, प्रतिमा, तस्‍वीर, शिल्‍पकारी जड़ वस्‍तु होती है और उसके आगे उसकी की सेवा, पूजा, अर्चना, आराधना या प्रार्थना करने से कुछ प्राप्‍त नहीं होता, मात्र अन्‍धविश्‍वास एवं अन्‍धश्रद्धा है। ईश्वर के स्‍थान पर किसी की पूजा करना पाप ही नहीं महापाप है।

मूर्ति एक प्रतीक है: हम किसी मूर्ति, तस्‍वीर, शिल्‍पकारी या प्रतिमा के विरोधी नहीं हैं क्‍योंकि मूर्तियाँ हमारी धरोहर होती हैं। हम उन मूर्तिकारों, शिल्‍पकारों एवं कलाकारों का बहुत सम्‍मान करते हैं जो अपनी कल्‍पना को कलाकृति द्वारा उभारने का प्रयास करते हैं तथा विविध प्रकार की मूर्तियों का निर्माण करते हैं। मूर्तियाँ प्रतीक मात्र होती हैं जिन के प्रदर्शन द्वारा अनकही गूढ बातों को आसानी से समझाया जाता है। लोगों के ज्ञानवर्धन का एक अनोखा उपाय है। हमारे सन्‍तानें सुसंस्‍कारी बनें इसलिये घर में मूर्तियाँ कला की दृष्टि से रखनी चाहियें परन्‍तु जिन मूर्तियों के कारण अपने ही घर में या समाज में, किसी भी प्रकार का अन्‍धविश्‍वास, अन्‍धश्रद्धा या भ्रान्तियाँ उत्‍पन्‍न होती हों, ऐसी मूर्तियों, तस्‍वीरों तथा सजावटी वस्‍तुओं को वहाँ से तुरन्‍त हटा देना चाहिये। इसी से सब के घर-परिवारों में सुख, समृद्धि, प्रेम एवं शान्ति बनी रहेगी। इस में हमारी सभ्‍यता एवं संस्‍कृति अवश्‍य सुरक्षित रहेगी।

यदि अशलील या आपत्तिजनक मूर्तियों के प्रदर्शन से किसी जाति, मत-मतान्‍तर, देश या उसकी सभ्‍यता और संस्‍कृति का निरादर होता है तो उसका समर्थन कोई भी बुद्धिजीवी नहीं कर सकता अतः उसका विरोध होना ही चाहिये।

ईश्वर चेतन में जड़ और जड़ में चेतन का अनुभव करना अज्ञान या मिथ्‍याज्ञान कहाता है। अज्ञान ही सब प्रकार के दुःखों का मूल कारण होता है। हम मूर्तियों के विरोधी कदाचित् नहीं हैं और यह भी सत्‍य है कि जिस वस्‍तु को हम बार-बार देखते हैं तो जाने-अनजाने में उस के साथ हमारी भावनाएँ भी जुड़ जाती हैं परन्‍तु भावनाओं का ग़लत प्रयोग करना उचित नहीं है। कुछ स्‍वार्थी लोगों ने साधारण लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया है, जैसे मूर्ति ही भगवान् है, मूर्ति पूजा से परमात्‍मा प्रसन्‍न होते हैं, मूर्तियाँ जीवित मनुष्‍यों की तरह खाती-पीती हैं, मूर्तियों को नहलाया जाता है, उनको भोग लगाया जाता है इत्‍यादि जिसको देखकर और सुनकर दूसरी सम्‍प्रदाय के लोग मूर्तिपूजकों का मज़ाक उड़ते हैं और उनकी भावनाओं को ठेस पहुँचाने के इरादे से मूर्तियों का निरादर और अपमान करते रहते हैं जिसके कारण आपस में लड़ाई, झगड़े, फ़साद, अनबन और अशान्ति बनी रहती है।

हम, सत्‍य सनातन वैदिक धर्म के अनुयायी, मात्र निराकार परमात्‍मा की उपासना करते हैं और उसी की पूजा करते हैं। इस का यह अर्थ कदाचित् नहीं है कि हम किसी भी परिस्थिति में मूर्तियों का अपमान या निरादर निरादर करते हैं। यदि कोई मूर्तियों का अपमान करते हैं तो सर्वप्रथम हम उसका मुँह तोड़ जवाब भी देते हैं। मूर्तियाँ भारतीय संस्‍कृति एवं सभ्‍यता की अमूल्‍य धरोहर होती हैं जिनसे हमें सबक सीखते हैं क्‍योंकि मूर्तियाँ हमें बहुत कुछ सिखाती हैं, शिक्षा प्रदान करती हैं, हमारा मार्गदर्शन करती हैं अतः उनकी निगरानी, रक्षा, सुरक्षा करना सब का कर्तव्‍य है।

भारतीय इतिहास में काल्‍पनिक मूर्तियों में जिस मूर्ति (प्रतिमा) का सर्वाधिक सम्‍मान किया ईश्वर चेतन में जड़ और जड़ में चेतन का अनुभव करना अज्ञान या मिथ्‍याज्ञान कहाता है। अज्ञान ही सब प्रकार के दुःखों का मूल कारण होता है। हम मूर्तियों के विरोधी कदाचित् नहीं हैं और यह भी सत्‍य है कि जिस वस्‍तु को हम बार-बार देखते हैं तो जाने-अनजाने में उस के साथ हमारी भावनाएँ भी जुड़ जाती हैं परन्‍तु भावनाओं का ग़लत प्रयोग करना उचित नहीं है। कुछ स्‍वार्थी लोगों ने साधारण लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया है, जैसे मूर्ति ही भगवान् है, मूर्ति पूजा सेजाता है वह गणपति है। और यह भी सत्‍य है कि जिसका हम सर्वाधिक आदर-सम्‍मान करते हैं उसी 'गणपति' की प्रतिमा का हमारे अपने ही लोगों ने इतना अधिक अपमान किया है शायद ही किसी अन्‍य का हुआ हो। राशियों के नाम पर गणपति, अलग-अलग रूप और रंगों में गणपति, भिन्‍न-भिन्‍न आसनों में गणपति, खेल-कूद करते हुए गणपति और न जाने क्‍या-क्‍या करते हैं गणपति? दर्शाया जाता है कि गणपति क्रिकेट खेल रहे हैं (बैटिंग, बॉलिंग और फ़ील्डिंग कर रहे हैं), फुटबाफल खेल रहे हैं, होली के रंगों में रंग रहे हैं, भाग रहे हैं, कूद रहे हैं, और तो और बच्‍चों के मनोरञ्जन के नाम पर 'बाल गणपति' पर अनेक ऍनीमेशन चल-चित्र भी बने हैं। गणपति की प्रतिमा हास्‍य का विषय नहीं है अपितु सर्वाधिक शोधनीय विषय है। और तो और जिसकी पूजा सारा संसार करता है उसी गणपति के भिन्‍न-भिन्‍न प्रकार के खिलौने बनाए जाते हैं। क्‍या आपने कभी किसी अन्‍य मत-मतान्‍तर (मुस्लिम, ईसाई, सिक्‍ख इत्‍यादि) के अनुयायीओं को, उनके किसी देवी-देवता या गुरुजनों की प्रतिमाओं की इतनी बुरी दुर्दशा होते देखी है? कदाचित् नहीं! और न ही कभी देखेंगे क्‍योंकि अन्‍य तथाकथित धर्म के लोग अपने देवी-देवताओं का आदर करना जानते हैं अतः किस की मजाल है कि वे ऐसे घिनौने कार्य करे! हम जिसे अपना देवता और कुलदेवता मानते हैं, उसी के साथ इतना खिलवाड़ हो रहा है। ऐसा क्‍यों? क्‍योंकि हम सब उसमें शामिल हैं! प्रत्‍येक त्‍यौहारों के नाम पर गणपति को किसी न किसी रूप में दिखाया जाता है। आज-कल एक और नया पाखण्‍ड चल पड़ा है कि दिवाली के अवसर पर यदि आप अपनी राशि के अनुसार गणपति की प्रतिमा को घर में रखते हैं तो आपकी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाएँगी। धन बटोरने की बीमारी (लालच में हम क्‍या-क्‍या हरकतें करते हैं, यहाँ तक कि अपने ही भगवानों (देवी-देवताओं) का मज़ाक उड़ाते रहते हैं। चल चित्रों के माध्‍यम से स्‍वर्ग और नर्क का मज़ाक उड़ाया जाता है तथा ऐसे अनेक दृष्‍य एवं काल्‍पनिक कहानियाँ दर्शाकर हमारी हिन्‍दू संस्‍कृति की खिल्‍ली उड़ाई जाती है, अवहेलना की जाती है और हम उसमें प्रसन्‍न होते हैं।

मूर्ति भगवान् नहीं: मूर्तियाँ बनाने वाले ही प्रायः मूर्तियों को तोड़ा करतें हैं। विद्वान लोग मूर्तियाँ तोड़ते नहीं, जोड़ते हैं, उसकी सुरक्षा करते हैं। जो लोग ईर्ष्‍या, द्वेष तथा अपमान की भावना से किसी व्‍यक्ति-विशेष अथवा ऐतिहासिक मूर्तियों का निरादर करते या तोड़ते हैं ऐसे लोग अन्तिम श्रेणी के मानसिक रोगी होते हैं। अमानुषता की श्रेणी को भी लाँघ जाते हैं।

ध्‍यान रहे कि ईश्वर सर्वव्‍यापक है, ज़र्रे-ज़र्रे में विद्यमान है, मूर्ति में भी है परन्‍तु इसका अर्थ यह नहीं कि हमें मूर्तिपूजा करनी चाहिये, कदाचित् नहीं। माना ईश्वर मूर्ति में भी है परन्‍तु क्‍या हम मूर्ति में प्रवेश कर सकते हैं या वह परमात्‍मा मूर्ति के बाहर आ सकता है? नहीं! अतः ईश्वर से मिलने का एकमात्र स्‍थान वही हो सकता है जहाँ हम भी हों और हमारा परमात्‍मा भी विद्यमान हो। दर्शन दृष्ट और दृष्टा का होता है यदि दोनों आमने-सामने एक ही स्‍थान में विद्यमान हों। वह एकमात्र स्‍थान है - हमारा अन्‍तःकरण (मन) जहाँ आत्‍मा के साथ-साथ परमात्‍मा भी विराजमान होते हैं। ज़रा अपनी आँखें बन्‍द कीजिये, श्रद्धा और प्रेम से उस निराकार परमेश्वर का ध्‍यान कीजिये तत्‍काल उस निराकार प्रभु के दर्शन हो जाएँगे। ईश्वर का कोई रूप, रंग, आकार या प्रकार नहीं होता। आनन्‍द की अनुभूति ही परमात्‍मा का साक्षात्‍कार कहाता है।

मनष्‍य का आत्‍मा सत्‍यासत्‍य को जानने वाला होता है। हम सत्‍य को त्‍याग कर असत्‍य की ओर भाग रहे हैं। ईश्वर ने मनुष्‍य को विवेक अर्थात् सत्‍य और असत्‍य को जानने का यन्‍त्र प्रदान किया है। यदि हम ईश्वर के दिये इस अनमोल यन्‍त्र विवेक का प्रयोग नहीं करते तो इससे हम अपनी हानि तो करते ही हैं साथ में दूसरों की भी हानि करते हैं और यही कारण है कि अधिकतर मनुष्‍य, मनुष्‍य होते हुए भी पशुओं की भान्ति जीते हैं और मर जाते हैं। स्‍वयं से पूछें कि क्‍या हम मनुष्‍य (कहाने योग्‍य) हैं? विवेक होते हुए भी क्‍या हम विवेकशीलता से कार्य करते हैं? ईश्वर प्रदत्त वेद (ज्ञान-विज्ञान) को जानने का प्रयास करते हैं? प्रत्‍येक बात को विवेक रूपी कसौटी पर परखते हैं? सत्‍यासत्‍य का निर्णय करते हैं? वेद एवं आर्ष ग्रन्‍थों का नियमित स्‍वाध्‍याय करते हैं? यदि हाँ! तो क्‍या हम अपने अन्‍दर की बात सुनते हैं? हम सत्‍य को जानते हुए भी असत्‍य को क्‍यों मानते हैं? आख़िर हम कब तक ग़फ़लत की नींद में सोते रहेंगे? हमारी अज्ञानता की नींद कब खुलेगी? हम सत्‍य बात को कहने से डरते क्‍यों हैं? किस से डरते हैं हम? क्‍या हमको अपने परम पिता परमात्‍मा पर भरोसा नहीं है? क्‍या हमें ईश्वर की न्‍यायव्‍यवस्‍था पर संशय है? बाज़ारू बाबाओं के चकर में आकर जन्‍म-मरण के चकर में कब तक चकराते रहेंगे? असली को छोड़कर कब तक नकली के पीछे भागते रहेंगे? स्‍वयं को कब तक धोखा देते रहोगे? सत्‍य को जानते हुए भी हम कब तक पत्‍थरों के आगे हाथ जोड़ते रहेंगे? हम कब गणपति के सत्‍य स्‍वरूप को समझेंगे? पत्‍थर को पूजते-पूजते क्‍या हम भी पत्‍थर तो नहीं हो गए हैं?

मेरी प्रिय मित्रों तथा जिज्ञासु पाठकवृन्‍द से करबद्ध विनम्र प्रार्थना है कि किसी के कहे-सुने या देखे को बिना परीक्षण के कभी न मानें! पहले सत्‍य को जानें, फिर मानें! वेदानुकूल आचरण करें! इसी में सब की भलाई है। स्‍वयं ईश्वर आकर आप की सहायता नहीं करेगा! अपनी सहायता स्‍वयं को ही करनी पड़ती है और यही सोलह आने सत्‍य कहावत है कि जो मनुष्‍य स्‍वयं की सहायता करने में कोई कसर नहीं छोड़ता, परमात्‍मा अवश्‍य ही उसकी सहायता करते हैं।
आपकी प्रतिक्रिया आवश्‍यक है।

Friday, May 8, 2009

Patanjali Yog and Modern Yoga

पतञ्जलि 'योग' और आधुनिक 'योगा'

आर्य समाज सान्‍ताक्रुज़ की मासिक पत्रिका "निष्‍काम परिवर्तन" (मई-2005) में प्रकाशित श्री विवेक भूषण दर्शनाचार्य जी के लेख '' को मैंने बहुत ध्‍यानपूर्वक पढ़ा और अत्‍यन्‍त प्रसन्‍नता हुई कि इस प्रकार के स्‍पष्‍टवादी, क्रान्तिन्‍कारी एवं ज्ञानवर्धक लेख समस्‍त आर्य समाजों की पत्र-पत्रिकाओं में कम ही पढ़ने को मिलते हैं। इस के लिये मैं अपनी ओर से श्री विवेक भूषण 'दर्शनाचार्य' को शुभकामनाएँ प्रदान करता हूँ और आशा करता हूँ कि वे भविष्‍य में भी अपनी लेखनी से सर्वहितार्थ मार्गदर्शन करते रहेंगे।
             हम किसी संस्‍था या व्‍यक्ति-विशेष के विरोध करने या समर्थन के लिये नहीं अपितु हमारे अनेक पाठकवृन्‍दों को 'योग तथा योगा' के वास्‍तविक स्‍वरूप का साक्षात्‍कार कराने हेतु यह लेख प्रकाशित कर रहे हैं। सत्‍य को ग्रहण करना और असत्‍य का परित्‍याग करना – यही श्रेष्‍ठ मनुष्‍य की पहचान है। यदि कोई मनुष्‍य अज्ञानता के कारण या किसी भ्रम या बहकावे में अपने लक्ष्‍य या मार्ग से भटक जाता है तो हम सभी का कर्तव्‍य है कि हम अपनी योग्‍यता के अनुसार उसका मार्गदर्शन करें – इसी से स्‍वस्‍थ समाज का निर्माण हो सकता है।
एक ओर - वित्तैषणा-ग्रसित दूरदर्शन के तथाकथित धार्मिक चैनलों ने 'धर्म' के नाम पर 'अधर्म' फैलाना अपना लक्ष्‍य बनाया हुआ है और दूसरी ओर मानव समाज में स्‍वाध्‍याय के प्रमाद का लाभ उठाते हुए तथा स्‍वार्थ एवं धन कमाने हेतु तथाकथित धार्मिक चैनलों के माध्‍यम से लोगों को गुमराह किया जा रहा है और जिसके कारण आज हमारे समाज में अनेक प्रकार के भ्रमों/भ्रान्तियों/संशयों/अन्‍धविश्‍वासों/अन्‍धश्रद्धाओं ने घर किया हुआ है जिनका समाधान/निवारण/निर्मूलन तथा मार्गदर्शन करना परमावश्‍यक है। यह कार्य समाज के अनेक विद्वानों और ब्रह्मणों का है। यह उनका कर्तव्‍य ही नहीं धर्म है। ज्ञान होने पर भी, जो व्‍यक्ति, समाज में प्रचलित भ्रमों, भ्रान्तियों इत्‍यादि को दूर करने का प्रयत्‍न नहीं करता या जन-साधारण को सचेत नहीं करता या उनका मार्गदर्शन नहीं करता, तो उनकी विद्वता का होना, न होने के समान है।
            महर्षि पतञ्जलि ने "योग दर्शन" की रचना की, जिसका उद्देश्‍य विवेकशील मनुष्‍यों को आत्‍मा-परमात्‍मा के साक्षात्‍कार करने का उपाय दर्शाना था, जो आगे चलकर "पतञ्जलि योग" के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 'योग' कहते हैं – जुड़ने को, जिसका अंग्रज़ी भाषा में शब्‍द है Yoke, Conjunction या To join अर्थात् जुड़ना। दार्शनिक भाषा में "आत्‍मा का परमात्‍मा से जुड़ने का नाम 'योग' है"। 'योग-विद्या' का प्रचलन हमारे आर्यवर्त देश (आधुनिक भारत) के सभी गुरुकुलों में प्राचीन काल से जारी रहा है और इस विद्या को सीखने के लिये समस्‍त भू-मण्‍डल से जिज्ञासु विद्यार्थीगण हमारे देश में आते रहते हैं। वर्तमान में भी भारत के अनेक गुरुकुलों में वैदिक शिक्षा के साथ-साथ "पतञ्जलि योग" की शिक्षा प्रदान की जाती है।
               पतञ्जलि योग: योग के आठ अङ्ग (भाग/स्‍तर/सी़‍ढि़याँ) हैं – जिसे "अष्‍टाङ्ग योग" कहते हैं। योग के अंगों को क्रम से अपने जीवन में धारण करने से अन्‍ितम स्‍तर पर पहुँचा जा सकता है। "पतञ्जलि योग" के आठ अङ्ग इस प्रकार हैं: यम (अहिन्‍सा, सत्‍य, अस्‍तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह – योग॰ 2/30), नियम (शौच, सन्‍तोष, तप, स्‍वाध्‍याय और ईश्वरप्रणिधान - योग॰ 2/32), आसन (योग॰ 2/46), प्राणायाम (योग॰ 2/49), प्रत्‍याहार (योग॰ 2/54), धारणा (योग॰ 3/1), ध्‍यान (योग॰ 3/2) और समाधि (योग॰ 3/3)।                       "पतञ्जलि योगदर्शन" की विस्‍तृत जानकारी हेतु 'स्‍वामी सत्‍यपति परिव्राजक' लिखित - "योगदर्शनम्" का स्‍वाध्‍याय अवश्‍य करें ।
               यदि मनुष्‍य (आत्‍मा) विशुद्ध सुख (अर्थात् दुःख-रहित सुख अर्थात् आनन्‍द) को प्राप्‍त करना चाहता है तो उसे उपरोक्‍त आठ अंगों का अभ्‍यास करना चाहिये – तभी उसको समाध्‍यावस्‍था में पहुँचने पर आत्‍मा-परमात्‍मा का साक्षात्‍कार होने लगता है और आनन्‍द की अनुभूति होती है। यही पतञ्जलि योग की उपलब्‍िध है जिसमें आत्‍मा और परमात्‍मा के स्‍वरूप को जाना जा सकता है। ईश्‍वर-प्राप्ति का और कोई उपाय/मार्ग नहीं है और यही मनुष्‍य जीवन का परम लक्ष्‍य है।
          मनुष्‍य के चित्त पर निम्‍नलिखित चौबीस प्रकार के प्रभाव पड़ते ‍हैं जिन का सीधा प्रभाव उसके स्‍वास्‍थ पर पड़ता है, वे हैं - पाँच विघ्‍न (दु:ख, दौर्मनस्‍य, अंगमेजयत्‍व, श्‍वास और प्रश्‍वास – योग:1/39), नौ विक्षेप (व्‍याधि, स्‍त्‍यान, संशय, प्रमाद, आलस्‍य, अवरति, भ्रान्‍ितदर्शन, अलब्‍ध-भूमिकत्‍व और अनवास्‍िथतत्‍व), पाँच क्‍लेश (अविद्या, अस्‍िमता, राग, द्वेष और अभिनिवेश – योग:2/3) और पाँच वृ‍त्तियाँ (प्रमाण, विपर्य, विकल्‍प, निद्रा और स्‍मृति – योग: 1/6)।
           ईश्‍वरोपासना के लिये स्‍वस्‍थ्‍य (निरोगी) शरीर का होना परमवाश्‍यक है, क्‍योंकि स्‍वस्‍थ शरीर में ही स्‍वस्‍थ आत्‍मा रहता है या इसे यूँ भी कह सकते हैं कि स्‍वास्‍थ्‍य ठीक होने पर ही ईश्‍वर की उपासना की जा सकती है अन्‍यथा नहीं। शरीर को निरोग और चुस्‍त रखने के अनेक उपाय हैं जैसे सात्‍िवक आहार-विहार का होना बहुत ज़रूरी है। सात्‍िवक खान-पान के साथ शारीरिक व्‍यायाम भी ज़रूरी है। स्‍वस्‍थ और सुन्‍दर रहना कौन नहीं चाहता? यह सत्‍य है कि मात्र प्राणायाम से अनेक मानसिक रोग ठीक हो जाते हैं और शरीरिक व्‍यायाम से शरीर गठीला बनता है तथा उसमें स्‍फ़ूर्ति आती है और शरीर को अनेक रोगों से बचाया जा सकता है। यह कुछ हद तक तो सत्‍य है परन्‍तु पूर्णरूपेण सत्‍य नहीं है क्‍योंकि मन, शरीर और आत्‍मा को पूर्ण रूप से स्‍वस्‍थ्‍य रखने के लिये और भी अनेक बातों का ध्‍यान रखना आवश्‍यक है जैसे - शुद्ध आहार-विहार के साथ शुद्ध विचार, सत्‍याचरण तथा ठीक-ठीक समय पर चिकित्‍सा। इन के अतिरिक्‍त यम और नियमों का पालन करना, परमात्‍मा की स्‍तुति, प्रार्थना, उपासनादि करना। शरीर स्‍वस्‍थ हो और मन में अशान्ति हो तो क्‍या वह मनुष्‍य स्‍वस्‍थ कहलाएगा ? कदाचित् नहीं!
             सर्वविदित है कि 'पतञ्जलि योग' को ही "अष्‍टांग योग" अथवा संक्षेप में 'योग' कहते हैं। "योग" आत्‍मा-परमात्‍मा के मिलन का नाम है, आत्‍मा-परमात्‍मा के साक्षात्‍कार करने की विधि का नाम है। जिन लागों को अष्‍टांग योग के आठों अंगों का अभ्‍यास करने का अनुभव है और समाध्‍यावस्‍था में पहँच चुके हैं अर्थात् किसी भी परिस्थिति में समाधि लगा सकते हैं - उनको "योगी" कहते हैं और एक अनुभवी 'योगी' के मार्गदर्शन से ही 'योग' सीखा जा सकता है, परन्‍तु पिछले कुछ वर्षों से कुछ तथाकथित शिक्षित/अशिक्षित, नाम के योगाचार्यों ने निजी स्‍वार्थ (वित्तैषणा और लोकैषणा) इत्‍यादि की पूर्ति के लिये 'योग' के नाम पर शरीर को स्‍वस्‍थ्‍य रखने की हठयोग की क्रियाएँ तथा 'प्राणायाम' के नाम पर स्‍वनिर्मित प्रणायाम की कक्षाएँ प्रारम्‍भ कर दी हैं, जिनका "पतञ्जलि योगदर्शन" में कहीं भी वर्णन नहीं है। ठीक है - शरीर को स्‍वस्‍थ्‍य रखने के लिये 'रोग-निवारक व्‍यायाम' सीखना/सिखाना अच्‍छी बात है तथा 'आसन' इत्‍यादि करना उससे भी बेहतर है, इसमें दो राय नहीं हो साकती और स्‍वस्‍थ्‍य रहने के लिये आवश्‍यक भी है। जिसमें जन-साधारण का लाभ हो, संसार का उपकार हो - वह सब श्रेष्‍ठ कार्य हैं।
सामान्‍यतः आसन का अर्थ होता है – Position अर्थात् स्थिति, बैठने का स्‍थान या जिस वत्र (सूती दरी) पर बैठा जाए। जिस स्थिति में मनुष्‍य बैठ सके, वह 'आसन' और जिस स्थिति में कोई लम्‍बे काल तक सुखपूर्वक बैठ सके वह 'सुखासन' कहाता है। इस प्रकार योग के आसनों को "योगासन" कहते हैं तथा शारीरिक व्‍यायाम के आसनों को "हठासन" की सकते हैं।
               यहाँ हम जन-साधारण से निवेदन करना चाहते हैं और वे अच्‍छी तरह समझ लें कि जिसे हम "योगासन" (सुखासन) कहते हैं वह "पतञ्जलि योग" का तीसरा अंग है और "प्राणायाम" चौथा अंग है। वास्‍तव में 'योगासन' और 'प्राणायाम' बिल्‍कुल पृथक वस्‍तुएँ हैं। पतञ्जलि योगानुसार "जिस आसन में सुखपूर्वक बैठकर परमात्‍मा का ध्‍यान किया जाए – वह "आसन" या "सुखासन" कहाता है। सुखासन में सीधा बैठना होता है, रीढ़ की हड्डी सीधी हो - जैसे पद्मासन, वज्र-आसन, पालती मार कर सीधे सुखपूर्वक बैठना, अस्‍वस्‍थ्‍य होने पर टेक लगाकर बैठना ...इत्‍यादि।
           'हठयोग' के सन्‍दर्भ में अनेक लोगों की ऐसी धारणा है कि हठयोग 'आयुर्वेद' का एक अंग/शाख़ा है परन्‍तु यह सोच बिल्‍कुल ग़लत है। वस्‍तव में हठयोग का मूल गन्‍थ "हठयोग प्रदीपिका" है जो 15वीं शताब्‍दी में लिखी गई और जिसके रचयिता हैं स्‍वामी गोरखनाथ के शिष्‍य 'स्‍वामी स्‍वतम् राम', जिन्‍होंने निजी अभ्‍यास के आधार निम्‍नलिखित विषयों को लिखा है: आसन, प्राणायाम, चक्र, कुण्‍डलिनी, बन्‍ध, क्रिया, श्‍सक्‍ित, नाड़ी और मुद्रादि – जो वर्तमान में 'योगा' शिविरों में प्रचलित हैं। आप सभी ने 'चॉक्‍लेट योगा' का नाम सुना होगा जो पश्चिमी देशों में प्रचलित है। "हठयोग प्रदीपिका" के अनुसार 'ह' का अर्थ सूर्य और 'ठ' का अर्थ है चन्‍द्रमा और दोनों को जोड़ का नाम हठयोग है।
जिसमें प्रायः आसनों तथा अनेक प्राणायामों के माध्‍यम से अनेक शारीरिक रोगों का निदान हो सकता है। शरीर लचीला और सुन्‍दर बनता है। 'हठ-आसन' अनेक प्रकार के होते हैं जैसे पद्मासन, भुजञ्गासन, हलासन, ताड़ासन, शीर्षासन, गोमुखासन, भद्रासन, हस्तिनिषदनासन, मयूरासन इत्‍यादि –ये सब रोगों की निवृति के लिये लाभकारी हैं परन्‍तु इन आसनों में हम सुखपूर्वक बैठकर परमात्‍मा का ध्‍यान नहीं कर सकते क्‍योंकि ईश्‍वर के ध्‍यान या उपासना के समय 'सुखासन' का होना आवश्‍यक होता है, जिसमें लम्‍बे समय तक सुखपूर्वक बैठा जा सके। अतः हठयोग का अभ्‍यास शारीर को निरोग रखने के लिये लाभकारी हो सकता है बशर्ते वह किसी सुशिक्षित अभ्‍यासी गुरु की देख-रेख में किया जाए अन्‍यथा लाभ के स्‍थान पर हानि की सम्‍भावनाएँ अधिक होती हैं और लेने के देने भी पड़ सकते हैं।
                 'प्राणायाम' के विषय में भी अनेक भ्रान्तियाँ प्रचलित हैं जिनको हम 'प्राणायाम' न कह कर 'श्‍वास-क्रिया' कहें तो अधिक उपयुक्‍त होगा। आजकल तथाकथित 'योगा शिविरों' में हठयोग के अन्‍तर्गत् अनेक प्रकार की 'श्‍वास-क्रियाएँ' जैसे कपाल-भाति, भस्त्रिका, आलोम-विलोम, षट्कर्म (नेति, न्‍यौली, धौती, गजक्रिया ..... आदि) इत्‍यादि सिखाई जाती है। कहते हैं इन के करने से अनेक लोगों को लाभ पहुँचा है – यह अच्‍छी बात है परन्‍तु एक गुरु की निगरानी में, एक साथ सैंकड़ों/हज़ारों की संख्‍या में शिविरार्थियों को लाभ मिले – असम्‍भव है क्‍योंकि वह गुरु एक समय में सब को क्रिया करते नहीं देख सकता। नतीजा क्‍या हो सकता है आप निर्णय कर सकते हैं।
"पतञ्जलि योग" हो या हठयोग की क्रियाएँ एक अभ्‍यासी गुरु (शिक्षक) के मार्गदर्शन/देख-रेख में ही करने उचित हैं। ध्‍यान रहे कि सब हठ-योगासन (शारीरिक क्रियाएँ या व्‍यायाम) सब के लिये सदा लाभकारी नहीं होते, अतः जो हठ-आसन या क्रिया, जिसे अनुकूल अथवा लाभकारी लगे, उसे करने में कोई आपत्ति या हानि नहीं है। यदि किसी आसन के करने के दौरान किसी को शरीर के किसी भी अंग में अत्‍यन्‍त पीड़ा/दर्द का अनुभव हो तो उसे तुरन्‍त रोक देना चाहिये और अपने शिक्ष्‍ाक से सम्‍पर्क करना चाहिये।
              प्राणायाम अर्थात् प्राणों का आयाम। आयाम कहते हैं – लम्‍बा करना अतः प्रणायाम का अर्थ हुआ – प्राणों को लम्‍बा करना अर्थात् प्राणों को यथाशक्ति अन्‍दर/बाहर रोके रखना और जब न रह सकें तो सामान्‍य स्थिति में आ जाना। पतञ्जलि योगदर्शन में चार प्रकार के प्राणायामों का उल्‍लेख है – 
1. बाह्य प्राणायाम (मूलेन्द्रि य को ऊपर खीचते हुए अपने श्‍वासों को यथाशक्ति बाहर निकालकर रोकना और जब घबराहट हो तो धीरे-धीरे अन्‍दर भर लेना), 
2. आभ्‍यान्‍तर प्राणायाम (श्‍वास को पूरी तरह से सीने में भरकर यथाशक्ति रोकना और घबराहट होने पर धीरे-धीरे बाहर छोड़ना), 
3. स्‍तम्‍भ्‍क प्राणायाम (जहाँ हैं, वहीं साँस को रोक देना अर्थात् जितनी साँस अन्‍दर/बाहर है उसी स्‍िथति में रहना और जब न रह सकें तो सामान्‍य स्‍िथति में आ जाना) और 
4. बरह्याभ्‍यन्‍तराक्षेपी प्राणायाम (पूरी शक्ति से साँसों को बाहर निकाल कर रोकना और जब घबराहट हो तो फिर दोबारा जो साँस अन्‍दर बची है उसे भी बाहर छोड़ना और रुकना, और घबराहट होने पर धीरे-धीरे श्‍वासों को अन्‍दर भरना। इसी प्रकार साँसों को यथा शक्ति अन्‍दर भर लेना, और जब घबराहट हो तो फिर दोबारा श्‍वासों को भीतर लेना और रोके रहना और अन्‍त में श्‍वासों को धीरे-धीरे बाहर निकालकर सामान्‍य स्थिति में आ जाना।
              उपरोक्‍त चार प्रकार के प्राणायाम से मानसिक शक्ति बढ़ती है, मन को वश में किया जा सकता है तथा मन की शान्ति प्राप्‍त होती है। मन पर नियन्‍त्रण होने से उपायसक को ध्‍यान और उपासना करने में लाभ मिलता है। और दूसरी ओर हठयोग में 'प्राणायाम' के भी अनेक प्रकार बताये जाते हैं जिनसे शारीरिक और मानसिक रोगों में लाभ पहँचता है।
                वैसे भी जन-साधारण की 'योग' में अथाह आस्‍था है परन्‍तु उन्‍हें क्‍या पता कि उनकी आस्‍था से कुछ लोग अपना उल्‍लू सीधा करने में लगे हैं। आज समाज में 'योग' के नाम पर अनेक भ्रान्तियाँ उत्‍पन्‍न हो गई हैं जिनका निराकरण करना अत्‍यन्‍तावश्‍यक है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो कहीं ऐसा न हो कि आने वाले कुछ वर्षों के पश्‍चात् लोग "विशुद्ध योग" से सदा के लिये वंचित हो जाएँ और केवल कुछ आसनों को ही 'योग' समझने लगें तथा मात्र आसन और प्राणायाम को ही योग समझने की ग़लती करें।
             सत्‍य की यही परिभाषा है के जो वस्‍तु जैसी है उसे वैसा ही कहना चाहिये परन्‍तु मुझे मजबूरन यह बात यहाँ लिखनी पड़ती है कि हमारे अनेक भारतीयों के मस्तिष्‍क में एक बात की भ्रान्ति घर किये है (इसे हम अपनी कमज़ोरी समझें या आत्‍म विश्‍वास की कमी!) कि विदेशी वस्‍तुएँ बढि़या होती हैं क्‍योंकि उस पर विदेशी लेबल लगा है। देश की 400 वर्षों की पराधीनता से हमें स्‍वतन्‍त्रता तो मिली है परन्‍तु वास्‍तविकता यही है कि हम दिलो-दिमाग़ से आज भी विदेशी वस्‍तुओं के ग़ुलाम हैं। हमारे प्राचीन योग को सीखकर विदेशियों ने इसे "योगा" कहना प्रारम्‍भ कर दिया है। योगा कोई शब्‍द नहीं है। YOG (योग) कहने में हमें लज्‍जा आती है और YOGA (योगा) कहने से हमें गर्व होता है। विदेश में रहने वाले लोग जिनकी मातृभाषा अंग्रेज़ी है उन्‍हें और राम या योग इत्‍यादि को लिखने के लिये रामा या योगा लिखना पड़ता है परन्‍तु क्‍या हमें राम या योग बालना नहीं आता या क्‍या हम अपने घरों में आपस में भी अंग्रज़ी में बात करते हैं? हमारी नकल हमारे बचचे भी करते हैं वे भी राम को रामा और योग को योगा कहते हैं। अच्‍छी बात की नकल अवश्‍य करनी चाहिये परन्‍तु अपनी शुद्ध भाषा को अशुद्ध करके बोलना – यह कहाँ की समझदारी है? यह तो अपनी संस्‍कृति और सभ्‍यता का अपमान करना है, इसे मूर्खता ही कह सकते हैं। है ना?
            "आर्य समाज" एक मात्र ऐसी संस्‍था है जहाँ ईश्‍वरकृत 'वेद' की सत्‍य विद्या पर आधारित धार्मिक, शारीरिक, सामाजिक और आत्‍मोन्‍नति के कार्यक्रमों को ही प्राथमिकता दी जाती है तथा योग (पतञ्जलि योग) के प्रशिक्षण शिविर आयोजित किये जाते हैं। ऐसे शिविरों में आने वाले जिज्ञासु शिविरा‍र्थियों के अनेक प्रश्‍नों के उत्तर तथा शंकाओं के समाधान होते हैं। मैं सब महानुभावों से विनम्र निवेदन करता हँ कि वे 'योग शिविरों' में अधिक से अधिक संख्‍या में भाग लें और योग के महत्‍व को भली-भाँति जानें।
               यह सत्‍य है कि "परिवर्तन सृष्टि का अटल नियम है" परन्‍तु सनातन वैदिक ज्ञान में परिवर्तन हो तो वह सब आर्यों (श्रेष्‍ठ चिन्‍तनशील विद्वानों) के लिये चिन्‍तन का विषय बन जाता है। सत्‍य सर्वदा सत्‍य ही रहता है, उसमें लेशमात्र भी असत्‍य मिल जाए तो वह सत्‍य नहीं रहता।
        आज वैदिक शिक्षा और 'योग' का मज़ाक उड़ाया जा रहा है ! योग के नाम पर योगा, नामदान के नाम पर स्‍वार्थ-छल-कपट, स्‍मरण के नाम पर गाना-बजाना, सत्‍संग के नाम पर पाखण्‍ड, भक्ति के नाम पर रासलीला इत्‍यादि - ये सब ही हो रहा है और हम दूरदर्शन (टी॰ वी॰) के अनेक कार्यक्रमों में पाखण्‍ड देखते हुए भी अनदेखा कर देते हैं। किसी की हानि हो या सत्‍यानाश – हमें क्‍या ? कोई डूबता है तो डूबे – इससे हमें क्‍या अन्‍तर पड़ता है? यदि हममें थोड़ी भी जागरुकता है तो हमारा कर्तव्‍य बनता है कि हम वह सत्‍य दूसरों तक भी पहुँचाएँ।                  स्‍वाध्‍याय का अर्थ यह कदाचित् नहीं है कि हम जो कुछ पढ़ें, सुनें, सीखें – वह अपने तक ही सीमित रखें अपितु उस ज्ञान को दूसरों तक भी पहँचाएँ। बन्‍धुओ! ज्ञान उपयोग करने से तथा बाँटने से ही बढ़ता है। केवल तमाशाई बनकर देखने से तो अच्‍छा है कि हम दूसरों का मार्गदर्शन कर उनका और अपना जीवन सफल बनाएँ।
          जिन आसनों के करने (योगासन अथवा हठासन) से जन-कल्‍याण होता हो – उन आसनों को करने-कराने में कोई अपत्ति नहीं होनी चाहिये। किसी को कुछ अच्‍छा लगता है तो किसी को कुछ। सब मनुष्‍यों के गुण-कर्म-स्‍वभाव भिन्‍न-भिन्‍न होते हैं इसलिये सब लोगों की विचार शक्‍ित या प्रवृत्तियों में अन्‍तर देखा जा सकता है। मनुष्‍य नही है जो साच-समझ कर सावधानी से चलता है। जहाँ से अच्‍छी बातें मिलें उन्‍हें अपनाने में ही समझदारी है। जिसको जो करना है, उसे लाख समझाने पर भी वह वही करेगा जो उसकी इच्‍छा होगी।
"श्‍व कार्यमद्य कुर्वीत पूर्वाहने चापराहिनकम्। नहि प्रतीक्षते मृत्‍युः कृतमस्‍य न वा कृतम्।।" (महाभारत)
अर्थात् जो करना हो तो कल का काम आज और दोपहर का काम प्रतःकाल ही कर डालो क्‍योंकि मृत्‍यु इस बात की प्रतीक्षा नहीं करती कि तुमने कोई कार्य पूरा किया है या नहीं? जी हाँ! "काल करे सो आज कर, आज करे सो अब। पल में प्रलय होयगी, बहुरी करैगा कब"? प्रिय सज्‍जनों! मेरे लिखने का तात्‍पर्य समझ ही गये होंगे! अत्‍योम्।। .......  मदन रहेजा