Monday, September 15, 2008

Human Duties

धर्म-कर्म और हम

धर्म-कर्म और हम परम पिता परमात्‍मा ने सृष्टि की आदि में सब मनुष्‍यों के हितार्थ वेद का ज्ञान (वेद अर्थात् ज्ञान) सब से पवित्र चार ऋषियों (अग्नि, वायु, आदित्‍य और अंगिरा के द्वारा क्रमशः ऋक्, यजुः, साम और अथर्व) को प्रदान किया और कालान्‍तर में वही ईश्‍वरप्रदत्त वेद-ज्ञान को धार्मिक महानुभावों ने पुस्‍तकों के रूप में सुरक्षित रखा और वह आज भी ऋग्‍वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के नाम से प्रचलित और सुरक्षित हैं। विश्‍व के सभी सुशिक्षित विद्वान लोग भी यही मानते हैं कि "संसार की सर्वप्रथम लिखित पुस्‍तक ‘ऋग्‍वेद’ है। प्रत्‍येक मनुष्‍य के गुण, कर्म और स्‍वभाव एक दूसरे से अलग-अलग होते हैं और यही कारण है कि जब से यह दुनियाँ बनी है तब से आज तक अच्‍छे लोगों के साथ बुरे लोग भी विद्यमान रहते हैं और आगे भविष्‍य में भी इसी प्रकार रहेंगे। कोई भी युग ऐसा नहीं था, न ही वर्तमान में है और न ही भविष्‍य में होगा, जब मात्र अच्‍छे लोग होंगे या केवल बुरे लोग रहेंगे। सत्‍युग, द्वापर, त्रेता और वर्तमान कलियुग, हर युग में दोनों ही प्रकार के लोग रहे हैं। हर युग में धर्म के साथ अधर्म रहा है और आगे भी रहेगा क्‍योंकि मनुष्‍य ग़लतियों का पुतला है। जी हाँ! ग़लतियाँ केवल मनुष्‍य ही करता है, पशु नहीं करते क्‍योंकि पशु प्रकृति नियम का उलंघन नहीं कर सकते क्‍योंकि उनमें कर्म करने की स्‍वतन्‍त्रता नहीं है जैसे कि मनुष्‍य में है। स्‍वतन्‍त्रता के कारण मनुष्‍य ग़लतियों पर ग़लतियाँ करता है और विधि के विधानानुसार अपने कर्मों का फल भोगता है। धर्म हमें कर्म करने की सही जानकारी देता है और जो मनुष्‍य धर्म को नहीं जानता, धर्म उसकी रक्षा नहीं करता "धर्मो रक्षति रक्षिताः" अर्थात् धर्म का पालन करने वाले व्‍यक्ति की (हर परिस्थिति में) धर्म ही रक्षा करता है। । संसार में जितने भी मनुष्‍य रहते हैं उन को धर्म और अधर्म के विषय में जानकारी अवश्‍य होगी और होनी भी चाहिये क्‍योंकि धर्महीन व्‍यक्ति पशु के समान होता है – ऐसा महर्षि मनु महाराज कहते हैं। इस संसार में आज भी ऐसे अनेक लोग विद्यमान हैं जो ‘धर्म-कर्म’ के बारे में अधूरा अथवा विपरीत ज्ञान रखते हैं। कुछ लोग तो ‘धर्म’ के सही स्‍वरूप को जानना ही नहीं चाहते क्‍योंकि वे इस अज्ञान में रहते हैं कि जो वे जानते हैं बस वही ‘धर्म’ है। पत्‍येक मनुष्‍य को धर्म के मर्म को जानने का पूरा-पूरा अधिकार है। जो धर्म के सही स्‍वरूप को जानने का प्रयास नहीं करता या जानना ही नहीं चाहता, उसे महर्षि मनु महाराज की भाषा में ‘पशु’ कहा जाए तो कुछ ग़लत नहीं होगा। धर्म क्‍या है, इसके कौन से लक्षण हैं, कौन से नियम हैं, उसको कैसे जानें, मानें और व्‍यवहार में लाएँ अर्थात् धर्म का पालन कैसे करें – इसपर कुछ चिन्‍तन करते हैं।  साधारण भाषा में धर्म का अर्थ है – मनुष्‍य के लिये करने योग्‍य कर्म या "कर्तव्‍य"। मनुष्‍य का क्‍या कर्तव्‍य है, उसे क्‍या करना चाहिये या क्‍या नहीं करना चाहिये – इस पैमाने को ही धर्म कहते हैं।  दार्शनिक भाषा में 'धर्म' की परिभाषा आर्ष ग्रन्‍थों के अनेक ऋषियों ने अपने-अपने शब्‍दों में की है परन्‍तु उन सब का तात्‍पर्य एक ही है जैसे – "धारणाद्धर्ममित्‍याहुः" अर्थात् जिसके धारण करने से किसी वस्‍तु की स्‍िथति रहती है, उसे 'धर्म' कहते हैं।  वैशेषिक दर्शन (वैशेषिक 1/2) के अनुसार "यतोऽभयुदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः" अर्थात् जिससे (इस संसार में) भोग और (मृत्‍योपरान्‍त) मोक्ष की सिद्धि हो वह धर्म है अर्थात् जिससे इह लोक और परलोक सुधरता है वह धर्म है।  "श्रुतिः स्‍मृतिः सदाचारः स्‍वस्‍य च प्रियमात्‍मनः। एतच्‍चतुर्वधिं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्‍य लक्षणत्॥" (मनु॰) अर्थात् "श्रुति=वेद, स्‍मृति=वेदानुकूल आप्‍तोक्‍त मनुस्‍मृत्‍यादि शास्‍त्र, सत्पुरुषों का आचार जो सनातन अर्थात् वेद द्वारा परमेश्‍वरोक्‍त प्रतिपादित कर्म्‍म और अपने आत्‍मा में प्रिय, अर्थात् जिसको आत्‍मा चाहता है, जैसा कि सत्‍यभाषण – ये चार धर्म के लक्षण अर्थात् इन्‍हीं से धर्म्‍माधर्म्‍म का निश्‍चय होता है। जो पक्षपातरहित न्‍याय, सत्‍य का ग्रहण, असत्‍य का सर्वथा परित्‍यागरूप आचार है, उसी का नाम ‘धर्म’ और इससे विपरीत जो पक्षपातरहित अन्‍यायचरण, सत्‍य का त्‍याग और असत्‍य का ग्रहणरूप कर्म है, उसी को ‘अधर्म’ कहते हैं।  महर्षि दयानन्‍द सरस्‍वती ने अपने अमर ग्रन्‍थ "सत्‍यार्थ प्रकाश" में बहुत ही सरल शब्‍दों में बताया है कि "धर्म वह है जिसमें परस्‍पर किसी का विरोध न हो अर्थात् धर्म एक सार्वभौम वस्‍तु है जिसका किसी विशेष देश, जाति तथा काल से ख़ास सम्‍बन्‍ध नहीं होता" (स॰ प्र॰)।  "जो ईश्‍वर की आज्ञा का यथावत् पालन और पक्षपातरहित न्‍याय सर्वहित करना है, जो कि वेदोक्‍त होने से सब मनुष्‍यों के लिये एक ही मानने योग्‍य है, वह 'धर्म' कहलाता है" (स॰ प्र॰)।  "जो न्‍यायचरण सबके हित का करना आदि कर्म हैं उनको 'धर्म' और जो अन्‍यायचरण सब के अहित के काम करने हैं उनको 'अधर्म' जानो" (व्‍यवहारभानु)। धर्म की सरलतम परिभाषा है कि "स्‍वस्‍य च प्रियमात्‍मनः" (मनु॰) इस श्‍लोकांश का अर्थ संक्षेप में ऊपर लिख आए हैं, उसी का विस्‍तार हम यहाँ करते हैं कि "जैसा हमारी आत्‍मा को अच्‍छा लगे या व्‍यवहार आप अपने लिये दूसरों से चाहते हैं वैसा ही व्‍यवहार आप भी दूसरों से करें।" क्‍या कोई चाहता है कि दूसरे आप के धर में आकर चोरी करें, आप से पूछे बिना आपकी वस्‍तुओं का प्रयोग करें, आप के पीछे आपकी बुराई करें या निन्‍दा करें, आपकी बहु-बेटियों से दुर्व्‍यवहार करें, आपके छोटे-छोटे बच्‍चों को प्‍यार देने के बजाय उनसे ग़लत ढंग से बात करें और बिना कारण के मारें इत्‍यादि? क्‍या आप चाहते हैं कि आपके क़ीमती गाड़ी/वाहन (कार) को देखकर दूसरों में मन में जलन हो? क्‍या आप चाहते हैं कि आप पेट भर खाएँ और आपके सामने बैठा हुआ व्‍यक्ति (आपका मित्र, रिश्‍तेदार या पड़ोसी) भूखा बैठा रहे और यह जानते हुए भी आप उससे खाने के लिये नहीं पूछें? क्‍या ऐसा व्‍यवहार आप करेंगे या कर सकते हैं? यदि नहीं! कदाचित् नहीं! तो अभी भी आप में धार्मिक्‍ता जीवित है, आप में मानवता है। अतः आप भी दूसरों से अच्‍छे से अच्‍छा बर्ताव करें। ऐसा व्‍यवहार कदाचित् न करें जैसा व्‍यवहार आप नहीं चाहते कि दूसरे आप के साथ कभी करें! बस यही धर्म है। अच्‍छा करेंगे तो बदले में अच्‍छा पाओगे और बुरा करेंगे तो बुरा ही हाथ आएगा। अंग्रेज़ी में कहावत है – Action and reaction are equal and opposite अर्थात् जैसा करोगे वैसा पाओगे। बस यही धर्म है। अब वे कौन से कर्म हैं जो मनुष्‍यों को करने चाहियें और कौन से कर्म नहीं करने चाहियें, इस विषय पर महर्षि मनु महाराज ने उन कर्मों को 'धर्म के लक्षण' नाम दिया है – "धृतिः क्षमा दमोऽस्‍तेयं शौचमिन्‍िद्रयनिग्रहः। धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्।।" (मनु॰ 6/92) अर्थात् धर्म के दस लक्षण हैं:- 1. धृति (धैर्य धारण करना, र्धर्यवान बनना, धीरज न खोना)। 2. क्षमा (दूसरों की ग़लतियों को माफ़ करना, नज़र-अन्‍दाज़ कर देना)। 3. दम (हर परिस्थिति में आत्‍म संयम बनाए रखना, अपना आपा न खोना)। 4. अस्‍तेय (किसी की परिस्थिति में कभी किसी की चोरी न करना), 5. शौच (आत्मिक, मानसिक और शरीरिक स्‍वच्‍छता बनाए रखना तथा उसके लिये हर सम्‍भव प्रयास करते रहना), 6. इन्‍िद्रयनिग्रह (इन्‍िद्रयों पर नियंत्रण करना – यह बहुत ही कठिन कार्य है परन्‍तु अभ्‍यास और आत्‍म-विश्‍वास द्वारा सब कुछ सम्‍भव है), 7. धीः (विवेकशीलता अर्थात् कर्म करने से पूर्व अपने विवेक का प्रयोग करना, धर्म-अधर्म को ध्‍यान में रखकर ही कर्म करना), 8. विद्या (ज्ञान की वृद्धि करना क्‍योंकि ज्ञान रहित कर्म ठीक-ठीक फल प्रदान नहीं करता)। 9. सत्‍याचारण (सत्‍य का मन, वचन और कर्म से पालन करना, सत्‍य को अपनाना और 10. अक्रोध (कभी क्रोध न करना और यदि किसी बात पर क्रोध आने लगे तो उस समय धर्म क इस लक्षण "अक्रोध" को स्‍मरण करना कि मुझे क्रोध नहीं करना है। ‘वैदिक धर्म’ और ‘मानवता’ ‍के ये ही दस लक्षण हैं और जो व्‍यक्ति इन दसों नियमों या लक्षणों का पालन करता है वह ‘धर्मात्‍मा’ कहाने योग्‍य है। हम किसी भी व्‍यक्ति को, उसके गुण, कर्म, स्‍वभाव जाने बिना ‘धर्मात्‍मा’ की उपाधि देते हैं, वह ग़लत है और जो वास्‍तव में धर्मात्‍मा हैं उनकी कद्र नहीं करते। धर्म मनुष्‍य को जीवन जीने की कला सिखाता है, मनुष्‍य को मनुष्‍य बनना सिखाता है। जी हाँ! धर्म ही मनुष्‍य को मनुष्‍य बनना सिखाता है। जो व्‍यक्ति धर्म को अपने जीवन का अभिन्‍न अंग समझकर अपने जीवन में आचरण में लाता है वह व्‍यक्ति ‘धार्मिक" या "धर्मात्‍मा" कहाता है। मन्दिर में जाना, नंगे पैर पैदल यात्रा करके मन्दिर जाना, माथे पर चंदन या लाल, काले, पीले इत्‍यादि अनेक प्रकार के अनेक रंगों से तिलक लगाना, धोती-कुर्ता या लाल, पीले, केसरी, भगवे रंग के वस्‍त्र पहनना, मन्‍त्र लिखे शॉल/कपड़े धारण करना, माथे पर चंदन की लकीरे खींचना, हाथ में माला फेरना, मुँह/शरीर को भस्‍म लगाना, अनेक दिनों तक नहीं नहाना और बाल बढ़ाकर जटायू बनाना, नंगे रहना (वस्‍त्र धारण न करना), नदी-विशेष या झरने-विशेष या स्‍थान-विशेष पर जाकर उसे पवित्र मानकर नहाना या डुबकी लगाना या उस स्‍थान के जल को अपने घर में सम्‍भाल कर रखना, जाने बग़ैर किसी को भी को दान-दक्षिणा देना (दान-दक्षिणा इत्‍यादि सुपात्र को ही देना चाहिये, कुपात्र को नहीं), लोकैषणा वश सब के सामने किसी को दान देना, आदि इत्‍यादि करने से कोई धर्मिक या धर्मात्‍मा नहीं बन जाता – यह सब पाखण्‍ड है, दिखावा है, धर्मिक बनने का प्रदर्शन है, अपने-आप को धोखा देना है, स्‍वयं को ठगना है, दूसरो को फ़रेब देना है यदि आप धर्म के बताए मार्ग पर नहीं चलते। हमारे देश में हज़रों नहीं, लाखों की संख्‍या में मन्दिर हैं, लाखों की संख्‍या में पुजारी हैं, करोड़ों की संख्‍या में लोग हैं जो मन्दिरों में जाकर माथा टेकते हैं, फूलों की मालाएँ चढ़ाते हैं, मूर्तियों पर अरबों रुपयों के फूलों के हार, वस्‍त्र, भेंटें और गहने चढ़ाते हैं, आप क्‍या समझते हैं कि ये सब धर्मिक हैं या मानवता के धर्म का पालन करते हैं? नहीं! नहीं! ये सब पाखण्‍ड है, दिखावा है यदि अपने व्‍यवहार में धर्म का पालन नहीं करे। हमारे ही देश में अनेकों लोग रात को भूखा सोते हैं, मन्दिरों के बाहर दानों हाथ फैलाकर भीख माँगते हुए नज़ार आते हैं, हमारी फैंकी हुई पत्तलों की जूठन खाते हैं, क्‍या ये इन्‍सान नहीं हैं? ईश्‍वर की बनाई हुई सजीव मूर्तियाँ नहीं हैं? क्‍या हमारा धर्म इनकी सहायता करने से रोकता है? क्‍या हम लोगों का धर्म नहीं है कि जो धन हम जड़ मूर्तियों के ऊपर सजाने में ख्‍़ार्च करते हैं, क्‍या इन ग़रीबों को बसाने में ख़र्च नहीं कर सकते? मनुष्‍य की बनाई जड़ मूर्तियों की तो हम ख़ूब सेवा करते हैं जहाँ से हमें तनिक भी लाभ नहीं पहँचता और दूसरी ओर परमात्‍मा की बनाई मूर्तियों को धुतकारते हैं। यह धर्म नहीं अधर्म है। स्‍मरण रहे! यदि आपके मन में किसी के लिये कोई दया नहीं, दूसरों के प्रति द्वेष भावना और शत्रुता है, ग़रीबों के प्रति कोई हमदर्दी नहीं है, दुःखियों के लिये कोई सहानुभूति नहीं है, किसी के आँसू पौंछने में शर्म आती है, किसी की मदद नहीं कर सकते, भूखे को अन्‍न नहीं खिला सकते, प्‍यासे को पानी पिला नहीं सकते, किसी से हँस कर बात नहीं कर सकते तो समझो आप में धार्मिक्‍ता नहीं है, आप धार्मिक नहीं हैं। हमारे देश में अनेक क़त्‍लखाने हैं जहाँ प्रतिदिन हज़ारों नहीं लाखों में गाएँ, भैंसें, भेड़-बकरियाँ इत्‍यादि मूक पशुओं की निमर्म् हत्‍याएँ होती हैं और उनके अलावा ऐसी अनेक दुकानें खुली है जहाँ आपकी आखों के सामने जीवित मुर्गे-मुर्गियाँ की गर्दनें काटकर बेचा जाता है क्‍योंकि स्‍वयं को ‘मनुष्‍य’ और ‘धर्मिक’ कहाने वाला अधर्मी और पाखण्‍डी प्राणी (मनुष्‍य) उन पशुओं के माँस-हड्डियों को अपने घर के बर्तनों में पकाकर अपने पशुवृति वाले मित्रों के साथ बड़े चाव से खाता है। क्‍या मनुष्‍य का यही धर्म है? आप कितना भी यज्ञ करो, कितने ही सत्‍संग सुना, कितनी संध्‍याएँ कर ला, कितने भी मन्दिरों में जाओ, कितनी भी मालाएँ जपो, कितनी भी यात्राएँ करो, कितना भी दान करो – ये सब बेकार हैं यदि आप पशु माँस खाते हैं, माँसाहारी हैं, समुद्र या मीठे पानी की मच्‍छी खाते हैं, किसी भी पक्षी का अण्‍डा या अण्‍डे से बने पदार्थ (जैसे केक और पेस्‍टरी आदि) खाते हैं क्‍योंकि आप उतने ही पाप के भागी हैं जितने पशु हत्‍यारे होते हैं। यदि आप मदिरा पान करते हैं, शराब (बीअर, वाईन, व्हिस्‍की, जिन, वोडका, शैपेन, देसी भटृटी का शराब, थर्रा इत्‍यादि नशीले पदार्थ) पीते हैं, बीड़ी, सिगरेट, चुरूट, हुक्‍का इत्‍यादि पीते हैं या मादक पदार्थ (Drugs) जैसे चरस, गान्‍जा, कोकिन, हिरोइन, गर्द आदि का सेवन करते हैं तो आप धर्मात्‍मा कभी नहीं बन सकते। याद रहे! जब तक आपके खान-पान, रहन-सहन, आचार-विचार तथा कर्म में शुद्धता नहीं आती, तब तक आप धर्म के दायरे से बहूत दूर हैं। याद रहे कि कृत कर्मों का फल अवश्‍यमेव भुगतना पड़ता है। कर्मों के फल या दण्‍ड से कोई भी (स्‍वयं ईश्‍वर भी) छुड़ा नहीं सकता। शुभ कर्मों अर्थात् धार्मिक कर्मों का फल सुख (जाति, आयु और भोग द्वारा सुख) और उसके विपरीत अशुभ कर्मों अर्थात् अधार्मिक कर्मों का फल मात्र दुःख के रूप में ही प्राप्‍त होता है। स्‍मरण रहे! यह ईश्‍वरीय व्‍यवस्‍था (वेद कथन) है कि जो व्‍यक्ति धर्म का पालन करता है वह जीवन में सदा सुखी, उत्‍साही, निर्भय, बलवान, संतोषी और आनन्दित रहता है और जो उसके विपरीत चलता है सदा दुःखी रहता है। जो लोग चोरी, अन्‍याय और दुष्‍कर्म करते हैं, मन-वचन-कर्म में समानता नहीं रखते, झूठ-फ़रेब करते हैं वे लोग कभी सुखी नहीं रह सकते। सत्‍य को धारण करना सब से बड़ा धर्म है और झूठ बोलना सब से बड़ा पाप है। दुःख के साथ कहना पड़ता है कि "नास्तिक लोगों ने परमात्‍मा को इतना बदनाम नहीं किया है जितना कि झूठे धर्मिक लोगों ने किया है।" जब मूल में भूल होती है जो धर्म अधर्म बन जाता है। अतः सब मनुष्‍यों को चाहिये कि वे "धर्म" के सही अर्थ को जानें और उसे अपने जीवन में उतारने का प्रयास करें तो ही मनुष्‍य सही मायनों में ‘मनुष्‍य’ बन सकता है। आशा है कि हम अपने आप को मनुष्‍य समझने वाले "धर्म" (वैदिक धर्म) का पालन करें और "मनुष्‍य" बनें। मनुष्‍य ही ‘आर्य’ (श्रेष्‍ठ) बन सकता है अन्‍यथा अपने नाम के आगे या पीछे ‘आर्य’ लिखने से कोई ‘आर्य’ नहीं बनता। परमात्‍मा सब को सद्बुद्धि प्रदान करे!!! <<<<<

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