Monday, May 11, 2009

आओ मन्‍त्रणा करें

आओ मन्‍त्रणा करें
ओ३म्। शन्‍नो मित्रः वरुणः शन्‍नो भवत्‍वर्य्यमा। शन्‍नऽइन्‍द्रो बृहस्‍पतिः शन्‍नो विष्‍णुरुक्रमः।
नमो ब्रह्मणे नमस्‍ते वायो त्‍वमेव प्रत्‍यक्षं ब्रह्मासि। त्‍वमेव प्रत्‍यक्षं ब्रह्म वदिष्‍यामि ऋतं वदिष्‍यामि सत्‍यं वदिष्‍यामि तन्‍मामवतु तद्वक्तारमवतु। अवतु माम्। अवतु वक्तारम्। ओ३म् शान्तिश्शन्तिश्‍शान्तिः
परमात्‍मा साक्षी है कि हम किसी भी तथाकथित धर्म, मत, मज़हब, पन्‍थ या जाति अथवा सम्‍प्रदाय इत्‍यादि की निन्‍दा की दृष्टि से खण्‍डन, अवहेलना, अपमान या मज़ाक करना नहीं चाहते। हमारे दिल में दुनियाँ के सभी मनुष्‍य, जीव तथा प्रणियों के लिये प्रेम, दया, करुणा और स्‍नेह है। हम किसी के मन, हृदय, आस्‍था या निचारों को दुःखी करना नहीं चाहते और न ही कभी ऐसा सोच सकते हैं। हम सब को स्‍वस्‍थ, सुखी, ख़ुशहाल, धार्मिक और सत्‍य के दर्शन कराने का प्रयास कर रहे हैं ताकि हमारे समाज में जितने भी तथाकथित, अधर्मी, नक़ली, बहुरूपिये, वित्तैषणा-रोगी साधु, संत, गुरु और धर्म के नाम पर अन्‍धविश्‍वास, अन्‍धश्रद्धा और पाखण्‍ड जैसे भयानक रोग फैलाए जा रहे हैं, उनको जनता की खुली अदालत के समक्ष लाना चाहते हैं ताकि उन पाखण्डियों को चहरे से असत्‍य का नक़ाब (पर्दा) हटा सकें। कौन नहीं चाहता कि हम पाखण्‍डों और अन्‍धविश्‍वासों से मुक्‍त हों और सत्‍यासत्‍य की जानकारी प्राप्‍त कर मन, वचन, कर्म और स्‍वभाव से धार्मिक बनें। हमारे अपने देश में ही नहीं, सारे विश्‍व में हमारे अधार्मिक पौराणिक मान्‍यताओं की वजह से हमारे हिन्‍दू समाज की देवी-देवताओं को लेकर जो मज़ाक उड़ाया जाता है उसे रोकें। हमारा कर्तव्‍य ही नहीं धर्म है कि हम अपने भाई-बहनों को, समाज में आग की भान्ति फैल रहे अनेक प्रकार के पाखण्‍डों तथा अन्‍धविश्‍वासों के रोगों से मुक्‍त कराएँ और गुमराह लोगों को सच्‍चे परमात्‍मा के दर्शन कराएँ।
हम धार्मिक विद्वानों, साधु, सन्‍तों, महात्‍माओं का हृदय की गहराइयों से आदर-सम्‍मान करते हैं। धर्म के नाम पर अधर्म का प्रचार करना अधर्म है। ईश्वर के नाम पर दुकानदारी करना, नाम दान के बदले दाम वसूली करना तथा ईश्वर के स्‍थान पर किसी और की पूजा करवाना कहाँ का धर्म है?

वैदिक संस्‍कृति और परम्‍परा में प्रत्‍येक नये कार्य प्रारम्‍भ करने से पूर्व
गणपति (परम पिता परमात्‍मा) की पूजा का विधान है। यह उचित भी है क्‍योंकि ईश्वर की कृपा से ही हमारे सम्‍पूर्ण कार्य सिद्ध होते हैं। हिन्‍दू समाज में भी सब देवी-देवताओं की पूजा से पहले गणपति की ही पूजा का विधान है क्‍योंकि गणपति (परमेश्वर) सर्वोपरि हैं।
साधारण लोग काल्‍पनिक देवी-देवताओं की मूर्तियों को देखकर ऐसा समझते हैं कि जैसे उनको मूर्ति के रूप में ईश्वर के दर्शन हो गए
परन्‍तु वास्‍तविकता तो यही है कि उनकी ऐसी धारणा मात्र एक अन्‍धविश्‍वास है। कोई भी मूर्ति, प्रतिमा, तस्‍वीर, शिल्‍पकारी जड़ वस्‍तु होती है और उसके आगे उसकी की सेवा, पूजा, अर्चना, आराधना या प्रार्थना करने से कुछ प्राप्‍त नहीं होता, मात्र अन्‍धविश्‍वास एवं अन्‍धश्रद्धा है। ईश्वर के स्‍थान पर किसी की पूजा करना पाप ही नहीं महापाप है।

मूर्ति एक प्रतीक है: हम किसी मूर्ति, तस्‍वीर, शिल्‍पकारी या प्रतिमा के विरोधी नहीं हैं क्‍योंकि मूर्तियाँ हमारी धरोहर होती हैं। हम उन मूर्तिकारों, शिल्‍पकारों एवं कलाकारों का बहुत सम्‍मान करते हैं जो अपनी कल्‍पना को कलाकृति द्वारा उभारने का प्रयास करते हैं तथा विविध प्रकार की मूर्तियों का निर्माण करते हैं। मूर्तियाँ प्रतीक मात्र होती हैं जिन के प्रदर्शन द्वारा अनकही गूढ बातों को आसानी से समझाया जाता है। लोगों के ज्ञानवर्धन का एक अनोखा उपाय है। हमारे सन्‍तानें सुसंस्‍कारी बनें इसलिये घर में मूर्तियाँ कला की दृष्टि से रखनी चाहियें परन्‍तु जिन मूर्तियों के कारण अपने ही घर में या समाज में, किसी भी प्रकार का अन्‍धविश्‍वास, अन्‍धश्रद्धा या भ्रान्तियाँ उत्‍पन्‍न होती हों, ऐसी मूर्तियों, तस्‍वीरों तथा सजावटी वस्‍तुओं को वहाँ से तुरन्‍त हटा देना चाहिये। इसी से सब के घर-परिवारों में सुख, समृद्धि, प्रेम एवं शान्ति बनी रहेगी। इस में हमारी सभ्‍यता एवं संस्‍कृति अवश्‍य सुरक्षित रहेगी।

यदि अशलील या आपत्तिजनक मूर्तियों के प्रदर्शन से किसी जाति, मत-मतान्‍तर, देश या उसकी सभ्‍यता और संस्‍कृति का निरादर होता है तो उसका समर्थन कोई भी बुद्धिजीवी नहीं कर सकता अतः उसका विरोध होना ही चाहिये।

ईश्वर चेतन में जड़ और जड़ में चेतन का अनुभव करना अज्ञान या मिथ्‍याज्ञान कहाता है। अज्ञान ही सब प्रकार के दुःखों का मूल कारण होता है। हम मूर्तियों के विरोधी कदाचित् नहीं हैं और यह भी सत्‍य है कि जिस वस्‍तु को हम बार-बार देखते हैं तो जाने-अनजाने में उस के साथ हमारी भावनाएँ भी जुड़ जाती हैं परन्‍तु भावनाओं का ग़लत प्रयोग करना उचित नहीं है। कुछ स्‍वार्थी लोगों ने साधारण लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया है, जैसे मूर्ति ही भगवान् है, मूर्ति पूजा से परमात्‍मा प्रसन्‍न होते हैं, मूर्तियाँ जीवित मनुष्‍यों की तरह खाती-पीती हैं, मूर्तियों को नहलाया जाता है, उनको भोग लगाया जाता है इत्‍यादि जिसको देखकर और सुनकर दूसरी सम्‍प्रदाय के लोग मूर्तिपूजकों का मज़ाक उड़ते हैं और उनकी भावनाओं को ठेस पहुँचाने के इरादे से मूर्तियों का निरादर और अपमान करते रहते हैं जिसके कारण आपस में लड़ाई, झगड़े, फ़साद, अनबन और अशान्ति बनी रहती है।

हम, सत्‍य सनातन वैदिक धर्म के अनुयायी, मात्र निराकार परमात्‍मा की उपासना करते हैं और उसी की पूजा करते हैं। इस का यह अर्थ कदाचित् नहीं है कि हम किसी भी परिस्थिति में मूर्तियों का अपमान या निरादर निरादर करते हैं। यदि कोई मूर्तियों का अपमान करते हैं तो सर्वप्रथम हम उसका मुँह तोड़ जवाब भी देते हैं। मूर्तियाँ भारतीय संस्‍कृति एवं सभ्‍यता की अमूल्‍य धरोहर होती हैं जिनसे हमें सबक सीखते हैं क्‍योंकि मूर्तियाँ हमें बहुत कुछ सिखाती हैं, शिक्षा प्रदान करती हैं, हमारा मार्गदर्शन करती हैं अतः उनकी निगरानी, रक्षा, सुरक्षा करना सब का कर्तव्‍य है।

भारतीय इतिहास में काल्‍पनिक मूर्तियों में जिस मूर्ति (प्रतिमा) का सर्वाधिक सम्‍मान किया ईश्वर चेतन में जड़ और जड़ में चेतन का अनुभव करना अज्ञान या मिथ्‍याज्ञान कहाता है। अज्ञान ही सब प्रकार के दुःखों का मूल कारण होता है। हम मूर्तियों के विरोधी कदाचित् नहीं हैं और यह भी सत्‍य है कि जिस वस्‍तु को हम बार-बार देखते हैं तो जाने-अनजाने में उस के साथ हमारी भावनाएँ भी जुड़ जाती हैं परन्‍तु भावनाओं का ग़लत प्रयोग करना उचित नहीं है। कुछ स्‍वार्थी लोगों ने साधारण लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया है, जैसे मूर्ति ही भगवान् है, मूर्ति पूजा सेजाता है वह गणपति है। और यह भी सत्‍य है कि जिसका हम सर्वाधिक आदर-सम्‍मान करते हैं उसी 'गणपति' की प्रतिमा का हमारे अपने ही लोगों ने इतना अधिक अपमान किया है शायद ही किसी अन्‍य का हुआ हो। राशियों के नाम पर गणपति, अलग-अलग रूप और रंगों में गणपति, भिन्‍न-भिन्‍न आसनों में गणपति, खेल-कूद करते हुए गणपति और न जाने क्‍या-क्‍या करते हैं गणपति? दर्शाया जाता है कि गणपति क्रिकेट खेल रहे हैं (बैटिंग, बॉलिंग और फ़ील्डिंग कर रहे हैं), फुटबाफल खेल रहे हैं, होली के रंगों में रंग रहे हैं, भाग रहे हैं, कूद रहे हैं, और तो और बच्‍चों के मनोरञ्जन के नाम पर 'बाल गणपति' पर अनेक ऍनीमेशन चल-चित्र भी बने हैं। गणपति की प्रतिमा हास्‍य का विषय नहीं है अपितु सर्वाधिक शोधनीय विषय है। और तो और जिसकी पूजा सारा संसार करता है उसी गणपति के भिन्‍न-भिन्‍न प्रकार के खिलौने बनाए जाते हैं। क्‍या आपने कभी किसी अन्‍य मत-मतान्‍तर (मुस्लिम, ईसाई, सिक्‍ख इत्‍यादि) के अनुयायीओं को, उनके किसी देवी-देवता या गुरुजनों की प्रतिमाओं की इतनी बुरी दुर्दशा होते देखी है? कदाचित् नहीं! और न ही कभी देखेंगे क्‍योंकि अन्‍य तथाकथित धर्म के लोग अपने देवी-देवताओं का आदर करना जानते हैं अतः किस की मजाल है कि वे ऐसे घिनौने कार्य करे! हम जिसे अपना देवता और कुलदेवता मानते हैं, उसी के साथ इतना खिलवाड़ हो रहा है। ऐसा क्‍यों? क्‍योंकि हम सब उसमें शामिल हैं! प्रत्‍येक त्‍यौहारों के नाम पर गणपति को किसी न किसी रूप में दिखाया जाता है। आज-कल एक और नया पाखण्‍ड चल पड़ा है कि दिवाली के अवसर पर यदि आप अपनी राशि के अनुसार गणपति की प्रतिमा को घर में रखते हैं तो आपकी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाएँगी। धन बटोरने की बीमारी (लालच में हम क्‍या-क्‍या हरकतें करते हैं, यहाँ तक कि अपने ही भगवानों (देवी-देवताओं) का मज़ाक उड़ाते रहते हैं। चल चित्रों के माध्‍यम से स्‍वर्ग और नर्क का मज़ाक उड़ाया जाता है तथा ऐसे अनेक दृष्‍य एवं काल्‍पनिक कहानियाँ दर्शाकर हमारी हिन्‍दू संस्‍कृति की खिल्‍ली उड़ाई जाती है, अवहेलना की जाती है और हम उसमें प्रसन्‍न होते हैं।

मूर्ति भगवान् नहीं: मूर्तियाँ बनाने वाले ही प्रायः मूर्तियों को तोड़ा करतें हैं। विद्वान लोग मूर्तियाँ तोड़ते नहीं, जोड़ते हैं, उसकी सुरक्षा करते हैं। जो लोग ईर्ष्‍या, द्वेष तथा अपमान की भावना से किसी व्‍यक्ति-विशेष अथवा ऐतिहासिक मूर्तियों का निरादर करते या तोड़ते हैं ऐसे लोग अन्तिम श्रेणी के मानसिक रोगी होते हैं। अमानुषता की श्रेणी को भी लाँघ जाते हैं।

ध्‍यान रहे कि ईश्वर सर्वव्‍यापक है, ज़र्रे-ज़र्रे में विद्यमान है, मूर्ति में भी है परन्‍तु इसका अर्थ यह नहीं कि हमें मूर्तिपूजा करनी चाहिये, कदाचित् नहीं। माना ईश्वर मूर्ति में भी है परन्‍तु क्‍या हम मूर्ति में प्रवेश कर सकते हैं या वह परमात्‍मा मूर्ति के बाहर आ सकता है? नहीं! अतः ईश्वर से मिलने का एकमात्र स्‍थान वही हो सकता है जहाँ हम भी हों और हमारा परमात्‍मा भी विद्यमान हो। दर्शन दृष्ट और दृष्टा का होता है यदि दोनों आमने-सामने एक ही स्‍थान में विद्यमान हों। वह एकमात्र स्‍थान है - हमारा अन्‍तःकरण (मन) जहाँ आत्‍मा के साथ-साथ परमात्‍मा भी विराजमान होते हैं। ज़रा अपनी आँखें बन्‍द कीजिये, श्रद्धा और प्रेम से उस निराकार परमेश्वर का ध्‍यान कीजिये तत्‍काल उस निराकार प्रभु के दर्शन हो जाएँगे। ईश्वर का कोई रूप, रंग, आकार या प्रकार नहीं होता। आनन्‍द की अनुभूति ही परमात्‍मा का साक्षात्‍कार कहाता है।

मनष्‍य का आत्‍मा सत्‍यासत्‍य को जानने वाला होता है। हम सत्‍य को त्‍याग कर असत्‍य की ओर भाग रहे हैं। ईश्वर ने मनुष्‍य को विवेक अर्थात् सत्‍य और असत्‍य को जानने का यन्‍त्र प्रदान किया है। यदि हम ईश्वर के दिये इस अनमोल यन्‍त्र विवेक का प्रयोग नहीं करते तो इससे हम अपनी हानि तो करते ही हैं साथ में दूसरों की भी हानि करते हैं और यही कारण है कि अधिकतर मनुष्‍य, मनुष्‍य होते हुए भी पशुओं की भान्ति जीते हैं और मर जाते हैं। स्‍वयं से पूछें कि क्‍या हम मनुष्‍य (कहाने योग्‍य) हैं? विवेक होते हुए भी क्‍या हम विवेकशीलता से कार्य करते हैं? ईश्वर प्रदत्त वेद (ज्ञान-विज्ञान) को जानने का प्रयास करते हैं? प्रत्‍येक बात को विवेक रूपी कसौटी पर परखते हैं? सत्‍यासत्‍य का निर्णय करते हैं? वेद एवं आर्ष ग्रन्‍थों का नियमित स्‍वाध्‍याय करते हैं? यदि हाँ! तो क्‍या हम अपने अन्‍दर की बात सुनते हैं? हम सत्‍य को जानते हुए भी असत्‍य को क्‍यों मानते हैं? आख़िर हम कब तक ग़फ़लत की नींद में सोते रहेंगे? हमारी अज्ञानता की नींद कब खुलेगी? हम सत्‍य बात को कहने से डरते क्‍यों हैं? किस से डरते हैं हम? क्‍या हमको अपने परम पिता परमात्‍मा पर भरोसा नहीं है? क्‍या हमें ईश्वर की न्‍यायव्‍यवस्‍था पर संशय है? बाज़ारू बाबाओं के चकर में आकर जन्‍म-मरण के चकर में कब तक चकराते रहेंगे? असली को छोड़कर कब तक नकली के पीछे भागते रहेंगे? स्‍वयं को कब तक धोखा देते रहोगे? सत्‍य को जानते हुए भी हम कब तक पत्‍थरों के आगे हाथ जोड़ते रहेंगे? हम कब गणपति के सत्‍य स्‍वरूप को समझेंगे? पत्‍थर को पूजते-पूजते क्‍या हम भी पत्‍थर तो नहीं हो गए हैं?

मेरी प्रिय मित्रों तथा जिज्ञासु पाठकवृन्‍द से करबद्ध विनम्र प्रार्थना है कि किसी के कहे-सुने या देखे को बिना परीक्षण के कभी न मानें! पहले सत्‍य को जानें, फिर मानें! वेदानुकूल आचरण करें! इसी में सब की भलाई है। स्‍वयं ईश्वर आकर आप की सहायता नहीं करेगा! अपनी सहायता स्‍वयं को ही करनी पड़ती है और यही सोलह आने सत्‍य कहावत है कि जो मनुष्‍य स्‍वयं की सहायता करने में कोई कसर नहीं छोड़ता, परमात्‍मा अवश्‍य ही उसकी सहायता करते हैं।
आपकी प्रतिक्रिया आवश्‍यक है।

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