Monday, September 15, 2008

Worship with folded hands

हाथ जोड़ झुकाए मस्‍तक
समस्‍त विश्‍व में जितने भी धर्म, मत, मज़हब, सम्‍प्रदायादि हैं और जो लोग ईश्‍वर की सत्ता को स्‍वीकार करते हैं, प्रायः सभी उसकी प्रार्थना करते समय हाथ जोड़ते हैं और अपना सिर झुकाते हैं जिस क्रिया से यह मालूम पड़ता है कि वे परमात्‍मा का ध्‍यान, प्रार्थना या उपासना कर रहे हैं परन्‍तु कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो अपने दम्‍भ, हठ, दुराग्रह और अभिमान के कारण प्रभु की प्रार्थना करते समय न तो हाथ जोड़ते हैं और न ही मस्‍तक झुकाते हैं क्‍योकि वे इसे अपनी झूठी आन-मान-शान के विरुद्ध समझते हैं या हो सकता है उन्‍हें ऐसा करने से लज्‍जा आती हो। ऐसे ही कुछ लोगों का कहना है कि हाथ जोड़ना और सर झुकाना उनके सिद्धान्‍त और मान्‍यता के विरुद्ध है। उनको कौन समझाए कि भला परम पिता परमात्‍मा - ईश्‍वर के समक्ष हाथ जोड़ने और सर झुकाने में कैसी लज्‍जा? चलो उन्‍हीं से पूछते हैं कि वे ईश्‍वर वन्‍दना के समय हाथ क्‍यों नहीं जोड़ते या मस्‍तक क्‍यों नहीं झुकाते?
हमारे पूछने पर स्‍पष्‍टीकरण मिला - "क्‍योंकि ईश्‍वर सर्वव्‍यापक, निराकार और सर्वान्‍तर्यामी है, हमारे अन्‍दर-बाहर और हमारे हाथों में, सिर में तथा हमारे प्रत्‍येक अंग-प्रत्‍यंग में समान रूप विद्यमान है अतः प्रार्थना करते समय हम हाथ किसको जोड़ें और मस्‍तक किसके सामने झुकाएँ, यह मात्र दिखावा है और इससे कोई लाभ नहीं होता है। हम किसी को हाथ जोड़ते हैं या सिर झुकाकर ‘नमस्‍ते’ करते हैं तो व्‍यक्‍ित का हमारे सामने उपस्‍िथत होना आवश्‍यक है और क्‍योंकि ईश्‍वर हमारे समक्ष नहीं है और परमात्‍मा सर्वान्‍तर्यामी होने से हमारे भावों को जानता है। शास्‍त्रों में भी ऐसा लिखा है अतः ईश्‍वर के लिये हाथ जोड़ना या मस्‍तक झुकाना उचित नहीं है। अपने बड़ों के सामने हाथ जोड़ना या मस्‍तक झुकाना ठीक है।"
उपरोक्‍त सब बातों को हम भी स्‍वीकारते हैं कि परमात्‍मा निराकार, अकाय, सर्वव्‍यापक, सर्वान्‍तर्यामी है, सदैव हमारे अंग-संग रहता है और साक्षी बनकर हमारी भावनाओं को भली-भान्‍ित जानता है। वेद में अनेक मन्‍त्र विद्यमान हैं (ओ३म् नमः शम्‍भवाय च मयोभवाय च, नमः शंकराय चमयस्‍कराय च, नमः शिवाय च शिवतराय च॥ यजुर्वेद: 16/41), (भूयिष्‍ठान्‍ते नम उक्‍ितं विधेम॥ यजुर्वेद: 40/16) – जिन में परमात्‍मा के लिये ‘नमः’ अर्थात् ‘नमन’ और ‘नमस्‍कार’ अर्थात् नम्रतापूर्वक स्‍तुति करना लिखा है। यदि हम अपने मित्र या व्‍यक्‍ित-विशेष का स्‍वागत् करते समय हाथ जोड़कर सिर झुका सकते हैं, तो क्‍या सर्वेश्‍वर के समक्ष, जो हमारे सामने, दाएँ, पीछे, बाएँ, नीचे, ऊपर सब स्‍थान में सदैव साथ रहता है, ‘नमन’ करते समय हाथ जोड़ना भूल जाते हैं तथा अपने मस्‍तक को झुका नहीं सकते? क्‍या हमें लज्‍जा आती है?
अब आप ही बताएँ कि - क्‍या ईश्‍वरीय वाणी वेद में कहीं भी ‘सन्‍ध्‍या’, ‘ध्‍यान’ या ‘प्रार्थना’ करने का विधान बताया है? नहीं। किस समय किस दिशा में किस आसन में कैसे बैठें, आँखें बन्‍द करके बैठें या आँखें खोलकर बैंठें और सन्‍ध्‍या, हवन या ध्‍यान के समय कौन से मन्‍त्रों का उच्‍चारण करें ..... इत्‍यादि का वर्णन लिखा है? नहीं। उपासना के समय हाथ कहाँ और किस मुद्रा में रखें, कहीं इस का कहीं वर्णन है? नहीं। यज्ञादि तथा ईश्‍वर-स्‍तुति-प्रार्थना-उपासना में कौन से मन्‍त्रों कब और कैसे जाप करें, क्‍या वेदों में कहीं लिखा है? नहीं .... इत्‍यादि अनेक प्रश्‍न उत्‍पन्‍न हो सकते हैं जिनकी जानकारी हमें ऋषिकृत ग्रन्‍थों से या ‍िफर योगीजनों के सान्‍िनध्‍य में रहकर ही मालूम की जा सकती हैं। उदाहरण के तौर पर महर्षि पत‍ञ्जलि ने योग-दर्शन में ‘ध्‍यान’ के समय ‘सुखासन’ में सीधे बैठने का तरीका बताया गया है अर्थात् जिस आसन में सुखपूवैक बैठ सकें, उस स्‍िथति में बैठकर प्रभु का ध्‍यान किया जा सकता है। इसका अर्थ यह कदाचित् नहीं है कि यदि कोई व्‍यक्‍ित किसी कारण सीधा बैठने में असमर्थ है तो क्‍या वह ‘ध्‍यान’ नहीं कर सकता? नहीं! कोई भी व्‍यक्‍ित जिस स्‍िथति में सुखपूर्वक बैठ सकता है, उसके लिये वही सुखासन है, चाहे वह नदी के किनारे बैठे, जंगल में कसी वृक्ष के नीचे बैठे या अपने घर के किसी कोने में बैठे, इससे ध्‍यान की विधि में कोई अन्‍तर नहीं पड़ता, अपने हाथों को दानों जाँघों पर रखे या गोदी में एक दूसरे के ऊपर रखे (बाएँ के ऊपर दायाँ रखे या दाएँ के ऊपर बायाँ रखे) इत्‍यादि बातों से कुछ नहीं होता अर्थात् जो स्‍िथति आपके अनुकूल हो, उसमें बैठकर ध्‍यान किया जा सकता है।
रही बात हाथ जोड़ने तथा मस्‍तक झुकाने की तो सुनिये! संसार में जो कोई हमारा थोड़ा सा भी काम करता है या सहायता करता है तो हम उसे अनेक बार हाथ जोड़कर मस्‍तक नमाते हुए धन्‍यवाद करते हैं और कृतज्ञता जताते हैं तो क्‍या हम परमात्‍मा के प्रति इतने कृतघ्‍न हो गए हैं कि जिस परमेश्‍वर ने हमें संसार की सब सुख-सुविधाएँ प्रदान की हैं, माता-पिता-भाई-बहन तथा मित्रों और गुरुजनों का दर्शन कराया है और उसका धन्‍यवाद करते समय हम उसे हाथ नहीं जोड़ सकते और सिर को झुका नहीं सकते? स्‍वार्थपूर्ति के लिये ग़लत लोगों के सामने हाथ जोड़कर या बाँधकर झुकना, सलामी भरना, मन में ईर्ष्‍या, द्वेष, छल और कपट होते भी उनकी चापलूसी करना तो आपको गवारा है परन्‍तु ईश्‍वर के सामने, जो हमें बिना माँगे ही सब-कुछ दे रहा है, उसको हाथ जोड़कर नमन करने में इतनी शर्म क्‍यों? चिन्‍तन करना पड़ेगा कि क्‍या हम मानवता के पथ से विचलित होकर कहीं दानवता की राह पर तो नहीं जा रहे?
और रही बात शास्‍त्रों की तो कौन से शास्‍त्रा में लिखा है प्रभु के समक्ष हाथ नहीं जोड़ें और मस्‍तक नहीं झुकाएँ? हमारे विद्वान पाठकव्न्‍दों ने अवश्‍य पढ़ा होगा कि महर्षि दयानन्‍द सरस्‍वती अपने अमर ग्रन्‍थ ‘सत्‍यार्थ प्रकाश’ का प्ररम्‍भ इस मन्‍त्र से करते हैं "ओ३म्। शन्‍नो मित्रः वरुणः शन्‍नो भवत्‍वर्य्यमा। शन्‍नऽइन्‍द्रो बृहस्‍पतिः शन्‍नो विष्‍णुरुक्रमः। नमो ब्रह्मणे नमस्‍ते वायो त्‍वमेव प्रत्‍यक्षं ब्रह्मासि। त्‍वामेव प्रत्‍यक्षं ब्रह्म वदिष्‍यामि ऋतं वदिष्‍यामि सत्‍यं वदिष्‍यामि तन्‍मामवतु तद्वक्तारमवतु। अवतु माम्। अवतु वक्तारम्। ओ३म् शान्‍ितश्‍चान्‍ितश्‍चान्‍ित॥" इस मन्‍त्र के शब्‍द इतने सरल हैं कि संस्‍कृत न जानने वाला व्‍यक्‍ित भी आसानी से समझ सकता है। गुरुवर दयानन्‍द ईश्‍वर को ‘प्रत्‍यक्ष’ (अपने समक्ष हाजि़र-नाजि़र जानकर, अपने हृदय/मन में विद्यमान) जानकर ही प्रार्थना करते हैं और प्रतिज्ञा करते हैं कि मैं जो भी कहूँगा (या लिखूँगा) मात्रा सत्‍य का ही पालन करूँगा ......इत्‍यादि। यदि आप मानते हैं कि वेद ईश्‍वरकृत हैं, तो आप को अवश्‍य मानना पड़ेगा कि परमात्‍मा सर्वव्‍यापक होने से हमारे भीतर-बाहर अप्रत्‍यक्ष (निराकार) होते हुए भी ज्ञान-चक्षुओं से देखें तो सर्वदा ‘प्रत्‍यक्ष’ है। अतः हाथ जोड़ने तथा मस्‍तक झुकाकर प्रार्थना करना पूर्णरूपेण वैदिक है।
[गुरुकुल कालवा के आचार्य पूज्‍य बलदेव जी महाराज ने अनेक ब्रह्मचारियों को वैदिक पद्धति से शिक्षा प्रदान की है और उनमें से एक हैं - जग-प्रसिद्ध योगीराज स्‍वामी रामदेव महाराज, जिनकी प्रार्थना करने की विधि इस प्रकार है – वे प्रार्थना के समय आँखें बन्‍द करते हैं, दोनों हाथ जोड़कर मस्‍तक से लगाकर शान्‍तभाव से प्रार्थना-मन्‍त्रों का उच्‍चारण करते हैं। अब आप ही बताएँ कि क्‍या वे वेद विरुद्ध आचरण करते हैं? हाथ जोड़ने से हृदय के भाव शुद्ध होते हैं और आखें बन्‍द करने से हम ईश्‍वर को अपने अन्‍दर ‘साक्षात’ अनुभव करते हैं। ]
स्‍मरण रहे कि मस्‍तक केवल परमात्‍मा के सामने अथवा अपने माता, पिता, गुरु, आचार्य और विद्वान अतिथि के सामने ही झुकाया जाता है, सब के सामने नहीं क्‍योंकि माता, पिता, गुरु, आचार्य और विद्वान अतिथि हमारे पूज्‍य होते हैं और उन से बहुत कुछ सीखते हैं। पति-पत्‍नी आपस में हाथ जोड़कर ‘नमस्‍ते’ करें तो आपसी प्रेम बढ़ता है। परम पिता परमात्‍मा सर्वोपरि है, वही हम सब का माता, पिता, गुरु, मित्र, सखा और सब कुछ है अतः हमारा कर्तव्‍य है कि जब भी प्रार्थना करें तो बड़ी श्रद्धा और प्रेम भाव से दोनों आखें मूँदकर अपने मन मन्‍िदर (हृदय) में प्रवेश करें, उस निराकार प्रभु के गुणों का ध्‍यान करें और दोनों हाथ जोड़कर, नम्रभाव से मस्‍तक झुकाकर नमन (नमस्‍कार) करें और उससे मित्र की भान्‍ित वार्तालाप करें, उसका धन्‍यवाद करें। ईश्‍वर पर पूर्ण विश्वास रखें - आपके सब उल्‍झे कार्य सुलझ जाएँगे।
एक और बात ध्‍यान में रखने योग्‍य है कि ‘नमस्‍ते’ दानों हाथों को जोड़कर की जाती है और अपने से बड़े को सिर नमाकर की जाती है। हाथ जोड़ने से मनुष्‍य में समर्पण भाव जागृत होता है और सिर नमाने से अहंकार शून्‍यता आती है। ‘नमस्‍ते’ करने से आपसी सद्-भावना उत्‍पन्‍न होती है एक-दूसरे के प्रति प्रेम बढ़ता, आपस के गिले-शिकवे दूर हो जाते हैं। ‘नमस्‍ते’ का अर्थ है – "मैं आपका सत्‍कार करता हूँ" या "मैं आपको साधुवाद देता हूँ"।
वैसे भी हाथ जोड़ना और मस्‍तक नमाते हुए ‘नमस्‍ते’ (आदर-सत्‍कार) करना भारतीय सभ्‍यता और संस्कृति की देन है, धरोहर है और पहचान है। भारत की मान-आन-शान है और आर्यों (श्रेष्‍ठ जनों) की पहचान है। अपने से बड़ों को ‘नमस्‍ते’ दोनों हाथ जोड़कर हृदय से लगाते हुए और थोड़ा सा मस्‍तक को झुकाते हुए की जाती है और ‘नमस्‍ते’ का उत्तर प्रसन्‍नतापूर्वक देना चाहिये। आज विदेश के अनेक देशों में हाथ जोड़कर झुकने का रिवाज़ प्रचलित है तथा अनेक मत-मतान्‍तरों तथा सम्‍प्रदायों के अनुयायियों ने भी ‘नमस्‍ते’ कहने की परम्‍परा को सहर्ष अपनाया है।
क्रिश्‍िचयन लोग गिरिजाघरों में हाथ जोड़ते है, सिर झुकाते हैं (चाहे मूर्तियों के आगे झुकते हैं या हाथ जोड़ते हैं)। इस्‍लाम के अनुयायी आर्यों की तरह निराकार अल्‍लाह (ईश्‍वर) की हाथ मिलाकर बन्‍दगी करते हैं। कहने का तात्‍पर्य यही है कि चाहे कोई भी क्‍यों न हो (हिन्‍दू, मुस्‍िलम, सिक्‍ख, ईसाई .....) सभी ईश्‍वर की उपासना के समय हाथ जोड़ते और मस्‍तक झुकाते हैं तो ‍िफर कुछ लोग, जो स्‍वयं को बहुत ज्ञानी-ध्‍यानी समझते हैं, ऐसा क्‍यों नहीं करते? मात्र ज्ञान प्राप्‍त करने से कोई ज्ञानी नहीं बनता, ज्ञान के साथ-साथ नम्रता और क्रिया (व्‍यवहार) भी आवश्‍यक होती है।
जो व्‍यक्‍ित ईश्‍वर के समक्ष हाथ नहीं जोड़ सकता और न ही मस्‍तक नवा सकता है, भला वह माता, पिता, गुरु तथा विद्वानों के आगे हाथ जोड़कर नमस्‍ते करता है तो वह ढौंग करता है, मात्र दिखावा ही करता है। रही बात शुभाशुभ भावनाओं की तो, इसे सर्वान्‍तर्यामी परमात्‍मा के सिवाय कोई नहीं जान सकता। यह सम्‍भव नहीं कि मनुष्‍य जैसा बाहर से दिखता है, अन्‍दर से भी वैसा ही हो, नहीं! मनुष्‍य ही मात्र ऐसा प्राणी है जो "स्‍वभाव से स्‍वार्थी प्रवृत्ति का होता है" और इस संसार में आकर प्रकृति के आकर्षण में और अधिक स्‍वार्थी हो जाता है। मन में कुछ और बाहर कुछ – मुँह में राम और बग़ल में छुरी, ऐसे लोगों से सावधानी बरतनी चाहिये, उनकी मीठी-मीठी बातों पर बातों में विष भरा होता है अतः ऐसे लोगों की बातों पर विश्‍वास करना स्‍वयं को धोखे में रखना है।।
आप जानते ही हैं आर्य समाजों में यज्ञोपरान्‍त यज्ञ-प्रर्थना अर्थात् ‘ईश-प्रार्थना’ गाते हैं - ‘यज्ञरूप प्रभे हमारे भाव उज्‍वल कीजिये’ और जिसके अन्‍त में "हाथ जोड़ झुकाएँ मस्‍तक वन्‍दना हम कर रहे" ऐसा कहते हैं। एक और प्रार्थना है "सुखी रहे संसार सब दुःखिया रहे न कोय" इस ईश-प्रार्थना के अन्‍त में भी लिखा है "हाथ जोड़ विनती करूँ सुनिये कृपा-निधान" क्‍या ये प्रार्थनाएँ वैदिक सिद्धान्‍तों के विरुद्ध हैं? हम मुँह से बोलें और उसे क्रिया में न लाएँ तो यह दिखावा/धोखा/कृतघ्‍नता नहीं? यदि उपरोक्‍त प्रार्थना वैदिक सिद्धान्‍तों के विरुद्ध है तो इसे "आर्य समाजों" में क्‍यों गाते हैं? आर्य समाज ही एक ऐसी सन्‍स्‍था है जहाँ सब कार्य/संस्‍कार वैदिक सिद्धान्‍तों ने अनुरूप होते हैं। वैदिक मान्‍यताओं को जानने और मानने वाले विद्वान कभी हाथ जोड़ने या सिर नमाने का विरोध नहीं करते और न ही करना चाहिये क्‍योंकि ईश्‍वर प्रार्थना के समय समर्पण भाव उत्‍पन्‍न करने के लिये भक्‍त यदि हाथ जोड़ता है और मस्‍तक झुकाता है तो बहुत अच्‍छी बात है, कोई बुराई नहीं है। कुछ लोग "हाथ जोड़ झुकाएँ मस्‍तक वंदना हम कर रहे" नहीं कहते उसके स्‍थान पर "प्रेम रस में तृप्‍त होकर वन्‍दना हम कर रहे" ऐसा गाते हैं – क्‍या यह ढौंग और असत्‍य नहीं है? ‘प्रेम रस में तृप्‍त’ होने वाला व्‍यक्‍ित कभी ऐसा बोल ही नहीं सकता क्‍योंकि प्रेमरस का अनुभव किया जाता है उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। ईश्‍वर वन्‍दना के पश्‍चात् ही परमात्‍मा का प्रेमरस प्राप्‍त होता है अतः "प्रेम रस में तृप्‍त होकर वन्‍दना हम कर रहे" ऐसा बालना पाखण्‍ड, डौंग और दिखावे के अतिरिक्‍त कुछ नहीं है।
"सन्‍ध्‍या में विशेषतः ‘नमस्‍कार मन्‍त्रों’ में सब को चाहिये कि वे आखें बन्‍द करें और दोनों हाथ जोड़कर मस्‍तक झुकाएँ और मन्‍त्रोच्‍चारण करें – आप स्‍वयं ही आनन्‍द का अद्भुत् अनुभव करने लगेंगे।
स्‍मरण रहे! परम पिता परमात्‍मा को ‘विष्‍णु’ इसलिये कहते हैं कि कण-कण में समा रहा है, वह सदैव सब दिशाओं में एकरस विद्यमान रहता है अतः हमारे अन्‍तःकरण में (समक्ष-रूपेण) विद्यमान रहता है – यह प्रमाणित है। अपने मन को स्‍वच्‍छ करें तो वह परमात्‍मा आपको सब स्‍थान में, सब में दिखाई देगा अर्थात् उसका आभास होने लगेगा और यही परमात्‍मा का प्रत्‍यक्ष करना है। मन पर जमे लोकैषणा, अहंकार और स्‍वार्थ के आवरण को मिटाएँ तो सब कुछ स्‍पष्‍ट और सरल मालूम पड़ेगा अन्‍यथा आप यही कहेंगे कि परमात्‍मा हमारे सामने नहीं है अतः प्रार्थना के समय हाथ जोड़ना और शीश नमाना मात्र दिखावा है।
हमारे विद्वान पाठकव्न्‍द स्‍वयं निर्णय करें कि क्‍या हम वेद तथा आर्ष ग्रन्‍थों को प्रमाणित मानते हैं या ‍िफर कुछ ऐसे लोगों के बहकावे में न आएँ क्‍योंकि "नीम हकीम ख़तरे जान" तथा "अधजल गगरी छलकत जाए" ऐसे लोग अपने अहंकार, हठ और दुराग्रह के कारण अपनी हानि तो करते ही हैं, दूसरों को भी अन्‍धश्रद्धा एवं अन्‍धविश्‍वास की अन्‍धेरी खाई में ढकेलते रहते हैं। हम आप महानभावों से निवेदन करते हैं कि स्‍व-आत्‍मा की वाणी को सुनें और आचरण में लावें क्‍योंकि सच्‍चे श्रेष्‍ठ मनुष्‍य का आत्‍मा सत्‍यासत्‍य को जानने वाला होता है।
ईश्‍वर सब को सर्वदा सद्-बुद्धि और मन की शान्‍ित प्रदान करे!

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