Monday, May 11, 2009

पाखण्‍ड खिण्‍डनी पताका

"पाखण्‍ड खिण्‍डनी पताका" वह पताका है जो सर्वप्रथम ईसवी सन् 1867 में जगत्गुरु महर्षि दयानन्‍द सरस्‍वती ने हरिद्वार के कुम्‍भ मेले के शुभावसर पर फहराई थी और जिस का मुख्‍य उद्देश्‍य 'जनता को पाखण्‍डों से घिरे अन्‍धकार से निकालकर ज्ञान के प्रकाश में लाना' था। "आर्य समाज" के संस्‍थापक महर्षि दयानन्‍द सरस्‍वती (1824-1883) ने अपने जीवन काल में जहाँ भी अधर्म और पाखण्‍ड का सामना किया, वहाँ धर्म के सही स्‍वरूप और सत्‍य का प्रचार किया और पाखण्‍ड (अधर्म) का खण्‍डन किया।
यह सत्‍य है कि गिरना (‍िफसल‍ना) सरल है, सम्‍भलना समझदारी है और सम्‍भलना उठकर खड़े होना बहुत कठिन कार्य है। गिरने का कारण अज्ञानता है, सम्‍भलना पुरुषार्थ है और सम्‍भलकर उठना समझदारी (ज्ञान) है। मनुष्‍य को उन्‍नति के लिये ज्ञान और पुरुषार्थ दोनों की आवश्‍यक्‍ता पड़ती है। मनुष्‍य वही है जो अपने विवेक का प्रयोग कर, सदा उन्‍नति के मार्ग पर चलकर अपने लक्ष्‍य को प्राप्‍त करे। मनुष्‍य जीवन का लक्ष्‍य है – परमगति अर्थात् सब प्रकार के दुःखों से निवृति प्राप्‍त करना और आनन्‍द में रहना, उसके लिये असत्‍य का त्‍याग करना तथा सत्‍य को जानना अत्‍यन्‍तावश्‍यक है। "पाखण्‍ड खण्‍िडनी पताका" उसी सत्‍य का मार्गदर्शक है।
madanraheja@gmail.com
धर्मप्रेमी पाठकगण इस पुस्‍तक के शीर्षक को पढ़ कर समझ ही गए होंगे कि इस पुस्‍तक को सहजता पूर्वक पढ़ना इतना आसान नहीं होगा क्‍योंकि सत्‍य का सामना करना सब के बस की बात नहीं है, बहुत कठिन कार्य है और सत्‍य को ग्रहण करना तलवार की तेज़ धार पर नंगे पाँव चलने के बराबर होता है। कहावत है कि ‘सत्‍य कड़वा होता है’। निःसंदेह कुछ लोगों को पहली बार सत्‍य सुनने में कड़वा लगता है परन्‍तु उस सत्‍य का प्रभाव घीरे-धीरे पड़ने लगता है और कालान्‍तर में वही कड़वा सत्‍य मीठा लगने लगता है क्‍योंकि सत्‍य स्‍वाभाविक, सरल और एक होता है।
प्रत्‍यक्ष देखा गया है कि अनेक लोग आर्ष ग्रन्‍थों को पढ़ते तो हैं और अच्‍छी तरह से समझते भी हैं फिर भी वास्‍तविकताओं को मानने और अपनाने से कतराते हैं। उनके जीवन में सत्‍याचरण की एक भी झलक नहीं दिखाई नहीं देती या उनके चरित्र में कोई बदलाव नहीं आता। धार्मिक ग्रन्‍थों की तो बात ही निराली है। मनुष्‍य यदि प्रामाणित धर्मग्रन्‍थों को पढ़े, समझे और जीवन में अपनाने का प्रयास करे तो उसका इह-लोक और परलोक दोनों सुधर और सँवर सकते हैं।
वर्तमान में बाज़ार में तथाकथित धर्मिक ग्रन्‍थों की कोई कमी नहीं है, सरे आम सड़कों पर धर्म के नाम पर अनेक पुस्‍तकें बिकती हैं जिनमें अशलील बातें और आप‍ित्तजनक तस्‍वीरें भी होती हैं। उदाहरण के तौर पर पुराणों को ही लीजिये – जिनको प्राय: लोग धर्मिक ग्रन्‍थ समझते हैं – तो बताएँ हममें से कितने लोग हैं जिन्‍हों ने पुराणों के नाम सुने तो होंगे परन्‍तु क्‍या पढ़े हैं? इनमें से कुछ ऐसे भी पुराण हैं जिनको लोग, पढ़ना तो दूर की बात है, अपने घरों में रखना भी उचित नहीं समझते। पता है क्‍यों? जी हाँ। इनमें ऐसी अशलील बातें लिखी हैं कि हो सकता है कि कहीं हम वैसी हरकतें न कर बैठें और यही कारण है कि पुराणों को कोई भी अपने घरों में घुसने नहीं देता। धर्म ग्रन्‍थों में सब धार्मिक और ज्ञानवर्धक बातें होती हैं जिनको पढ़ना-पढ़ाना, सुनना-सुनाना सब लोगों का कर्तव्‍य ही नहीं, धर्म है।
धर्म और सम्‍प्रदाय में बहुत अन्‍तर होता है अत: आगे बढ़ने के पूर्व हमें धर्म और सम्‍प्रदाय या मज़हब को अच्‍छी तरह से समझना होगा तो ही हम पाखण्‍ड का खण्‍डन कर सकेंगे और सत्‍य मार्ग पर चलने का प्रयास कर सकेंगे।
धर्म: ईश्‍वरकृत होने से 'धर्म' सनातन होता है और सब मनुष्‍यों के लिये समान होता है। 'धर्म' जाति-पाति, वाद-विवाद, तथा देश, काल और परिस्‍िथति से स्‍वतन्‍त्र होता है अर्थात् वह सर्वोपरि होता है। परमात्‍मा के सं‍विधान को जानने और मानने का नाम 'धर्म है।'
 संस्‍कृत में 'धृ धारणे' धातु से धर्म शब्‍द बनता है जिसका अर्थ है – धारण करना अर्थात् वे सत्‍य और अटल सिद्धान्‍त या ईश्‍वरकृत नियम जिनके धारण करने से यह समस्‍त ब्रह्माण्‍ड थमा हुआ है और परमात्‍मा की रची सृष्‍िट के हर कार्य में जो सत्‍यरूपी नियम पूर्णरूपेण प्रत्‍येक वस्‍तु में रमा हुआ है – वह धर्म है। मनु महाराज के अनुसार 'धारणद्धर्ममित्‍याहु:' (मनु॰) अर्थात् जिसके धारण करने से किसी वस्‍तु की स्‍िथति रहती है – वह धर्म है।
 वैशेषिक दर्शनकार कहते हैं 'यतोऽभदुदयनि:श्रेयस‍िद्धि: स धर्म:' (वैशेषिक: 1/2) अर्थात् जिससे भोग और मोक्ष की सिद्धि हो – वह धर्म है।
साधारण भाषा में कहें तो मनुष्‍य का धर्म है "मनुष्‍यता" अर्थात् मनुष्‍य के स्‍वाभाविक और मौलिक गुण। मनुष्‍य के इन्‍हीं स्‍वाभाविक और मौलिक गुणों का वर्णन महर्षि मनु महाराज ने मात्र दस लक्षणों में प्रस्‍तुत किया है: –
 धृति क्षमा दमोऽस्‍तेयं शौचमिन्‍िद्रयनिग्रह। धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो: दशकं धर्मलक्षणम्॥ (मनु॰ 6/92)
अर्थात् धृति (धैर्य), क्षमा (माफ़ करना), दम (आत्‍म संयम), अस्‍तेय (चोरी न करना), शौच (स्‍वच्‍छता रखना), इन्‍िद्रयनिग्रह (अपनी इन्‍िद्रयों पर नियन्‍त्रण रखना), धीः (विवेकशीलता रखना), विद्या (ज्ञान की वृद्धि करना), सत्‍य (सत्‍याचरण करना) और अक्रोध (कभी क्रोध न करना) – ये वैदिक धर्म और मानवता ‍के दस लक्षण हैं अर्थात् जिस मनुष्‍य के जीवन में ये दस लक्षण विद्यमान होते हैं वह मनुष्‍य 'धार्मिक प्रवृति' वाला होता है।
महर्षि स्‍वामी दयानन्‍द सरस्‍वती, वर्तमान युग के क्रान्‍ितकारी समाजोद्धारक और आर्य समाज के पुरोद्धा, ने धर्म की परिभाषा सरल शब्‍दों में इस प्रकार की है:
 धर्म वह है जिसमें परस्‍पर किसी का विरोध न हो अर्थात् "धर्म" एक सार्वभौमिक वस्‍तु है जिसका किसी विशेष देश, जाति तथा काल से ख़ास सम्‍बन्‍ध नहीं होता। (सत्‍यार्थ प्रकाश)
 जो न्‍यायाचरण सबके हित का करना आदि कर्म हैं उनको "धर्म" और जो अन्‍यायचरण सबके अहित के काम हैं उनको "अधर्म" जानो। (व्‍यवहारभानु)
 जिसका स्‍वरूप ईश्‍वर की आज्ञा का यथावत् पालन, पक्षपातरहित न्‍याय सर्वहित करना है, जो कि प्रत्‍यक्षादि प्रमाणों से सुपरीक्षित और वेदोक्‍त होने से सब मनुष्‍यों के लिये एक और मानने योग्‍य है, उसको "धर्म" कहते हैं। (आर्य्योद्देश्‍यरत्‍नमाला)

मत, पन्‍थ या सम्‍प्रदाय: यह मनुष्‍य का अपना बनाया हुआ 'मत' है जिसे हम मत, मज़हब, पन्‍थ तथा सम्‍प्रदाय आदि कह सकते हैं परन्‍तु इन को 'धर्म' समझना अपनी ही मूर्खता का प्रदर्शन करना है। हिन्‍दू, मुस्‍िलम, सिक्‍ख, ईसाई, जैन, बौध, इत्‍यादि सब मत, मज़हब, सम्‍प्रदाय हैं और जो लोग (तथाकथित साधु, सन्‍त, पीर, फ़कीर, गुरु, आचार्य, महात्‍मादि) मतमतान्‍तरों पर 'धर्म' की मुहर लगाकर लागों के समक्ष पेश करते हैं और प्रचार-प्रसार करते हैं वे बहुत बड़ी ग़लती करते हैं तथा पाप के भागी बनते हैं।

पाखण्‍ड क्‍या है? धर्म की दृष्‍िट में झूठ और फ़रेब का दूसरा नाम पाखण्‍ड है। जो वेद विरुद्ध है, सत्‍य के विपरीत है और प्रकृति नियमों के‍ विपरीत है – ऐसी बातें करना या मानना पाखण्‍ड है। धर्म के नाम पर अधर्म फैलाना या धर्म की आढ़ में, ऐषणाओं (पुत्रेषणा, वित्तेषणा और लोकेषणा) की पूर्ति के लिये, दूसरों से ढौंग करना/कराना, फरेब करना/कराना, धोखाधड़ी करना/कराना, अपने शर्मनाक कुकर्मों पर पर्दा डालने के लिये पूजा के योग्‍य देवी-देवताओं तथा महापुरुषों (भगवानों) के शुद्ध-पवित्र जीवन को कलंकित करना और स्‍वरचित मनघड़त कहानियों के माध्‍यम से उनकी लाज उछालना और कलंकित करना आदि - इत्‍यादि 'पाखण्‍ड' या 'पोपलीला' कहाता है। उपरोक्‍त के अतिरिक्‍त धर्म का ग़लत ढंग से प्रचार-प्रसार करना तथा स्‍वार्थ पूर्ति हेतु जन-साधारण की भावनाओं से खिलवाड़ कर उन्‍हें ग़लत मार्ग दिखाना भी 'पाखण्‍ड' है। 'मन्‍त्र, यन्‍त्र, तन्‍त्र' का अनर्थ कर, ग़लत अर्थ निकालकर एवं ग़लत प्रयोग कर भोली-भाली जनता को लूटना आदि पाखण्‍ड की श्रेणी में आते हैं।
महर्षि दयानन्‍द सरस्‍वती, मनु-स्‍मृति के दो श्‍लोकों (4/165,166) के आधार पर पाखण्‍िडयों के लक्षण वर्णन करते हैं - "धर्म कुछ भी न करे परन्‍तु धर्म के नाम से लागों को ठगे, सर्वदा लोभ से युक्त, कपटी, संसारी मनुष्‍यों के समान अपनी बड़ाई के गपोड़े मारा करे, प्राणियों का घातक,अन्‍य से वैरबुद्धि रखनेवाला, सब अच्‍छे और बुरों से भी मेल रखे, उसको वैडालव्रति अर्थात् विड़ाल के समान धूर्त और नीच समझो। कीर्ति के लिये नीचे दृष्‍िट रखे, ईर्ष्‍यक किसी ने उस का पैसा भर अपराध किया हो तो ऐस का बदला लेने को प्राण तक तत्‍पर रहै। चाहे कपट अधर्म विश्‍वासघात क्‍यों न हो, अपना प्रयोजन साधने में चतुर, चाहे अपनी बात झूठी क्‍यों न हो परन्‍तु हठ कभी न छोड़े, झूठ-मूठ ऊपर से शीत संतोष और साधुता दिखलावे, उसको बगुले के समान नीच समझो। ऐसे-ऐसे लक्षणों वाले पाखण्‍डी होते हैं, उनका विश्वास वा सेवा कभी न करे। (स॰ प्र॰ चतुर्थसमुल्‍लास)
ऐतिहासिक रामायण तथा महाभारत की अनेक सत्‍य घटनाओं में मनमानी मिलावट कर बड़ी चतुराई से अशलीलता के साथ प्रसतुत करना, ग़लत अनहोनी बातों का प्रचार-प्रसार करना तथा जनता को गुमराह करना पाखण्‍ड है। इनके अतिरिक्‍त नये-नये मत-मज़हब-पंथ-सम्‍प्रदायों की रचना करना, प्राचीन वैदिक गुरुकुल प्रणाली को समाप्‍त करने का प्रयास करना, अवैदिक नाम-दान के बहाने ग़लत गुरु-शिष्‍य परम्‍परा का निमार्ण करना इत्‍यादि पाखण्‍ड के ही नवीनत्तम गोरख धन्‍धे प्रारम्‍भ हो गए हैं। हमारे देश में ही नहीं अपितु विश्‍व के लगभग सभी देशों में पाखण्‍ड का व्‍यापार बड़े ज़ोरों-शोरों से, खुले आम तेज़ी से फल-फूल रहा है। वर्तमान में सनातन धर्म के नाम पर अनेक पाखण्‍डी और तथाकथित बाबा, बापू, साधु, सन्‍त, पीर साहिब, फ़कीर इत्‍यादि बहुरूपियों ने अपने-अपने आश्रम/मठ/मन्‍िदरादि स्‍थापित कर रखे हैं जहाँ दिन दूनी और रात चौगुनी पाखड के जाल में साधारण जनता को फँसाया जा रहा है। धर्म तथा पूजा-पाठ के बहाने बहाने ऐसे स्‍थानों पर क्‍या-क्‍या होता है यह बताने की कोई आवश्‍यक्‍ता नहीं है क्‍योंकि इनके बारे में समाचार पत्रों में हम सभी ने बहुत कुछ पढ़ा है।
वर्तमान युग 'विज्ञान-युग' कहाता है क्‍योंकि हम समझते हैं कि हम पहले से कहीं अधिक ज्ञानवान हो चुके हैं परन्‍तु वास्‍तविक्‍ता कुछ और ही है कि हम पहले से कहीं अधिक अज्ञानी हो गए हैं। ठीक है कि विज्ञान के क्षेत्र में हमने समय की तेज़ रफ़्तार के साथ बहुत अच्छी उन्‍नति की है। हमें पहले से कहीं अधिक सुख-सुविधाओं के साधन प्राप्‍त हैं – जिसमें नि:संदेह विज्ञान का सहयोग है। हमने स्‍वयं को इन भौतिक साधनों में इतना उलझा दिया है कि हम अपने को ही भूल गए हैं और यही कारण है कि हम आध्‍यात्‍िमक क्षेत्र में हर पल और हर घड़ी दूर होते जा रहे हैं। दूसरी भाषा में कहें तो हम नास्तिक्‍ता की ओर क़दम रखते जा रहे हैं। भौतिक चकाचौंध ने हममें से सत्‍य और असत्‍य को परखने की समझ निकाल की है।
धर्म क्‍या है, अधर्म क्‍या है, सच क्‍या है और झूठ क्‍या है, सत्‍य क्‍या है और पाखण्‍ड क्‍या है – इसका हमें कुछ पता नहीं है। हम जो कुछ सुनते या पढ़ते हैं, उन बातों पर बिना सोचे-समझे या परखे विश्‍वास कर लेते हैं और अज्ञानता रूपी दल-दल में धँसते जाते हैं। बस यहीं से झूठ और अधर्म की जड़ें मज़बूत होती रहती हैं और पाखण्‍ड अंकुरित होने लगता है।
अज्ञानी मनुष्‍य स्‍वभाव से स्‍वार्थी होता है और स्‍वार्थपूर्ति के लिये वह हठ, कपट, दुराग्रह और असत्‍य का साथ नहीं छोड़ता। पद-लालसा और वाह-वाही में आकर्षित होने वाले लोंग प्रायः लोकैषणा में अन्‍धे हो जाते हैं। अपने-परायों में भेद नहीं समझते। अधर्म अपनों से दूर कर देता है – यह जानते हुए भी ऐसे लोग स्‍वयं को धर्म के अनुसासी समझते हैं। ऐसे स्‍वार्थी, हठी, कपटी, दुराग्रही तथा झूठे लोग ही पाखण्‍ड को बढ़ावा देते हैं। अत: पाखण्‍ड का खण्‍डन करना अर्थात् ढौंग-फ़रेब को नष्‍ट करना सभी विवेकशील कर्मठ मनुष्‍यों का कर्तव्‍य ही नहीं धर्म है क्‍योंकि पाखण्‍ड करने वाले पाखण्‍डीयों का भाँडा फोड़ करना ही चाहिये क्‍योंकि ऐसे पाखण्‍डी अपनी ही नहीं बल्‍िक समाज, देश और संस्‍कृति की भी हानि करते हैं। पाखण्‍डी पाप का भागी तो है ही परन्‍तु पाखण्‍ड को देखकर चुप रहने वाला, उस पाखण्‍डी से भी बड़ा गुनाह करता है और अधिक पाप का भागी होता है। ठीक ही कहा है कि ज़ुल्‍म करना पाप है परन्‍तु ज़ुल्‍म को सहना महापाप होता है। प्राय: लोग ऐसी दलीलें देते हैं कि यह हमारा काम नहीं है, हमें क्‍या, हम क्‍यों बुरा बनें? पाखण्‍ड का खण्‍डन हम क्‍यों करें?
पाखण्‍िडयों का यही कार्य है कि भोली-भाली जनता को गुमराह करना ताकि अपना उल्‍लू सीधा कर सकें। पोपलीला करके ऐसे पाखण्‍डी, स्‍वार्थी और निकम्‍मे लोग जनता को लूटते हैं, दूसरों के परिश्रम से कमाए धन को धोखे से लूटते रहें, उसमें तो सब विवेकशील महानुभावों को आपत्ति होनी चाहिये। जो लोग थोड़ी सी भी बुद्धि के मालिक हैं उन्‍हें सम्‍भल जाना चाहिये तथा औरों को भी सचेत करना चाहिये जिससे इन पाखण्‍िडयों के माया (भ्रम) जाल से बच सकें। श्रीमद्भगवद्गीता का सुभाषित है - "परिप्रश्‍नेन" (गीता: 4/34) अर्थात् प्रश्‍नोत्तर करने से ज्ञान की वृद्धि होती है। जब तक हम स्‍वाध्‍याय नहीं करते या किसी विद्वान से प्रश्‍न नहीं करते, हमें ज्ञान प्राप्‍त नहीं हो सकता।
चलिये! आप के समक्ष इन पाखण्‍िडयों के कुछ पाखण्‍डों, काले करतूतों और कुकर्मों का पर्दाफ़ाश (भाँडाफोड़) करते हैं तथा वैदिक प्रमाणों तथा तर्क के साथ उनका खण्‍डन कर सही-सही मण्‍डन करते हैं। हमारे समाज में अनेक पाखण्‍डों को फैलाने में अहम् भुमिका निभाई है – पुराणों ने। समाज मे पनप रहे अनेक अन्‍धश्रद्धाओं और अन्‍धविश्‍वासों के स्रोत भी ये पुराण ही हैं और इन सब का यदि कोई मुख्‍य कारण है तो वह है – अज्ञान। स्‍वाध्‍याय की कमी के कारण प्राय: लोग ज्ञान मार्ग से भटक जाते हैं और अज्ञान के जाल में फँस जाते हैं। धर्महीन मनुष्‍य पशु समान होता है (मनु॰)।

नोट : हम पुराणों या भागवतादि को शत-प्रति-शत प्रामाणिक अथवा ग़लत नहीं बताते क्‍योंकि इनमें जो बातें वैदिक सिद्धान्‍तानुसार लिखी हैं, वे अवश्‍य ग्रहणीय और माननीय हैं, परन्‍तु इनमें जो बातें काल्‍पनिक, मनघड़त, वेद विरुद्ध या प्रकृति नियम के विरुद्ध तथा पाखण्‍डों (झूठ, कपट, और स्‍वार्थ) से ओत-प्रोत हैं वे सब अप्रामाणित होने से अमाननीय हैं जिसे एक अल्‍प-बुद्धि रखने वाला व्‍यक्‍ित भी मान नहीं सकता। पाठकवृन्‍द इन बातों को ग़लत अर्थों में न लें।
हम किसी भी मत-मज़हब, पन्‍थ-सम्‍प्रदाय या जाति-विशेष के अनुयायीयों को गुमराह करना या उनके दिलों को तोड़ना या ठेस पहँचाना नहीं चाहते, अपितु सब को धर्म अर्थात् सत्‍य से जोड़ने का प्रयास करना चाहते हैं। सत्‍य वही है जिसमें सब का हित और सम्‍मान हो। हम सभी धर्मप्रेमी पाठकों का समान रूप से सम्‍मान करते हैं चाहे वह किसी भी देश, प्रान्‍त, जाति अथवा सम्‍प्रदाय का क्‍यों न हो। किसी भी हाल में, किसी का भी दिल दुःखाना किसी को भी अच्‍छा नहीं लगता।
सत्‍य हर काल में, हर परिस्थिति में और सब के लिये सत्‍य ही होता है। सत्‍य सरल एवं सीधा होता है अतः सब को प्रिय लगता है। सत्‍याचरण ही मनुष्‍य को परमात्‍मा से जोड़ता है और झूठ, फ़रेब, छल, कपट, धोखा, स्‍वार्थ इत्‍यादि पाखण्‍ड ही परमात्‍मा से दूर करता है। हम परम पिता परमात्‍मा से प्रार्थना करते हैं कि सब को सद्-बुद्धि, सुमति और आत्‍मशक्‍ित प्रदान करें ताकि सब सत्‍य को ग्रहण और अधर्म को त्‍यागने में तत्‍पर रहें और धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्‍ित कर अमूल्‍य मनुष्‍य योनि को सफल बना सकें ! सत्‍य ही ईश्‍वर है और ईश्‍वर ही सत्‍य है - इत्‍योम्।
विशेष: आर्य समाज के संस्‍थापक एवं युग प्रवर्तक महर्षि दयानन्‍द सरस्‍वती को स्‍व॰ विद्याशंकर शास्‍त्री ने अपने हृदय के भाव कविता के रूप में समर्पित किये हैं:

मैं दिल में "ओ३म्" जिगर में "वेद" का सामान रखता हूँ।
"वैदिक धर्म" में सब से बड़ा ईमान रखता हूँ।।
हमेशा ‍िज़न्‍दगी को बेसरो सामान रखता हूँ।
चुकाऊँ ऋण दयानन्‍द का यही अरमान रखता हूँ।।
जो पैदा जहाँ में दयानन्‍द न होते।
तो यहाँ पर किसी के क़दम भी न होते।।
ख़ुशी भी न होती अलम भी न होते।
दयानन्‍द न होते तो हम भी न होते।।
कहूँगा पीर पैग़म्‍बर से तुम रुतबे में हारे हो।
दयानन्‍द चौदवीं के चाँद थे और तुम सितारे हो।।

महर्षि दयानन्‍द बेमिसाल तेरा काम। सैकड़ों हज़ारों हाँ लाखों प्रणाम।।
संदेश तेरा पाके मैं घर-घर में कहूँगा, तकलीफ़ मुसीबत को मैं हँस-हँस के सहूँगा।
दर-दर भटकता जाऊँगा बन कर तेरा ग़ुलाम।। महर्षि दयानन्‍द.......प्रणाम।।
घर-घर में तेरे नाम का नाला करूँगा मैं, दिल को जला-जला के उजाला करूँगा मैं।
बिक जाऊँ तेरे नाम पे या हो मेरा नीलाम।। महर्षि दयानन्‍द.......प्रणाम।।
मुझ को तो दयानन्‍द ने ही चलना सिखा दिया, गिरने से पहले उसने संभलना सिखा दिया। रस्‍ता दिखा रहा है दयानन्‍द का हर क़लाम।। महर्षि दयानन्‍द.......प्रणाम।।
कहना है मेरा अबलो ये चलता ही रहूँगा, जलना हो मुक़द्दर में तो जलता ही रहूँगा। संकल्‍प कर चुका हूँ कि आराम है हराम।। महर्षि दयानन्‍द.......प्रणाम।। (साभार: स्‍व॰ विद्याशंकर शास्‍त्री)

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Anonymous said...

धर्म का अर्थ - सत्य, न्याय एवं नीति (सदाचरण) को धारण करके कर्म करना एवं इनकी स्थापना करना ।
व्यक्तिगत धर्म- सत्य, न्याय एवं नीति को धारण करके, उत्तम कर्म करना व्यक्तिगत धर्म है ।
असत्य, अन्याय एवं अनीति को धारण करके, कर्म करना अधर्म होता है ।
सामाजिक धर्म- मानव समाज में सत्य, न्याय एवं नैतिकता की स्थापना के लिए कर्म करना, सामाजिक धर्म है । ईश्वर या स्थिरबुद्धि मनुष्य सामाजिक धर्म को पूर्ण रूप से निभाते है । लोकतंत्र में न्यायपालिका भी यही कार्य करती है ।
धर्म को अपनाया नहीं जाता, धर्म का पालन किया जाता है । धर्म पालन में धैर्य, संयम, विवेक जैसे गुण आवश्यक है ।
धर्म संकट- सत्य और न्याय में विरोधाभास की स्थिति को धर्मसंकट कहा जाता है । उस स्थिति में मानव कल्याण व मानवीय मूल्यों की दृष्टि से सत्य और न्याय में से जो उत्तम हो, उसे चुना जाता है ।
व्यक्ति विशेष के कत्र्तव्य पालन की दृष्टि से धर्म -
राजधर्म, राष्ट्रधर्म, मनुष्यधर्म, पितृधर्म, पुत्रधर्म, मातृधर्म, पुत्रीधर्म, भ्राताधर्म इत्यादि ।
जीवन सनातन है परमात्मा शिव से लेकर इस क्षण तक व अनन्त काल तक रहेगा ।
धर्म एवं मोक्ष (ईश्वर की उपासना, दान, पुण्य, यज्ञ) एक दूसरे पर आश्रित, परन्तु अलग-अलग विषय है ।
धार्मिक ज्ञान अनन्त है एवं श्रीमद् भगवद् गीता ज्ञान का सार है ।
राजतंत्र में धर्म का पालन राजतांत्रिक मूल्यों से, लोकतंत्र में धर्म का पालन लोकतांत्रिक मूल्यों से होता है । by- kpopsbjri