यह इतना गूढ़ प्रश्न है कि उसका उत्तर संक्षिप्त में देना कठिन है क्योंकि इस विषय पर अलग से एक पुस्तक लिखी जा सकती है, फिर भी हम कम से कम शब्दों में इस प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास करते हैं।
इस प्रश्न को समझने से पहले एक कथा सुनें – एक दुःखी व्य क्ति अपने दुःखों की निवृत्ति हेतु एक सन्त के पास गया और अपने दुःखों की सारी दास्ताँ सुनाने लगा। सन्त से उसकी बातें ध्यान से सुनी। वह व्यक्ति हाथ्र जोड़कर प्रार्थना करने लगा ‘हे भगवन्! आप मेरे दुःखों का निवारण कीजिये, ऐसी कृपा करें कि मैं अपने जीवन में सदा के लिये सुखी रहूँ। वह सन्त कुछ देर तक मौन रहा और उस को धीरज दिलाते हुए कहा – "आप धैर्य रखें! र्मैं आप के दुःखों का अवश्य निवारण करूँगा परन्तु एक सप्ताह के पश्चात्। पहले मेरा एक काम करो। मुझे एक सप्ताह के भीतर किसी भी एक सुखी व्यक्ति का कोई एक वस्त्र लाकर दो तो ही मैं तुम्हें वह सरलत्तम उपाय बताऊँगा जिससे तुम सब प्रकार के दुःखों से छूट जाओगे और सदा के लिये सुखी हो जाओगे"।
सन्त की आज्ञा मानकर वह दुःखी व्यक्ति सन्त जी को प्रणाम करके वहाँ से चला गया। मन ही मन सोचने लगा कि यह काम तो मैं कुछ ही दिनों में पूरा कर सन्त के पास जाऊँगा और उनका उपदेश पाकर सदा के लिये सुखी हो जाऊँगा। अब वह सुखी व्यक्ति की खोज में निकला। दो दिन के बाद उस दुःखी व्यक्ति ने एक बहुत बड़ी और शानदार हवेली देखी, सोचने लगा कि जिसकी इतनी बड़ी हवेली है, वह अपने जीवन में कितना न सुखी होगा, यह सोचकर वह वह उस भव्य भवन के मालिक के पास पहुँचा और सेठ जी को अपनी पूरी समस्या सुनाई तथा विनम्रता से प्रार्थना करने लगा कि मैं भी आप की भान्ति सुखी होना चाहता हूँ अतः मुझे एक सन्त ने आप जैसे प्रसन्नचित महानुभाव का कोई भी एक वस्त्र लाने को कहा है। कृपा करके मेरी सहायता करें। यदि मुझे आपका कोई वस्त्र मिल जाए तो मैं भी सुखी हो सकता हूँ। सेठ जी ने कहा "भाई! जैसा आप समझते हैं मैं वैसा (सुखी) नहीं हूँ। मेरे पास धन-दौलत की कोई कमी नहीं है, परन्तु मैं दिल का मरीज़ हूँ, मेरी आँखें कमज़ोर हैं, इस शरीर में और भी कई रोग अपना डेरा डाले हुए हैं, डॉ॰ ने अनेक वस्तुओं से परहेज़ रखने को कहा है। इतना धन-दौलत होते हुए भी मैं अपनी मन चाही चीज़ खा नहीं सकता, पी नहीं सकता, कहीं आ-जा नहीं सकता, सारा दिन घर पर ही वक्त गुजा़रता हूँ, मेरे जैसा दुःखी इस संसार में और कोई नहीं हो सकता। भाई! आप मेरे जैसे दुःखी के वस्त्र लेकर क्या करोगे?"
लाचार होकर वह व्यक्ति दूसरे सुखी व्यक्ति की तलाश में निकला, परन्तु वहाँ भी उसने वही उत्तर पाया कि ‘मैं बहुत ही दुःखी हूँ’। इस प्रकार वह अनेक सुखी व्यक्तियों (जो वास्तव में बाहर से सुखी दिखते थे) के पास पहुँचा परन्तु सब की बातों से यही पाया कि सब अपने-अपने जीवन में किसी न किसी कारण बहुत दुःखी हैं, कोई सुखी नहीं है। एक सप्ताह बीतने पर वह दुःखी व्यक्ति पहले से भी अधिक दुःखी अवस्था में सन्त के पास लौट आया और पिछले सप्ताह की पूरी घटना सन्त को सुनाई। सन्त ने शान्तिपूर्वक उसकी पूरी बात सुनी।
सन्त ने उसे पूर्ण विश्वास दिलाया कि "कोई बात नहीं। मैंने तुम्हें इसी लिये एक सप्ताह का समय दिया था कि तुम जान सको कि इस संसार में सब लोग दुःखी हैं, कोई सुखी नहीं। जानते हो क्यों? क्योंकि वे लोग अपने रोज़ मर्रा के संसारिक काम काज में परमात्मा को भुला चुके हैं और जिसके परिणाम स्वरूप उसके कर्म-फल व्यवस्था को भी भूल जाते हैं कि परमात्मा शुभाशुभ कर्मों का फल सुख अथवा दुःख के रूप में प्रदान करता है। ईश्वर का स्मरण (ईश्वर के नाम का स्मरण) करने से मनुष्य कभी भी बुरा कर्म नहीं करता और उस ईश्वर को भूलते ही वह बुरे कर्मों मे लिप्त हो जाता है, जिसके फलस्वरूप वह दण्ड रूपी दुःख को प्राप्त करता है।
ईश्वर सर्वव्यापक होने सब के अंग-संग (सर्वान्तर्यामी अर्थात् सब के अन्तःकरण में सदा विद्यमान) रहता है। आप सब को अनुभव होगा ही कि जब हम कोई कर्म करते हैं तो कर्म करने से पूर्व हमारे हृदय में तीन प्रकार के भाव उत्पन्न हुआ करते हैं – जैसे "शंका, भय और लज्जा" अथवा "निःशंका, निर्भयता तथा उसाह"। इस प्रकार के भाव हमारे हृदय में ईश्वर उत्पन्न करता है अर्थात् मानो ईश्वर हमें चेतावनी प्रदान करता है कि वह जो कर्म हम अभी करने जा रहे हैं वह शुभ है या अशुभ। शुभाशुभ कर्म का पैमाना यही है "यदि हम बुरा कर्म करने जा रहे हैं तो कर्म करने से पूर्व हमारे मन में "शंका, भय और लज्जा" उत्पन्न होने लगती हैं और जब कर्म करते समय हमारे मन में "निःशंका, निर्भयता तथा उसाह" उत्पन्न होती है तो हमें समझ लेना चाहिये कि हम ग़लत नहीं कर रहे, कुछ अच्छा कर रहे हैं। मनुष्य को चाहिये कि वह कोई भी कर्म करने से पूर्व अपने मन में सर्वव्यापक परम पिता परमात्मा को तथा उसकी बनाई न्याय व्यवस्था को अवश्य स्मरण करे जिससे वह बुरे कर्म करने से बच जाएगा। याद रहे कि अच्छे कर्म का फल अच्छा ही होता है और बुरे कर्म का परिणाम (दण्ड) हमेशा बुरा ही होता है। सब को अपने किये का फल अवश्यमेव भुगतना पड़ता है। इस कर्मफल से कोई भी छूट नहीं सकता – चाहे वह कोई भी क्यों न हो।
सुखी रहने के कुछ उपाय: 1) हर हाल में प्रभु को स्मरण करते रहना। 2) ईश्वर की इच्छा मानकर वर्तमान स्थिति में प्रसन्नचित और संतुष्ट रहना। 3) जितना है उसी में संतुष्ट रहना। 4) जिसकी इच्छाएँ कम होती हैं। 5) जो व्यक्ति तीनों ऐषणाओं से दूर रहता है अर्थात् जिसमें वित्तैषण, पुत्रैषणा और लोकैषणा नहीं होती। 6) जो संतोष धन को प्राप्त करता है वह व्यक्ति सर्वदा सुखी रहता है।
नोट: संतोष अर्थात् हर परिस्थिति को ईश्वर की कृपा समझकर प्रसन्नचित्त रहना। संतोष और असंतोष में केवल एक शब्द ‘अ’ का अन्तर है। ‘अ’ का अर्थ है ‘अभाव’ अर्थात् किसी वस्तु का न होना और अभाव के करण हर व्यक्ति जीवन में स्वयं को दुःखी समझता है। वास्तव में यह अज्ञानता का प्रतीक है। एक बात सदा स्मरण रखनी चाहिये कि ‘ईश्वर की कृपा’ के बिना कोई कार्य सिद्ध नहीं होता और ईशकृपा सुपात्रों को ही प्राप्त होती है, कुपात्रों को कदाचित् नही। आत्म विश्वासी व्यक्ति ईशकृपा को प्राप्त करने में समर्थ होता है। दृढ संकल्प, आत्मविश्वास और परिश्रम द्वारा हर प्रकार के अभाव को दूर किया जा सकता है।
शंका: क्षमा याचना करने से क्या ईश्वर अपने भक्तों के पापों को क्षमा करता है?
समाधान: कदाचित् नहीं! यदि परमात्मा किसी भी व्यक्ति के पापों को क्षमा करता है तो वह न्यायकारी नहीं हो सकता क्योंकि वह पापियों को अधिक पाप कर्म करने की अनुमति, बढ़ावा तथा स्वतन्त्रता प्रदान कर रहा है जो परमात्मा के लिये असम्भव बात है। ईश्वर न्यायकारी है, दयालू है, इसी लिये पापियों को सुधारने के लिये दण्ड देता है। संसार में हम देखते हैं कि छोटा सा बच्चा भी यदि वह पहली बार कोई ग़लती करता है तो उसके माता-पिता समझाते हैं और वह बच्चा जान-बूझ कर िफर उसी ग़लती को बार-बार करता है तो माँ-बाप उसे सज़ा देते हैं ताकि उसका बच्चा भविष्य में वही ग़लती न करे और सुधर जाए। परमात्मा भी हमें हर क़दम पर हर बुरे काम करने से पहले चेतावनी देता रहता है। जानते हैं कैसे? हर बुरे कार्य करने से पूर्व या हर ग़लती करने से पहले हमारे मन में ‘भय’, ‘शंका’ और ‘लज्जा’ की अनुभूति होती है, वह परमात्मा की ओर से चेतावनी होती है, जो हम सुनी-अनसुनी कर देते हैं। उसकी बात न मानकर हम िफर ग़लत कार्य करते हैं और उसका फल मिलने पर पछतावा करते हैं और ईश्वर से माफ़ी माँगते रहते हैं। आप ही बताइये कि क्या वह न्यायकारी परमात्मा हमें माफ़ करेगा, हमें बक्षेगा? यह सम्भव नहीं! यदि ऐसा होने लगे तो पापी जन और अधिक पाप करने लगेंगे और अपने किये कुकर्मों की क्षमा याचना करेंगे। िफर ईश्वर की न्याय व्यवस्था का क्या होगा?
मनुष्य हर समय जाने-अनजाने में ग़लतियाँ या दुष्कर्म करता रहता है और कभी-कभी तो सोच-समझकर जानते हुए भी कि इस ग़लत कार्य का परिणाम ठीक नहीं होगा िफर भी वह कुकर्म कर बैठता है और कर्म करते ही वह ईश्वर से क्षमा याचना माँगता है कि ‘हे प्रभो मुझे माफ़ कर दो’। परमात्मा की चेतावनी के बावजूद भी वह दुष्कर्म करता है तो क्या ईश्वर उसे क्ष्मा करेगा? अतः हर पाप कर्म अथवा ग़लती के परिणाम में दण्ड के रूप में ‘दुःख’ (बन्धन) प्राप्त होता है और हर पुण्य तथा अच्छे कर्म का फल ‘सुख’ (स्व्तन्त्रता) के रूप में मिलता है। दुःख का दूसरा नाम बन्धन है और सुख का दूसरा नाम स्वतन्त्रता है। इसलिये सब मनुष्यों को सब काम सोच-समझकर कर धर्मानुसार करने चाहियें।
The Sanskrit word 'Veda' means 'Knowledge. All human-beings are born ignorant by nature hence they need proper knowledge and guidance for proper living in this world. There are four Vedas namely Rigveda, Yajurveda, Samaveda and Arharvaveda revealed by Omnipresent, Omniscient, Omnipotent GOD in the beginning of the creation for benefit and upliftment of all mankind. One must read and follow the teachings of the Vedas. For more info. visit 'Arya Samaj'. Email: madanraheja@rahejas.org
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Tuesday, September 16, 2008
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