Monday, September 15, 2008

Diwali


याद करो आज से ठीक 122 वर्ष पूर्व दिवाली की उस सन्‍ध्‍या को जब वर्तमान युग-प्रवर्तक महर्षि दयानन्‍द सरस्‍वती ने अपने जीवन की सन्‍ध्‍या समाप्‍त होने से पूर्व जगत् के असंख्‍य बुझे दीपकों को प्रज्‍वलित किया और हम से सदा-सदा के लिये विदा हो गए। ईश्वर की लीला देखिये - दिवाली की उस काली अमावस्‍या में एक ओर संसार के लोग दिवाली की ख़ुशियाँ मना रहे थे और दूसरी ओर "आर्य समाज" में मातम छा गया क्‍योंकि आर्य समाज का सूर्य सदा के लिये अस्‍त हो गया। "आर्य समाज" के इतिहास का एक पन्‍ना अन्‍धेरे से काला हो गया तथा एक प्रज्‍वलित चमकते सूर्य को सदा के लिये ग्रहण लगा दिया। उसी दिन महर्षि दयानन्‍द का अजमेर में देहावसन हुआ था।
दिवाली का पर्व हमें दो बातों की याद दिलाता है – एक, मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्‍द्र की अयोध्‍या में वापसी की तथा दूसरे, आधुनिक युग-प्रवर्तक और महान सुधारक महर्षि दयानन्‍द सरस्‍वती ("आर्य समाज" के संस्‍थापक) की, जिनकी पुण्‍य-तिथि दिवाली के ही दिन पड़ती है। जब-जब ‘दिवाली’ (दीपावली अर्थात् प्रज्‍वलित दीपकों की लडि़याँ या वलियाँ) अर्थात् ‘प्रकाश’ का चम-चमाता हुआ त्‍यौहार आएगा तब-तब "आर्य समाज" के असंख्‍य सदस्‍यों को ही नहीं अपितु विश्व के अनेक बुद्धिजीवी लोगों को ‘बाल-ब्रह्मचारी देव दयानन्‍द’ के जीवन की अनेक घटनाएँ याद आती रहेंगी। श्री रामचन्‍द्र और महर्षि दयानन्‍द यद्यपि आज हमारे बीच नहीं हैं परन्‍तु जब तक सूर्य और चन्‍द्रमा में भौतिक प्रकाश रहेगा तब तक लोग दीपावली का त्‍यौहार मनाते रहेंगे और उन महान आत्‍माओं को याद करते रहेंगे।
आर्यवर्त (आधुनिक ‘भारत’) के लोग पिछले नौ लाख वर्षों से दीपावली का त्‍यौहार मनाते आ रहे हैं और वह भी केवल दिवाली के अवसर पर ही अपने मकानों की सफ़ाई कर और रात्रि के समय उसे दीपक जलाकर (आधुनिक समय में छोटी-बड़ी ‍बत्तियों की सहायता से) रौशन करते हैं क्‍योंकि आज से लगभग नौ लाख वर्ष पूर्व (त्रोता युग की समाप्‍ित के समय) अमावस्‍या की सन्‍ध्‍या वेला में, चौदह वर्ष की वनवास की अवधि पूर्ण कर, मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्‍द्र का अयोध्‍या नगरी में आगमन हुआ और वहाँ के रहवासियों ने श्री राम के स्‍वागत् में अपने-अपने मकानों के बाहर घी के दिये जलाकर अपनी प्रसन्‍नता को प्रदर्शन किया और वही परम्‍परा आज भी जारी है। दिवाली से प्रेरणा लेनी चाहिये कि हम भी अपने हृदयदेश की शुद्धि करें, अन्‍दर में जमे काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्‍या, द्वेष, मान-अपमान, अहंकार इत्‍यादि मैल की सफ़ाई करें और उसके स्‍थान पर धर्म के लक्षणों को धारण करें, यम-नियमों का पालन करें। बाहर की सफ़ाई से अन्‍दर की शुद्धता का महत्‍व अधिक होता है।
महर्षि दयानन्‍द सरस्‍वती 19वीं शताब्‍दी के एक ऐसे योगीराज ब्रह्मचारी हुए हैं जिन्‍होंने सच्‍चे शिव की खोज में अपना जीवन लगा दिया और विश्‍व के लागों को भी सच्‍चे शिव के दर्शन कराये। दिवाली की सन्‍ध्‍या (ई॰ सन् 1883 आज से ठीक 122 वर्ष पूर्व) को महर्षि ने अजमेर में प्राण त्‍यागते हुए और जो अन्‍ितम शब्‍द कहे, वे विचारणीय हैं " हे ईश्‍वर – तेरी अच्‍छा पूर्ण हो" – ये उनके सच्‍चे ‘ईश्‍वर प्रणिधान’ की भावना को दर्शाते हैं।
यदि हम महर्षि के जीवन को पढ़ें और पाएँगे कि उन्‍होंने कभी सत्‍य का साथ नहीं छोड़ा, समझौता नहीं किया अर्थात् वे सदैव सत्‍य मार्ग पर चलते रहे, मार्ग में अनेक विपदाएँ तथा कठिनाइयाँ आईं परन्‍तु वे सदैव वैदिक सिद्धान्‍तों पर अडिग रहे और सब को सत्‍य मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते रहे। उन्‍होंने मनुष्‍य के अन्‍तःकरण में पड़े अज्ञानता के अन्‍धकार को ज्ञान के प्रकाश से प्रज्‍वलित करने का प्रयास करते रहे। अन्‍धविश्‍वास और अन्‍धश्रद्धा के दल-दल में धन्‍से अज्ञानी लोगों को निकाला और सत्‍यार्थ प्रकाश दिखाया। उनके जीवन का एक ही लक्ष्‍य रहा "संसार के समस्‍त लोगों को जन्‍म-मरण के बन्‍धन से छुड़ाकर मुक्‍ित दिलाना"। भटके हुए लोगों को सही रास्‍ता दिखाना, सत्‍य मार्ग दर्शाना, वापस वैदिक मार्ग पर लाना। उनका मन्‍तव्‍य था कि ‘वेद’ ही परम पिता परमात्‍मा का अनादि ज्ञान है तथा सब सत्‍य विद्याओं का पुस्‍तक है जिसका स्‍वाध्‍याय अर्थात् पढ़ना-पढाना और सुनना-सुनाना सब श्रेष्‍ठ मनुष्‍यों का परम धर्म (कर्तव्‍य) है क्‍योंकि वेद को पढ़े, समझे और आचरण के बिना मनुष्‍य अपने जीवन के अन्‍ितम लक्ष्‍य को प्राप्‍त नहीं हो सकता और मुक्‍ित का यही एकमात्र मार्ग है।
महर्षि ने पौराणिक पण्‍िडतों से "मूर्तिपूजा" और "वैदिक सिद्धान्‍तों" के अनेक विषयों पर अनेक शास्‍त्रार्थ किये और उनको निरुत्तर कर दिया। सब लोगों के कल्‍याणार्थ अपनी छोटी सी आयु में 25 पुस्‍तकें भी लिखीं और सब की सब जगप्रसिद्ध पुस्‍तकें हैं। महर्षि दयानन्‍द कृत पुस्‍तकें: आर्याभिविनय, सत्‍यार्थ प्रकाश, व्‍यवहारभानु, काशी शास्‍त्रार्थ, सत्‍यधर्म विचार, आयौद्देश्‍य-रत्‍नमाला, संस्‍कारविधि, ऋग्‍वेदादिभाष्‍यभूमिका, ऋग्‍वेद भाष्‍य, यजुर्वेद भाष्‍य, यजुर्वेद भाषा भाष्‍य, वेद विरुद्ध मत खण्‍डन, नारायण स्‍वामी मत खण्‍डन, भ्रमोच्‍छेदन, भ्रान्‍ितनिवारण, पंचमहायज्ञ विधि, गोकरुणा निधि, वेदांगप्रकाश, वि‍वाह पद्धति, संस्‍कृत वाक्‍य प्रवोध, वेदभाष्‍य का नमूना, अष्‍टाध्‍यायी भाष्‍य, प्रतिमा पूजन विचार, वेदान्‍त भ्रान्‍ित निवारण और स्‍वमन्‍तव्‍याप्रकाश। क्‍या आप जानते हैं कि उपरोक्‍त ग्रन्‍थों को लिखने के लिये स्‍वामी जी ने 3000 से भी अधिक आर्ष ग्रन्‍थों तथा अन्‍य मत-मज़हब-सम्‍प्रदायों के पुस्‍तकों का भी स्‍वाध्‍याय किया था। महर्षिकृत "सत्‍यार्थप्रकाश" ग्रन्‍थ सर्वाधिक लोकप्रिय है जिसका अनुवाद भारत तथा विदेया की अनेक भाषाओं में हुआ है।
महर्षि 59 वर्ष की आयु में इस संसार से विदा हुए परन्‍तु उनका मार्गदर्शन मनुष्‍य जाति को सदैव प्राप्‍त होगा। महर्षि के मुख्‍य कार्य हैं- "आर्य समाज" की स्‍थापना, वेदमन्‍त्रों का सही अर्थ करने की विधि, देशवासियों को "स्‍वराज्‍य सर्वोपरि", "स्‍वतन्‍त्रता" तथा "एक राष्‍ट्रभाषा" का पाठ पढ़ाया, नारि का सम्‍मान करना, अनिवार्यरूप नारि प्रशिक्षण पर ज़ोर दिया, जाति-पाती, छूआ-छूत, सतीप्रथा, पाखण्‍ड, अन्‍धविश्‍वास, अन्‍धश्रद्धा इत्‍यादि महारोगों का निवारण हेतु निर्भकता से ‘पाखण्‍ड खण्‍िडनी पताका’ फहराई, मूर्तिपूजा का खण्‍डन करके सच्‍चे ‘शिव’ का दर्शन करया (ईश्‍वर का वैदिक स्‍वरूप और उसकी अनुभूति का उपाय – योग), वैदिक त्रोतवाद का समर्थन, एक निराकार परमात्‍मा की उपासना करना, मूर्तिमान और अमूर्तिमान (जड़) देवों की पूजा की विधि बताई, वेदों की ओर लौटने का आग्रह किया, यज्ञ करने की वैदिक रीति तथा अनेक कार्यों से परोपकार की भावना से ‘मनुष्‍य जाति की सेवा’ की। उनकी अन्‍त तक ‘मोक्ष’ की नहीं अपितु ‘परोपकार’ की तीव्र इच्‍छा रही। ऋषि तो अनेक हुए और होंगे परन्‍तु ऐसे महान व्‍यक्‍ितत्‍व के धनी को हम क्‍या कह सकते हैं – महर्षि से अधिक यदि कोई अन्‍य प्रभावशाली उपाधि हो सकती है तो वह मात्र ऋषिवर दयानन्‍द को ही जाती है।
अनेक लोग दुविधा में होते हैं कि आर्य समाजी ‘ऋषि निर्वाण दिवस’ का शोक मनाएँ या दिवाली पर्व की ख़ुशियाँ मनाएँ? ऐसे लोगों से हम मात्र इतना ही कहना चाहते हैं कि जो लोग महर्षि की मान्‍यताओं को स्‍वीकारते हैं और वैदिक धर्म का पालन करते हैं वे दिवाली के दिन महर्षि दयानन्‍द के कार्यों को अवश्‍य स्‍मरण करें, स्‍वाध्‍याय करें और अपने लक्ष्‍य से विचलित न होकर, हमेशा की तरह दिवाली का पर्व हर्षोल्‍लास के साथ अपने परिवार के अन्‍य सदस्‍यों के साथ अवश्‍य मनाएँ। महर्षि ने हमें सदैव प्रसन्‍न रहने की प्रेरणा दी है। दिवन्‍गतात्‍माओं के लिये शोक नहीं किया जाता और उनके लिये सच्‍ची श्रद्धान्‍जलि यही होती है कि हम उनकी शिक्षाओं को अपने जीवन में उतारें। दिवाली में अपने परिवार के सदस्‍यों के साथ यज्ञ करें, परमात्‍मा का धन्‍यवाद करें, अपने बड़ों का यथायोग्‍य आदर-सम्‍मान करें और छोटों को प्‍यार बाँटें, अपने मित्रों को अपने घर बुलाएँ, उनका मुँह मीठा कराएँ और ख़ुशियाँ मनाएँ। अपने कर्मचारियों को तोहफ़ा दें, ग़रीबों में प्रेम बाँटें तथा उन्‍हें वस्‍त्रादि प्रदान करें।
दिवाली के शुभावसर पर "लक्ष्‍मी-पूजन" (ऐसी पूजा जिससे परमलक्ष्‍य ‘मोक्ष’ की प्राप्‍ित हो) करें घट-घट में वसने वाले ‘नारायण’ (परम पिता परमात्‍मा) की उपासना करें तो ‘लक्ष्‍मी’ (प्रभु की कृपा) का घर में वास होता है। भौतिक लक्ष्‍मी आती है जाने के लिये अतः उसका कोई भरोसा नहीं परन्‍तु ‘नारायण-लक्ष्‍मी’ की कृपा हो जाए तो वारे-न्‍यारे हो जाते हैं – यही सही लक्ष्‍मी पूजन है।
महर्षिकृत ग्रन्‍थ "सत्‍यार्थ प्रकाश" वास्‍तव में सत्‍य का प्रकाश है। सत्‍यार्थ-प्रकाश को अपने जीवन में धारण करें, और इसे घर-घर पहँचाने का प्रयास करें। बाहर के प्रकाश के साथ-साथ अन्‍दर के प्रकाश को भी प्रज्‍वलित करें। बाहरी प्रकाश कुछ समय रहता है परन्‍तु सत्‍यार्थ-प्रकाश सदैव प्रकाश प्रदान करता है और मोक्ष के मार्ग तक पहुँचाता है। इस प्रकार की दिवाली मनाएँ - यही सच्‍ची दिवाली है।

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